गुडग़ांव के रयान इंटरनैशनल स्कूल के 7 वर्ष के बच्चे प्रद्युम्न की स्कूल में चाकू से हत्या का मामला हरियाणा सरकार ने सीबीआई को सौंप दिया है। वैसे भी जाट आंदोलन तथा राम रहीम के मामले में अक्षम ढंग से निबटने के बाद हरियाणा सरकार तथा पुलिस की विश्वसनीयता निम्नतम स्तर पर है लेकिन यह असली मसला नहीं है। असली मामला तो यह है कि हमारा समाज इतना विकृत क्यों हो गया है कि छोटे-छोटे बच्चे भी स्कूल में सुरक्षित नहीं हैं? बच्चे की हत्या के अगले ही दिन दिल्ली के एक और स्कूल में पांच वर्ष की बच्ची के साथ बलात्कार हो गया।
सारा देश स्तब्ध है। लोग अपने बच्चे स्कूल भेजने से घबराते हैं। कई छोटे बच्चे टॉयलेट जाने से घबरा रहे हैं। सवाल तो यह है कि यह कैसी मानसिकता के लोग हैं जो नन्हें निरह मासूम बच्चों को शिकार बनाते हैं? स्कूल प्रबंधन की लापरवाही तो स्पष्ट है लेकिन मामला उससे भी अधिक गंभीर है। मामला समाज की बदसूरती का है।
प्रसून जोशी ने लिखा है,
जब किलकारियां सहम जाएं
जब तोतली बोलियां खामोश हो जाएं
समझो की कुछ गलत है!
लेकिन मैं इन्हें कहना चाहूंगा कि यहां तो बहुत कुछ गलत है। एक मां बता रही थी कि उसने अपनी 11 वर्ष की लडक़ी को समझाया है कि कौन सा टच अच्छा है, कौन सा गलत हैं। अर्थात अच्छे और बुरे स्पर्श में अंतर समझाया जा रहा है। स्कूल से लौटने के बाद बच्चों से अभिभावक पूछने लगे हैं कि किसी ने गलत जगह छुआ तो नहीं?
और ऐसा केवल स्कूलों या बाहर ही नहीं होता। घर के अंदर, पड़ोस में, अपने लोगों के बीच बहुत बदमाश मौजूद हैं जो बच्चे की मासूमियत का नाजायज फायदा उठाते हैं। बच्चे शिकायत करने से घबराते हैं। यहां तो एक 10 वर्ष की बच्ची मां बन चुकी है। उससे बलात्कार करने वाला उसका मामा है। सीकर में दो शिक्षकों ने ही एक नाबालिग छात्रा से रेप कर उसे गर्भवती बना दिया। बाद में उसका गर्भपात करवाया। 98 फीसदी बलात्कार वह करते हैं जो परिचित होते हैं।
आंकड़े परेशान करने वाले हैं। 2012 में देश में मासूमों के खिलाफ यौन हिंसा के 38000 मामले दर्ज किए गए जो 2014 तक बढ़ कर 90,000 हो गए। बाल अधिकारों पर काम करने वाली संस्था के अनुसार 69 फीसदी बच्चों के साथ शारीरिक हिंसा हुई है और दो में से एक बच्चा यौन हिंसा का शिकार हुआ है। इनमें 54 फीसदी लड़के हैं, अर्थात लड़के भी सुरक्षित नहीं जो बात रयान स्कूल की घटना से भी मालूम होता है।
क्या हो गया? हमारी सभ्यता को क्या हुआ? हमारे संस्कार कहां गए? हम इतने खोखेले कैसे हो गए?
असली बात है परिवार में कमजोरी आ गई। हम पैसे कमाने की दौड़ में इतना व्यस्त हो गए कि हमारे मूल्य चरमरा गए। सही शिक्षा नहीं दी जा रही। यही कारण है कि भारत दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में गिना जाता है। पारिवारिक व्यवस्था मजबूत नहीं रही। और हम अपने बच्चों की सुरक्षा के प्रति लापरवाह हो गए हैं।
आधुनिकता की दौड़ में भी हम भटक गए। इंटरनैट के सौ फायदे हैं पर इस पर ओपन सैक्स उपलब्ध है। पोरनोग्राफी की हजारों साईटस है। हर अपरिपक्व तथा मानसिक तौर पर असंतुलित के हाथ में यह साईटस है। चाईल्ड पोरनोग्राफी की भी बहुत साईटस है। देश में बढ़ती यौन हिंसा का यह बड़ा कारण है। लेकिन इस पर पाबंदी नहीं लगाई जा सकती। एक, तो यह बहुत मुश्किल है और दूसरा, अगर कोई पाबंदी लगाई गई तो कुछ लोग चीख-पुकार शुरू कर देंगे कि उनकी आजादी पर वार किया जा रहा है। बाद में यही लोग मामबत्तियां लेकर जलूस निकालेंगे।
मीडिया की जिम्मेवारी भी बहुत है। अफसोस की बात है कि अपनी टीआरपी के लिए कई चैनल समाज का बहुत अहित कर रहे हैं। प्रद्युम्न की हत्या के बाद टीवी पर वह दीवार दिखाई गई जहां उसके खून के धब्बे लगे हैं। या रब्ब! मौत में भी बच्चे को चैन नहीं? उसके मां-बाप के जज्बात की इन मीडिया वालों को कोई परवाह नहीं? अमेरिका में 9/11 की घटना जिसमें 4000 के करीब लोग मारे गए थे, एक शव टीवी वालों ने नहीं दिखाया। खून के धब्बे दिखाना तो दूर की बात है। यहां तो जो जवान सीमा पर मारा जाता है उसके घर वालों को बाद में पता चलता है टीवी शव पहले दिखा देता है। सब कुछ बाज़ारू हो गया।
हमारे देश में बहुत बड़ी समस्या है कि कोई आदर्श नहीं रहा, कोई दिशा दिखाने वाला नहीं रहा। आजादी के दिन जब देश जश्न मना रहा था तो गांधी दूर कोलकाता में साम्प्रदायिक हिंसा शांत करने में लगे थे। उपवास रख कोलकाता में उन्होंने दोनों समुदाय के उग्रवादियों को अपने-अपने हथियार रखने के लिए मजबूर कर दिया। इस पर लार्ड माऊंटबेटन ने टिप्पणी की थी, “पंजाब में हमारी 55000 सेना है लेकिन दंगे हो रहे हैं। बंगाल में हमारी सेना में केवल एक आदमी है और वहां कोई दंगा नहीं हैं।” आज ऐसा कौन है? राम जेठमिलानी ने बताया है कि तमन्ना थी कि किसी को आदर्श कह सकूं पर कोई नहीं मिला।
कांग्रेस के दिग्विजय सिंह तथा मनीष तिवारी जैसे बड़े नेता देश के प्रधानमंत्री के प्रति वह अपशब्द लिख रहे जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता। राजनीति इतनी गंदी क्यों हो गई? इसका दुष्प्रभाव देश भर पर पड़ता है। यथा राजा तथा प्रजा! चर्चिल ने हमारे बारे कहा था, “यह तिनको से बने लोग हैं।” हम उसे सही सिद्ध करने में क्यों लगे हैं? एक नेता जरूर सही दिशा दे सकता है, नरेंद्र मोदी। उनके पास वैचारिक शक्ति है, अभिव्यक्ति की कला है,लोग उनकी बात सुनेंगे लेकिन चाहे गाय के नाम पर हिंसा हो या पत्रकारों की हत्या हो, वह खामोश रहते हैं या बहुत देर के बाद बोलते हैं। उन्हें राजनीति से तथा 2019 की ग्रस्तता से उपर उठना है।
नई मुसीबत ब्लू व्हेल गेम ने डाल दी है जिसे खेलते कुछ युवा आत्महत्या कर रहे हैं। जालंधर में ट्रेन के आते ट्रैक पर दौड़ती लडक़ी को जब बचा लिया गया तो वह चीखी, ” मेरी टास्क खराब कर दिया। ” मां-बाप को पता ही नहीं चला कि उनकी लडक़ी कैसे ‘टास्क’ पूरा कर रही थी? इस मोबाईल या इंटरनैट के जरिए जो खतरा आ रहा है, उसके प्रति सबसे सावधान हो जाना चाहिए। मां-बाप को बच्चों से लगातार संवाद रखना चाहिए। स्कूलों में अध्यापक का काम केवल पढ़ाना ही नहीं होना चाहिए वह मार्गदर्शक भी होना चाहिए। उन्हें नजर रखनी है कि बच्चे गलत काम तो नहीं कर रहे? नशाखोरी में तो नहीं पड़ रहा? सहमा-सहमा तो नहीं? पढ़ाई में अरुचि बढ़ तो नहीं रही? और सबसे अधिक उन्हें यौन हिंसा के प्रति सावधान रहना चाहिए।
बहुत लोग है जिन्हें बच्चों के साथ यौन क्रिया में मजा आता है जिन्हें अंग्रेजी में पीडोफिल कहा जाता है। हर वर्ष हमारे देश में ऐसे विदेशी पकड़े जाते हैं जो लावारिस या गरीब बच्चों की मदद के बहाने यहां आते हैं पर उनका मकसद उनका यौन शोषण होता है। ईसाई पादरियों द्वारा अपने संरक्षण में आए बच्चों के यौन उत्पीडऩ को लेकर वैटिकन माफी मांग चुका है लेकिन हमें अपनी चिंता है। हमें अपने बचपन को बचाना है। कुछ देशों में यौन अपराधियों के नपुंसक बनाने का प्रावधान है। मद्रास हाईकोर्ट ने पिछले साल ऐसा ही सुझाव दिया था। हाईकोर्ट का कहना था कि जब कानून अप्रभावी, अशक्त तथा असमर्थ हो तो सजा की ताकत बढ़ाने की जरूरत होती है। क्या इस गंभीर सामाजिक समस्या का यही इलाज है कि जो गंभीर यौन अपराध के दोषी हों उन्हें नपुंसक बना दिया जाए?