नरेन्द्र मोदी और उनके निंदक (Narendra Modi and his critics)

पिछले कुछ सप्ताह इस सरकार के लिए अच्छे नहीं रहे। जैसी संभावना थी जब से विकास की दर 7.2 फीसदी से 5.7 फीसदी गिरने का समाचार बाहर निकला है सरकार सुरक्षात्मक हो गई है। यशवंत सिन्हा तथा अरुण शोरी जैसे वाजपेयी सरकार के मंत्री असुखद सवाल खड़े कर रहे हैं। राहुल गांधी के चेहरे पर चमक आ गई है। मैंने खुद 7 सितम्बर के लेख में लिखा था, “सरकार की गिरती अर्थव्यवस्था के दुष्परिणामों से निबटने के लिए तैयार रहना चाहिए।“ मोदी सरकार के लिए इस सबसे असुखद है कि संघ भी सरकार की आर्थिक नीतियों से असंतुष्ट है। विजयदशमी पर अपने भाषण में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने छोटे व्यापारियों को आ रही दिक्कतों का मामला उठाया था। उसी के बाद सरकार तेजी से हरकत में आई और जीएसटी में कुछ परिवर्तन लाने की घोषणा कर प्रधानमंत्री ने कह दिया कि दीवाली पन्द्रह दिन पहले आ गई है।

लेकिन देश में दीवाली वाला मूड नहीं है। मैं मानता हूं कि यशवंत सिन्हा तथा अरुण शोरी की आलोचना में राजनीतिक हताश तथा दुर्भावना झलकती है। विशेषतौर पर अरुण जेतली पर अनावश्यक कटाक्ष किए गए हैं और यशवंत सिन्हा तो वह व्यक्ति हैं जो 1991 में चंद्रशेखर सरकार में उस वक्त वित्तमंत्री थे जब देश का 67 टन सोना इंग्लैंड तथा स्विटज़रलैंड में गिरवी रखा गया था। लेकिन बात केवल उन्हीं की नहीं बात देश की जनता की है। लोगों ने लाईन में लगकर चुपचाप नोटबंदी को बर्दाश्त किया इस आशा के साथ कि (1) महंगाई कम होगी (2)नौकरियां बढ़ेंगी तथा (3)ब्लैकिए को सज़ा मिलेगी। कुछ नहीं हुआ। उलटा भ्रष्ट व्यवस्था से मिल कर सब अपना काला धन सफेद कर गए। केवल जो ईमानदार हैं वह चूसा जा रहा है।

प्रधानमंत्री ने शिकायत की है कि कुछ लोग नैराश्य बढ़ा रहे हैं। उनकी यह भी टिप्पणी है कि पहली बार विकास की दर नहीं गिरी। पिछली सरकार के समय 8 बार जीडीपी की दर 5.6 प्रतिशत के नीचे गई थी।

इनकी बात और उनके दिए आंकड़े सही है लेकिन बहुत से आंकड़े ऐसे भी हैं जो बताते हैं कि अर्थव्यवस्था कमजोर हुई है। जीडीपी में निर्यात की हिस्सेदारी 14 साल के निचले स्तर पर है। 200 बड़ी कंपनियों में रोजगार कम हुआ है। रिजर्व बेंक की ताज़ा रिपोर्ट में वित्तीय वर्ष में वृद्धि दो महीने पहले के 7.3 फीसदी के अनुमान से कम होकर 6.7 फीसदी दिखाई गई है। बैंक ने माना कि लोगों का अर्थव्यवस्था में विश्वास डिगा है। और आप मनमोहन सिंह सरकार से तुलना क्यों करते हैं? जनता को उस सरकार की कारगुजारी पसंद नहीं थी तब ही तो आपको बहुमत दिया गया।

जहां तक जीएसटी का सवाल है, यह कानून एक न एक दिन आना ही था। एक देश-एक टैक्स का लक्ष्य सही है पर जिस तरह इसे लागू किया गया उसने नोटबंदी से पैदा मंदी को और बढ़ा दिया। इतने फार्म बना दिया कि दुकानदार जो भाजपा तथा संघ का आधार है, वह नाराज हो गया। जीएसटी का विचार एक सरल टैक्स व्यवस्था थी पर पांच अलग स्लैब व्यापारियों पर थोप दिए गए। अब इसे सरल करने की कोशिश हो रही है लेकिन इस वक्त तो यह असंतोष फैल रही है। परिवर्तन धीरे करने की जरूरत है पर यहां तो झटके पर झटका लग रहा है।

भारतीय जनता पार्टी की सरकार लोगों ने इसलिए बनाई थी ताकि वह भारत की आर्थिकता को मज़बूत करेंगे तथा काले धन पर नकेल डालेंगे। लेकिन सारा ध्यान चुनाव जीतने पर रहता है। जिस वक्त लोगों की नौकरियां जा रही हैं, अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता का माहौल है, अमित शाह के यह दावे की भाजपा अगले चुनाव में 350 सीटों से अधिक जीतेगी या 50 वर्ष शासन करेगी तकलीफ पहुंचाते हैं। भारत के इतिहास में कभी भी वोट हासिल करने के लिए किसी प्रधानमंत्री का इस तरह इस्तेमाल नहीं हुआ जैसे नरेन्द्र मोदी का हुआ है।

लोगों को आपके चुनाव जीतने में दिलचस्पी नहीं। वह अच्छी सरकार चाहते हैं। गोरखपुर में बच्चों की मौत या मुम्बई के पारेल स्टेशन पर भगदड़ में लोगों की मौत बताती है कि जमीन पर कुछ नहीं बदला। असफरशाही, विशेषतौर पर स्थानीय स्तर पर, हिलने या बदलने को तैयार नहीं। अगर प्रधानमंत्री देश को सुधारना चाहते हैं तो उन्हें अफसरशाही की मानसिकता में परिवर्तन लाना होगा। मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर कमजोर हुआ है। किसान आत्महत्याएं रुक नहीं रही। निर्माण उद्योग जहां बहुत लेबर लगती है भी कमजोर पड़ चुका है क्योंकि मांग कम है।

मिडल क्लास अपनी जगह दुखी हैं। सरकार तथा भाजपा में कई लोग समझते हैं कि मिडल क्लास के असंतोष की अवहेलना की जा सकती है क्योंकि प्रधानमंत्री अब खुद को गरीबों के मसीहा प्रस्तुत कर रहे हैं। लेकिन मिडल क्लास है जो देश का एजेंडा तय करती है। अन्ना हजारे के  ‘इंडिया अगेंस्ट क्रप्शन’ अभियान को भी मिडल क्लास ने ही चलाया था। जो मिडल क्लास सोचती है वह चारों तरफ फैल जाता है क्योंकि संचार के माध्यम पर उनकी पकड़ है।

अगला चुनाव न हिन्दुत्व पर लड़ा जाएगा, न ताजमहल पर लड़ा जाएगा, न गोरक्षा पर लड़ा जाएगा, न पाकिस्तान पर ही लड़ा जाएगा। परीक्षा अर्थव्यवस्था को लेकर होगी जो इस वक्त अच्छी हालत में नहीं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अर्थव्यवस्था फिर खड़ी नहीं होगी। लेकिन समय लगेगा। विश्व बैंक ने भी कहा है कि  “भारत की अर्थव्यवस्था में धीमापन असामान्य है… यह आने वाले महीनों में सही हो जाएगी। जीएसटी का अर्थव्यवस्था पर भारी सकारात्मक प्रभाव होगा।“

अर्थव्यवस्था निश्चित तौर पर वैंटीलेटर पर नहीं है पर इस वक्त तो सरकार को अपने निंदकों के जवाब देने पड़ रहे हैं। लेकिन सरकार को अपने राजनीतिक निंदकों की इतनी चिंता नहीं करनी चाहिए उन्हें चिंता करनी चाहिए कि भारत की जनता निराश और हताश है। बेरोजगारी के कारण युवा आक्रोश में है। लोगों की नाराजगी को च्तकनीकी कारणों ज् से कह कर आप रफा-दफा नहीं कर सकते। नरेन्द्र मोदी ने एक करोड़ नौकरियां निकालने का वायदा किया था लेकिन दो-तीन लाख नौकरियां ही पैदा हो रही हैं जबकि हर वर्ष 12 लाख नए नौजवान रोजगार की लाईन में शामिल हो रहे हैं।

अगर इस माहौल को बदलना है तो (1) पहले तो मानना चाहिए कि लोगों को तकलीफ है। उनका समाधान निकालना चाहिए और तत्काल निकालना चाहिए। (2) प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का लोगों के साथ संवाद चाहिए। इस वक्त तो वह जो बात करते हैं वह एकतरफा होती है। या ‘मन की बात’ होती है या जनसभा में वह अपने विचार प्रकट करते हैं लेकिन वह जनता की बात सुनते नहीं। जिस तरह न्यूयार्क के मैडिसन स्कवेयर गार्डन में उन्होंने प्रवासी भारतीयों के साथ संवाद किया था वैस देश के अंदर नहीं होता। न ही वह पत्रकार सम्मेलन ही करते हें। मनमोहन सिंह भी साल में एक बार ऐसा करते थे। भारत जैसे लोकतंत्र में प्रधानमंत्री को मीडिया के सवालों को सुनना चाहिए और जवाब देना चाहिए। न ही उन्हें मीडिया में आलोचना को बुरा लेना चाहिए। आखिर मीडिया का फर्ज है कि आपको शीशा दिखाए और मीडिया में बहुत लोग हैं जो चाहते हैं कि आप सफल हो।

(3) बड़े-बड़े वायदे करने बंद होने चाहिए। वर्तमान निराशा का भी बड़ा कारण है कि आशा बहुत थी। ‘15 लाख रुपए देंगे’, ‘अच्छे दिन आएंगे’, ‘न्यू इंडिया’, ‘किसानों की आय दोगुनी होगी’, ‘2022’। यह बनेगा, यह मिलेगा, यह होगा। रेलमंत्री पीयूष गोयल का कहना है कि रेल 10 लाख अतिरिक्त नौकरियां देगी। कब होगा यह? सही कहा गया, कि खुशी से मर न जाते कि एतबार होता! (4)आतंरिक लोकतंत्र की भाजपा में बहुत जरूरत है। यह प्रभाव अच्छा नहीं कि कुछ लोग ही सरकार चला रहे हैं और आलोचक की बात सही भावना से सुनी जानी चाहिए। कबीर जी ने सही कहा था,

निंदक नियरे राखिए आंगन कुटटी छवाय,

बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।

अंत में: पीयूष गोयल का कहना है नौकरी गंवाना बहुत अच्छा संकेत है। नौकरी में कमी का मतलब है कि अधिक से अधिक युवा कारोबारी बन सकते हैं। अजब तर्क है। क्या पीयूष गोयल ने जिनकी नौकरी चली गई उनसे पूछा कि यह अच्छा संकेत है या बुरा? साहिर लुधियानवी से माफी लेते हुए यह सब कह सकते हैं कि, एक मंत्री ने सत्ता का सहारा लेकर बेरोजगारी की बेबसी का उड़ाया है मजाक!

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.