चीन की धौंस जारी है। उन्होंने समझा नहीं था कि भारत डोकलाम में इस तरह अड़ जाएगा। चीन की आर्थिक तथा सैनिक क्षमता बहुत बढ़ चुकी है। विशेष तौर पर उनके राष्ट्रपति शी जिनपिंग समझते हैं कि वह दिन लद गए जब चीन को दूसरों की संवेदना की चिंता करनी चाहिए उलटा शी समझते हैं कि दूसरों को चीनी साम्राज्य के उत्थान के मुताबिक अपने को ढालना चाहिए। इस बीच भारत ने चुनौती दे दी है जो वह पचा नहीं पा रहे इसलिए रोजाना उनका मीडिया या अधिकारी हमें धमकियां दे रहे हैं। अभी तक उनके सरकारी अखबार ग्लोबल टाईम्स में 20 लेख भारत को 1962 का सबक सिखाने से संबंधित प्रकाशित हो चुके हैं।
मोदी सरकार के लिए विदेश मामलों में यह सबसे कठिन चुनौती है। चीन को यह आभास नहीं था कि भूटान की तरफ से भारत इस हद तक जाएगा। यह गलत आंकलन अब समस्या और संकट खड़ा कर रहा है। चीन जिस तरह धमकियां देता रहा है और जिस तरह उसने उत्तेजना खड़ी कर दी है अब उसके लिए वापिस जाना आसान नहीं होगा। यह शी जिनपिंग की प्रतिष्ठा का भी सवाल है। वह दक्षिण चीन समुद्र में अपना हुकम मनवा कर हटे हैं। फिलिपीन्स ने तो समर्पण कर दिया है। इसलिए स्तब्ध है कि हिमालय में वह ऐसा नहीं कर सके जबकि चीन और भारत की ताकत में बहुत फर्क है। लेकिन चीन जानता है कि भारत के साथ युद्ध बहुत महंगा साबित होगा और जरूरी नहीं कि किसी की भी जीत हो। इसीलिए धमकियों, दबाव, जबरदस्ती तथा डरावे का इस्तेमाल कर रहा है। भारत स्थित फ्रांसीसी विशेषज्ञ क्लौड आरपी का मानना है कि ‘‘चीन ने विवादित क्षेत्र में सड़क निर्माण शुरू कर दिया है यह सोचते हुए कि भारत भूटान की रक्षा नहीं करेगा। यह चीन का गलत आंकलन था।’’
आंकलन गलत था या सही, यह तो अब कहने की बातें रह गई हैं। हकीकत तो यह है कि हिमालय पर दोनों आमने-सामने हैं। भारत की जनता जो पहले ही 1962 को नहीं भूली और चीन को अविश्वास से देखती है अब क्रोधित है। इसलिए यह मांग उठ रही है कि चीनी माल का बहिष्कार किया जाए ताकि चीन की असली ताकत, उसकी आर्थिकता, पर वार किया जा सके। क्या चीनी माल का बहिष्कार होना चाहिए? क्या इसका कोई फर्क भी पड़ेगा? और क्या ग्लोबलाईजेशन के युग में यह हो भी सकता है?
जो लोग बहिष्कार का समर्थन करते हैं का मानना है कि हम चीनी माल खरीद कर उनकी अर्थ व्यवस्था को मजबूत बना रहे हैं। क्योंकि चीन का माल सस्ता है इसलिए बच्चों के खिलौनों से लेकर मूर्तियां और बहुत कुछ चीन से आ रहा है। मोबाईल के क्षेत्र पर तो एक प्रकार से चीन का कब्जा है। चीन की ह्रक्कक्कह्र या ङ्कढ्ढङ्कह्र जैसी मोबाईल कंपनियां भारत में छा गई हैं। एक अगर क्रिकेट विश्व कप की प्रायोजक है तो दूसरी कब्बडी का। ह्रक्कक्कह्र ने पांच वर्ष भारतीय क्रिकेट को स्पांसर करने के लिए 1000 करोड़ रुपया खर्च करना है। अनुमान है कि चीन की दो बड़ी मोबाईल कंपनियां हर साल भारत से 4 अरब डॉलर मुनाफा कमाती हैं। इसका दूसरा दुष्प्रभाव यह है कि हमारा संचार नैटवर्क उनकी पकड़ में आ जाता है। हाल ही में अमेरिका चीन में बने ड्रोन पर रोक लगा कर हटा है क्योंकि उनका संचार चीन की पकड़ में आ रहा था।
चीन के सस्ते माल के हमले का दुष्परिणाम यह भी है कि इससे हमारा छोटा तथा मझला उद्योग संकट में आ गया है। जहां चीन द्वारा कृत्रिम तौर पर कम कीमतें रखने से हमें आयात करों में नुकसान होता है वहां इसके कारण हमारे अपने उद्योग को भारी चुनौती मिल रही है। चीन की आर्थिक घुसपैठ को लेकर अब तो डोनाल्ड ट्रंप भी ऊंची शिकायत कर रहे हैं क्योंकि अधिकतर अमेरिकी घरों में हर वस्तु ‘मेड इन चाईना’ है। विशेषज्ञ ब्रह्म चेललानी ने ‘चीन के आर्थिक युद्ध’ के बारे चेतावनी दी है कि वह भारत की ताकत को विभिन्न तरीकों से कमज़ोर करने की कोशिश कर रहा है जिसमें सस्ता माल फेंक कर हमारी उत्पादन क्षमता को प्रभावित करना शामिल है। ब्रह्म चेललानी ने लिखा है कि सस्ता माल फेंक कर चीन भारत का अरबों डॉलर का नुकसान भी कर रहा है।
2015 में चीन हमारे आयात का 16 प्रतिशत था जबकि अमेरिका 5 प्रतिशत तथा जापान केवल 2 प्रतिशत ही थे। चीन की 500 कंपनियां भारत में काम कर रही हैं और अरबों डॉलर कमा कर ले जाती हैं। चीन का भारत में 104 अरब डॉलर का निवेश है। दोनों देशों के बीच 70 अरब डॉलर का वार्षिक व्यापार है जिसका दो तिहाई हिस्सा चीन के पक्ष में है। हमारा चीन के साथ व्यापारिक घाटा 46.56 अरब डॉलर है। चीन की अर्थ व्यवस्था 11.79 ट्रिलियन डॉलर है जबकि भारत की 2.07 ट्रिलियन डॉलर है। यह जो अंतर है वह कष्ट पैदा कर रहा है।
हावर्ड विश्वविद्यालय की एक शोध के अनुसार भारत विश्व की सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थ व्यवस्था और कुछ वर्षों में वैश्विक आर्थिक विकास की धुरी चीन से खिसक कर भारत की तरफ चली गई है। यह सही हो सकता है लेकिन इस समय तो चीन की अर्थ व्यवस्था हमसे लगभग पांच गुना है। वहां तक पहुंचते हमें कई दशक लग जाएंगे। चीनी माल की घुसपैठ के कारण हमारा रोजगार कम हो रहा है और चीन में नौकरियां बढ़ रही हैं।
सरकार अपना काम कर रही है लेकिन हम आम भारतीय क्या इस मामले में कुछ कर सकते हैं? कई जगह से समाचार है कि इस साल रक्षाबंधन पर बहिनों ने अधिकतर चीन में बनी राखियों का बहिष्कार किया है। वैसे भी भारतीय उत्पाद की विश्वसनीयता चीनी माल से अधिक है लेकिन उलटे समाचार भी हैं। लुधियाना के साईकल उद्योग ने स्पष्ट कर दिया है कि वह साईकल के पार्ट पहले की तरह ही चीन से आयात करेंगे क्योंकि इससे उनका लाभ बढ़ता है। कई तो पूरे बने सस्ते साइकिल वहां से आयात कर रहे हैं। ‘वाईबं्रैट गुजरात’ का प्रचार करने चीन गए गुजरात सरकार के प्रतिनिधिमंडल ने वहां चीनी कंपनियों के साथ 5 अरब डॉलर के अनुबंध किए हैं। जो बहिष्कार का विरोध करते हैं उनका यह भी कहना है कि चीन की 3685 अरब डॉलर का विदेश व्यापार है। वह भारत के साथ व्यापार पर निर्भर नहीं है इसलिए हमारे बहिष्कार से फर्क नहीं पड़ेगा।
अर्थात मामला इतना आसान नहीं। भारत में 70 प्रतिशत मोबाईल चीनी हैं। भारत उनके लिए बड़ा बाजार है। सस्ते चीनी माल के कारण 2000 छोटे-बड़े उद्योग बंद हो गए। 40 प्रतिशत खिलौने बनाने वाले छोटे कारखाने बंद हो चुके हैं। सस्ते चीनी माल के कारण कई उद्योग जैसे कपड़ा, स्टील, खिलौना, कांच, पटाखा, टैक्सटाईल आदि संकट में हैं। अलीगढ़ में ही प्रसिद्ध अलीगढ़ ताले कम बिक रहे हैं।
जहां सरकार को चाहिए कि आयात कर सही कर चीनी माल को मिल रही बढ़त को खत्म करे और भारत के उद्योग को बराबरी पर लाएं वहां व्यक्तिगत तौर पर हमें फैसला करना है कि जब तक वह दुश्मनी वाला रवैया नहीं बदलते चीनी माल का बहिष्कार कर देना चाहिए। एक तरफ सीमा पर हमारे जवान उनका मुकाबला कर रहे हैं तो दूसरी तरफ हमारी क्रिकेट टीम ह्रक्कक्कह्र की जर्सी डाले, यह कितना जायज़ है? ह्रक्कक्कह्र के विज्ञापन में दीपिका पादुकोण खूबसूरत लगती हैं लेकिन उसके पीछे बदसूरत चीनी हरकत है।
वैसे समाचार है कि चीनी आयात में गिरावट आ रही है पर फिर भी जहां तक मेरा संबंध है मैंने फैसला किया है कि मैं जाने में चीनी माल नहीं खरीदूंगा। मैं जानता हूं कि मेरे इस निर्णय से महाशक्ति की सेहत पर असर नहीं पड़ेगा लेकिन चीनी धौंस और अपमान के खिलाफ यह मेरा अपना हथियार है।
क्या बहिष्कार होना चाहिए? (Should We Boycott?),