हमारे राजनेता कितने अवसरवादी हैं और उनकी अंतरात्मा कितनी लचीली है इसका एक बार फिर प्रमाण उन नीतीश कुमार ने दे दिया जिन्हें कभी कुछ लोग 2019 में नरेंद्र मोदी का विकल्प समझते थे। लेकिन इस मौसम के मुर्गे ने दीवार पर लिखा अच्छी तरह से पढ़ लिया कि विपक्ष के कथित महागठबंधन का कोई भविष्य नहीं और उन्हीं नरेंद्र मोदी तथा उसी भाजपा के सामने समर्पण कर दिया जिन्हें कभी वह गालियां दिया करते थे यहां तक कि अपने घर बुला कर भाजपा के नेताओं का भोज रद्द कर दिया क्योंकि इसमें तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल होने वाले थे।
आज उसी भाजपा के समर्थन से वह बिहार के मुख्यमंत्री बन गए हैं जिस पर कहा जा सकता है,
कथनी और करनी में फरक है या रब्ब
वो जाते थे मयखाने में कसम खाने के बाद!
जब 2013 में उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ा तो उनके अनुसार वह अपनी अंतरात्मा की आवाज के अनुसार चल रहे थे। 17 वर्ष वह एनडीए के सदस्य रहे थे। केन्द्रीय रेल मंत्री तक रहे लेकिन भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री घोषित करना वह पचा नहीं सके। उनका तब कहना था कि वह मोदी की विचारधारा को बर्दाश्त नहीं कर सकते। उसके बाद भी वह ‘संघ मुक्त भारत’ का आह्वान करते रहे।
उस वक्त नीतीश कथित सैक्यूलरवाद तथा सामाजिक न्याय के ध्वजारोही थी। इनकी खिदमत करने के लिए उन्होंने उस लालू प्रसाद यादव की पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया जो भ्रष्ट आचरण के कारण चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित हो चुके थे। उस वक्त नीतीश कुमार को लालू से जप्फी डालने में कुछ अनुचित नहीं लगा। अब पासा पलट चुका है। नीतीश जान गए हैं कि 2019 में विपक्ष गठबंधन का कोई भविष्य नहीं और नरेंद्र मोदी अनस्टॉपेबल अर्थात जिन्हें कोई रोक नहीं सकता, बन चुके हैं। इसलिए कहना है कि मैं भ्रष्टाचार के मामले से समझौता नहीं कर सकता।
ऐसे समय में उनकी अंतरात्मा ने फिर नीतीश को नेक सलाह दी। तेजस्वी पर सीबीआई दर्ज एफआईआर उनके काम आया और लालू परिवार को बीच मझधार छोड़ उन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन कर लिया। लेकिन उनकी अंतरात्मा ने यह सलाह क्यों नहीं दी कि आप इस्तीफा देकर नया जनादेश प्राप्त करो क्योंकि पिछला जनादेश तो भाजपा के खिलाफ था? भाजपा की तो मौज है। बिना कुछ किए कराए उन्हें एक और प्रदेश मिल गया पर नीतीश तो जवाब देह हैं कि उन्होंने जनता के बीच जाने के बारे क्यों नहीं सोचा? जनता फैसला करती कि किसे वह चाहती है किसे वह नहीं? क्या घबराहट थी कि फिर कुर्सी नहीं मिलेगी?
भाजपा नहीं बदली। नरेंद्र मोदी नहीं बदले। जिस नेतृत्व का उन्होंने चार साल पहले अपमान कर एक प्रकार नीचे से थाली छीन ली थी वह नेतृत्व और मजबूत हुआ है। पर नीतीश ने कलाबाज़ी खाई और अपनी ख्याति तक अवसरवादी नेता की पक्की कर दी। जो छवि उन्होंने बहुत मेहनत से बनाई थी वह असलियत से मेल नहीं खाती। वह तो दुश्मन के साथ सहबिस्तर होने को भी तैयार हैं, जब तक वह पटना के मुख्यमंत्री निवास ढ्ढ ऐनी मार्ग के निवासी बन सके। उन्हें अवसरवादी कहे या यथार्थवादी, नीतीश ने साबित कर दिया कि उनका एकमात्र सिद्धांत सत्ता है। अब देखना है कि अगला यू-टर्न कब आता है और कौन लेता है? 2019 तक तो बिहार में यह गठबंधन चलेगा उसके बाद क्या होता है कौन कह सकता है? हो सकता है कि भाजपा वाले उन्हीं की दवाई उनकी ‘अंतरात्मा’ को पिला दें!
जहां तक लालू का सवाल है उनके बारे में पहले भी लिख चुका हूं कि इन लोगों ने सैक्यूलरवाद के नाम पर देश और प्रदेश को खूब लूटा है। लालू और नवाज शरीफ की स्थिति समानांतर चलती नजर आती है। दोनों अयोग्य घोषित हो चुके हैं और दोनों के मुन्ने भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे हुए हैं।
लेकिन यह अलग बात है। इस वक्त तो नीतीश के पलायन से विपक्ष के कथित महागठबंधन को भारी धक्का पहुंचा है। विपक्ष सन्न रह गया है। नीतीश वह चेहरा था जिनके इर्द-गिर्द बाकी दल इकट्ठे हो सकते थे। अब विपक्ष के पास केवल राहुल गांधी और ममता बैनर्जी ही बचे हैं। राहुल किसी को उत्साहित नहीं करते और ममता सनकी और बेकाबू है। मायावती की पार्टी नहीं रही और सपा में विभाजन हो रहा है। अरविंद केजरीवाल खामोश हैं। वह अरुण जेतली के खिलाफ बोल कर विपक्ष में अपनी जगह बनाना चाहते थे कि राम जेठमिलानी गले पड़ गए!
बिहार के घटनाक्रम ने भाजपा के दोनों हाथों में लड्डू दे दिए हैं। वह जब चाहे नीतीश का प्लग खींच सकते हैं। वैसे भी 1990 की राजनीति का भाजपा-विरोधावाद अब अपना आकर्षण खो चुका है। नरेंद्र मोदी तथा अमित शाह ने उस इमारत को उखाड़ दिया है जो भाजपा के प्रति नफरत की नींव पर खड़ी थी। देश की 70 प्रतिशत आबादी पर भाजपा का शासन है। न ही सैक्यूलरवाद ही कोई मुद्दा बचा है। यह केवल मुस्लिम वोट हासिल करने का ढकोसला बन कर रह गया है। अफसोस है कि गांधी जी के वशंज गोपाल कृष्ण गांधी उस पार्टी के उम्मीदवार बनने को तैयार हो गए जो मां-बेटे की पार्टी बन कर रह गई है।
लेकिन भाजपा का साथ भी नीतीश के लिए आसान नहीं होगा। भाजपा का देश भर में शासन है और दमदार नेतृत्व है। संघ जिसे वह गालियां निकालते रहे, अपना एजेंडा लागू करवाने की कोशिश करेगा। और अगर 2019 में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो वह नीतीश को क्यों रखेंगे? वह अपने किसी नेता को बिहार का मुख्यमंत्री बनाना चाहेेंगे।
इस बीच बिहार फंसा हुआ है। वह ‘बीमारू’ प्रदेश ही है। बहुत बड़ी संख्या में बिहारी प्रदेश के बाहर नौकरी करने जाते हैं। ट्रेनें जो सबसे अधिक भरी जाती हैं, यह वह हैं जो बिहार से गुजरती हैं। बाहर इन्हें अपमान भी सहना पड़ता है। पिछले दो सालों में प्रदेश का विकास नहीं हुआ। नया निवेश नहीं हो रहा। बाहर से कोई पैसा नहीं लगाता। शिक्षा का क्षेत्र चरमरा गया है जो नकल करवाने के प्रयास की तस्वीरों से भी पता चलता है। जिस प्रदेश में 2500 साल पहले नालंदा विश्वविद्यालय ने शिक्षा की मशाल जलाई थी वह उच्च शिक्षा में पिछड़ गया है। 2015-16 में बिहार की प्रति व्यक्ति आय 26801 थी जबकि केरल की इससे तीन गुना अधिक थी। जातिवाद, परिवारवाद तथा भ्रष्टाचार ने प्रदेश का भट्ठा बैठा दिया। नेतृत्व कैसा मिला है यह नीतीश के ताजा यू-टर्न से पता चलता है। वह तो मौकाप्रस्ती के ब्रैंड अम्बैसडर बन गए लगते हैं। बिहार की जनता कह सकती है:
राहजन को भी यहां तो रहबरों ने लूटा है,
किसको राहजन कहिए किसको रहनुमा कहिए!
1970-80 के दशक में हरियाणा ‘आया राम गया राम’ के कारण कुख्यात था। राजनीतिक बईमानी की पराकाष्ठा तब हुई जब 1980 में इंदिरा गांधी की वापिसी के बाद भजनलाल जनता पार्टी के 40 विधायकों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए हैं और कांग्रेस के सीएम बन गए। हरियाणा तो अब सुधर गया है। अब बिहार नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। ‘आया राम गया राम’ की जगह ‘आया कुमार गया कुमार’ ले रहा है!
आया कुमार, गया कुमार (Aya Kumar Gaya Kumar),