कानपुर के परौख गांव के कच्चे घर में कभी रहने वाले रामनाथ कोविंद देश के 14वें राष्ट्रपति बन गए हैं और 340 कमरे वाले राष्ट्रपति भवन की शोभा बढ़ाएंगे। उनका राष्ट्रपति बनना हमारे लोकतंत्र का जश्न है कि जिस व्यक्ति ने बचपन गुरबत में गुजारा वह देश के पहले नागरिक बन गए हैं। उन्होंने बताया भी है कि बारिश के समय उनकी फूस की छत से पानी टपकता था। उन्होंने भावुक होकर सवाल भी किया है कि आज भी कितने रामनाथ कोविंद बारिश में भीग रहें होंगे? पर उनका राष्ट्रपति बनना ही ऐसे लोगों के सामने आशा की किरण तथा एक बढ़िया मिसाल होगी कि अगर आप चरित्रवान हैं, प्रतिभावन हैं और समर्पित हैं तो आप कहीं भी पहुंच सकते हो। देश का लोकतंत्र इसकी इजाज़त देता है।
वास्तव में पहले नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना और अब रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति बनना हमारी राजनीति में आए भारी तबदीली का संकेत है। राजनीति अब ईलीट या कुलीन वर्ग का खेल नहीं रही। नया भारत उभर रहा है जहां प्रतिभा का महत्व है, पैसे या वंश का नहीं। तेजी से हाशिए की तरफ बढ़ती कांग्रेस पार्टी को यह समझना चाहिए।
रामनाथ कोविंद के बारे बहुत लिखा गया कि के.आर. नारायणन के बाद वह दूसरे ‘दलित राष्ट्रपति’ होंगे। कहा जा रहा है कि भाजपा उत्तर प्रदेश के दलितों को उनके समर्थन का धन्यवाद करना चाहती है तथा देश के कुछ हिस्सों में दलितों की नाराजगी कम करना चाहती है। उनके खिलाफ विपक्ष की उम्मीदवार मीरा कुमार को भी दलित प्रस्तुत किया गया। एक प्रकार से चुनाव मेरे ‘दलित बनाम तुम्हारे दलित’ के बीच बन गया।
मैं समझता हूं कि यह के.आर. नारायणन तथा रामनाथ कोविंद दोनों के प्रति अन्याय होगा। के.आर. नारायणन बुद्धिमान राष्ट्रपति थे जिनका संविधान के अनुसार गरिमायुक्त कार्यकाल रहा। रामनाथ कोविंद का 16 वर्ष का सुप्रीम कोर्ट तथा हाईकोर्ट में वकालत का अनुभव है। प्रतिभा पाटिल की तरह राजनीति का उतना अनुभव तो नहीं लेकिन उनके जैसे विवादास्पद भी नहीं हैं। उनका बेदाग निजी और पारिवारिक अतीत, लम्बा कानूनी अनुभव, प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा शैक्षिक योग्यता उन्हें इस पद के लिए उपयुक्त बनाते हैं। उन्होंने शुरू में ही कह दिया है वह वचन देते हैं कि वह संविधान की रक्षा करेंगे। किसी को इस बात की शंका होनी भी नहीं चाहिए। वह देश के प्रथम नागरिक हैं। संविधान के सरंक्षक हैं और सेना के सर्वोच्च कमांडर हैं। इसलिए उन्हें मात्र ‘दलित’ के दायरे में बंद नहीं करना चाहिए।
बहुत लिखा गया कि अब चार बड़े संवैधानिक पद उनके पास होंगे जिनका संबंध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से है। रामनाथ कोविंद, नरेंद्र मोदी, वैंकया नायडू तथा सुमित्रा महाजन सब संघ से संबंधित हैं लेकिन इस पर आपत्ति क्या है? आपत्ति तब हो अगर वह संविधान से बाहर कुछ करें। और जो आपत्ति कर रहे हैं उन्हें भी सोचना चाहिए कि वह पिछड़ते क्यों जा रहे हैं?
सोनिया गांधी ने भी कहा और मीरा कुमार ने भी कहा कि सिद्धांतों तथा मूल्यों की लड़ाई जारी रहेगी। उनसे सवाल है कि अगर आपके सिद्धांत तथा मूल्य इतने सही हैं तो इनकी इतनी पराजय क्यों हो रही है? देश तो आपकी विचारधारा को एक तरफ छोड़ कर आगे बढ़ गया है। कहा जा रहा है कि हम संकीर्णता तथा साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन यह संघर्ष है कहां? नीतीश कुमार बिदकने की तैयारी में हैं। सपा में फूट है। कई पार्टियों में क्रास वोटिंग हुई है। राहुल गांधी टयूबलाईट की तरह कभी-कभी जलते हैं। कांग्रेस तो मां-बेटे की पार्टी बन चुकी है। विचारधारा है कहां?
इस देश ने कई उत्कृष्ट राष्ट्रपति देखे हैं। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जवाहरलाल नेहरू के साथ हिन्दू कोड बिल तथा सोमनाथ मंदिर को लेकर टकराव रहा। डॉ. राधाकृष्णन अपने पांडित्य के लिए जाने गए। उन्होंने यह निश्चित किया कि 1962 की लड़ाई में पराजय के बाद रक्षामंत्री कृष्णा मेनन को हटा दिया जाए। एपीजे अब्दुल कलाम ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने से रोककर देश को गृहयुद्ध से बचा लिया। प्रणब मुखर्जी की कांग्रेसी पृष्ठ भूमि के बावजूद भाजपा के प्रधानमंत्री के उनके साथ सुखद संबंध रहे यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें पिता तुल्य कहा। अगर सरकार के साथ उनके मतभेद थे तो प्रणब मुखर्जी ने इन्हें कभी सार्वजनिक नहीं होने दिया।
यही बात ज्ञानी जैल सिंह के बारे नहीं कही जा सकती जो एक बार राजीव गांधी की सरकार को बर्खास्त करने के बारे गंभीरता से सोच रहे थे जो बात उन्होंने छिपाई भी नहीं। पर ज्ञानी जी को यह श्रेय अवश्य जाता है कि ब्लूस्टार के समय भारी उत्तेजना के बावजूद उन्होंने संवैधानिक जिम्मेवारी निभाई। अगर उस वक्त कोई गलत कदम उठा देते तो बहुत बड़ा संकट खड़ा हो जाता। लेकिन सबसे अधिक बदनामी के हकदार राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद (1974-77) बने जिन्होंने बिना पढ़े एमरजैंसी लगाने के उस अध्यादेश पर हस्ताक्षर कर दिए जिसे मंत्रिमंडल ने पारित नहीं किया था। और देश को कैदखाने में परिवर्तित कर दिया गया।
रामनाथ कोविंद उस वक्त राष्ट्रपति भी होंगे जब वर्तमान सरकार की अवधि समाप्त होगी। अर्थात 2019 के चुनाव के समय वह राष्ट्रपति होंगे। अगर कोई समस्या नहीं हुई तो राष्ट्रपति की बड़ी भूमिका नहीं होगी लेकिन अगर किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो राष्ट्रपति को संविधान के अनुसार निर्णय लेना होगा। वैसे तो इस वक्त खंडित जनादेश की कोई संभावना नहीं लगती लेकिन राजनीति में कुछ भी निश्चित नहीं। उन्हें न जैल सिंह की तरह टकराव करना चाहिए और न ही फखरुद्दीन अली अहमद की तरह समर्पण।
रामनाथ कोविंद उस वक्त राष्ट्रपति बन रहे हैं जब देश की सुरक्षा को अंदर तथा बाहर से चुनौती मिल रही है। कश्मीर संभल नहीं रहा और चीन उत्तेजना दे रहा है। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की मांग जोरदार तरीके से उठ सकती है। संघ धारा 370 खत्म करने की मांग उठा सकता है। सामान्य नागरिक कानून का मामला भी उठा सकता है। प्रधानमंत्री चाहते हैं कि लोकसभा तथा विधानसभा के चुनाव एक साथ करवाए जाएं। किसान आत्महत्या का मामला देश को परेशान करता रहता है। लम्बित दया याचिकाओं के बारे भी उन्होंने निर्णय लेना है। लोगों की आकाक्षाएं बढ़ रही हैं।
अर्थात बहुत से संवैधानिक जिम्मेवारियों से नए राष्ट्रपति को दो-चार होना पड़ेगा। लेकिन एक काम उन्हें और करना है। उन्हें आलीशान राष्ट्रपति भवन को जनता का भवन बनाना होगा। यह ब्रिटिश ठाठ-बाठ और तामझाम जो उनके शपथ ग्रहण समय भी देखी गई अब खत्म होनी चाहिए। हमारा राष्ट्रपति भवन 320 एकड़ में फैला, 200,000 वर्ग फुट पर बना दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा राष्ट्रपति महल है। अंग्रेज आरक्टिैक्ट एडवर्ड लयूटंज़ ने इसे नई दिल्ली की रायसीना हिल्स पर वायसराय के लिए बनाया था।
वाशिंगटन में अमेरिकी राष्ट्रपति के व्हाईट हाऊस के मात्र 132 कमरे हैं और वह 18 एकड़ में फैला हुआ है। क्या भारत के राष्ट्रपति के लिए इतना आडम्बर जायज़ है? आम आदमी तो इसके नजदीक फटक भी नहीं सकता और न ही राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने यह दूरी कम करने की कोशिश भी की। क्या यह दूरी कम करने का राष्ट्रीय कर्त्तव्य महामहिम कोविंद निभाएंगे? जिस दिन वह ऐसा कर गए वह वास्तव में लोकतंत्र का जश्न होगा।
अंत में : सुझाव है। आजाद भारत अपने शहीदों के लिए राजधानी में स्मारक नहीं बना सका क्योंकि उपयुक्त जगह नहीं मिली। 70 वर्ष के बाद भी विभिन्न विभाग उपयुक्त जगह के लिए लड़-झगड़ रहें हैं। क्या राष्ट्रपति भवन अपने 320 एकड़ ज़मीन में से कुर्बानी देगा और भव्य राष्ट्रीय स्मारक के लिए 30-40 एकड़ की जमीन उपलब्ध करवाएगा? आखिर भारत के राष्ट्रपति को पोलो खेलने का मैदान या गाल्फ खेलने के कोर्स तो चाहिए नहीं!
लोकतन्त्र का जश्न (Celebration of Democracy),