दिवाली पर बम और पटाखे (Bombs and Crackers of Diwali)

भारतीय जनता पार्टी के लिए दिवाली की शुरूआत अच्छी नहीं रही। जिस गुरदासपुर से 2014 में भाजपा के विनोद खन्ना 1.36 हजार से विजयी रहे थे वहां इस बार पार्टी दो लाख से हार गई। यह हार किसी बम गिरने से कम नहीं। भाजपा की पराजय के कई कारण हैं। उनके उम्मीदवार की छवि संदिग्ध है। पूर्व अकाली मंत्री सुच्चा सिंह लंगाह पर रेप का मामला दर्ज होने से अकाली दल उस क्षेत्र में बहुत बदनाम है। पंजाब भाजपा के पास न कोई नेता हैं और न ही किसी को उभरने ही दिया गया। दिल्ली का रवैया उपेक्षापूर्ण रहा है और पार्टी को अकालियों के पास गिरवी रख दिया गया।

लेकिन असली कारण और है। लोग विशेष तौर पर कारोबारी, मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों से बेहद खफा हैं। दिवाली है पर बाजार में रौनक और जोश नहीं। लोग कारोबार में आए खलल, नौकरी बिना विकास, कृषि में आए संकट सब पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहें हैं। जिनके धंधे चौपट हो गए या जिनकी नौकरियां चली गईं वह माफ करने को तैयार नहीं। आप जितने सब्ज़बाग चाहे दिखाओ लेकिन जैसे पुराने गाने की यह पंक्ति कहती है, कल किसने देखा है! कल किसने जाना है! जीएसटी का आगे चल कर फायदा होगा लेकिन इस वक्त तो कीमत चुकानी पड़ रही है। न केवल गुरदासपुर बल्कि दूर केरल में वेंगारा उपचुनाव क्षेत्र में भाजपा का उम्मीदवार चौथे नंबर पर रहा है और पार्टी को पिछले साल के विधानसभा चुनाव से कम वोट मिले हैं जबकि अमित शाह ने वहां जनरक्षक यात्रा निकाली थी।

संदेश साफ है तमाशों से या मूर्तियां बनाने से या ताज महल पर सवाल खड़े करने से पेट नहीं भरता। लोगों के लिए अपनी रोजी-रोटी प्राथमिकता है उसमें विघ्न डालने की कीमत चुकानी पड़ेगी। भाजपा ने भ्रष्टाचार मामले में सजा भुगत चुके सुखराम को शामिल कर लिया है। क्या संदेश है? भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस कहां गई?

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली-एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर लगाई पाबंदी से नई बहस शुरू हो गई है। जहां विक्रेता जिन्होंने लाईसैंस ले रखे थे इस आशा से कि त्यौहार के दौरान कुछ आमदनी होगी, दुखी हैं वहां बहुत लोग यह शिकायत कर रहे हैं कि अदालत केवल हिन्दू भावनाओं पर ही वार करती है। इस पर सुप्रीम कोर्ट भी दुखी है कि उसके फैसले को धार्मिक रंगत दी जा रही है।

दिवाली हिन्दुओं का सबसे बड़ा त्यौहार है जहां गरीब से गरीब भी अपनी मुसीबतें एक तरफ रख कर खुशी मनाता है, दीए जलाता है और पटाखे चलाता है। अब दिल्ली क्षेत्र में तो पाबंदी लगा दी गई लेकिन बाकी देश खुला है। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने कुछ पाबंदी लगाई है लेकिन ऐसी पाबंदियां कितनी सफल होंगी जबकि अदालती फरमान के बावजूद पंजाब और हरियाणा में पराली जलाई जा रही है जो प्रदूषण को बहुत बढ़ा रही है? दूसरा, अगर अदालत ने ऐसा फैसला देना ही है तो क्या यह पहले नहीं दिया जा सकता ताकि व्यापारी लाईसैंस न खरीदते?

लेकिन असली बात है कि दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण की भयानक समस्या है। दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक है। यह रहने लायक नहीं रहा। पिछले 8 सालों में दिल्ली के प्रदूषण में पांच गुना वृद्धि हुई है। शहर श्वास लेने वाली बीमारियों का घर है। और दिवाली प्रदूषण बहुत बढ़ाती है। दिवाली के अगले दिन प्रदूषण की मात्रा सामान्य से नौ गुना होती है। इसलिए दिवाली वाले दिन कुछ पाबंदी लगानी जायज़ है लेकिन दिवाली तो एक दिन है, दिल्ली की प्रदूषण की समस्या तो पूरे 365 दिनों की है।

बताया जाता है कि दिल्ली क्षेत्र के लोगों की उम्र घट रही है क्योंकि यहां खतरनाक प्रदूषण है। फेंफड़ों के कैंसर की भी शिकायत है लेकिन यह एक दिन की दिवाली के कारण नहीं। यह वहां बढ़ रहे वाहनों की संख्या, कारखानों से निकल रहे जहरीले धुएं, थर्मल प्लांट तथा अंधाधुंध निर्माण के कारण है। केवल दिल्ली में एक करोड़ के करीब वाहन हैं। हजारों ट्रक यहां से निकलते हैं क्योंकि रिंग रोड नहीं बनी। बाकी कसर निर्माण की धूल तथा पंजाब-हरियाणा की पराली पूरी कर रही है।

अगर दिल्ली-एनसीआर प्रदूषित है तो यह दिवाली के कारण नहीं बल्कि प्रशासनिक कमजोरी, लोगों की लापरवाही और असहयोग तथा न्यायिक बेबसी के कारण है। जो सबसे अधिक शोर मचाते हैं वह अपने दैनिक जीवन से कोई भी समझौता करने को तैयार नहीं। सोशल मीडिया में सवाल पूछे जा रहे हैं कि माननीय न्यायाधीश या नेतागण प्रदूषण कम करने के लिए अपने-अपने वाहन त्यागने को तैयार होंगे? क्या अपने-अपने चेंबर या दफ्तर में एयर कंडीशनर को बंद किया जाएगा क्योंकि यह बहुत प्रदूषण फैलाते हैं? नैदरलैंडस की तस्वीर प्रकाशित हुई है यहां किंग को सरकार बनाने का दावा पेश कर प्रधानमंत्री मार्क रुट अकेले साईकल पर बाहर निकल रहे हैं। उल्लेखनीय है कि वह 2010 से पीएम हैं। हमारे देश में तो नेता करोड़ों रुपए की बड़ी गाडिय़ां जो पेट्रोल का निगलती हैं, में सफर करते हैं। फिर प्रदूषण खत्म कैसे होगा? मिसाल कौन कायम करेगा?

इस मामले को लेकर एक अलग बहस शुरू हो गई है जिसे हवा लेखक चेतन भगत ने दी है। उनकी शिकायत है कि अदालती वार केवल हिन्दू भावनाओं पर ही चलता है। मुहर्रम की तरफ इशारा करते हुए उनका कहना था कि दूसरे धार्मिक उत्सव खून से लथपथ हैं लेकिन उन पर कोई पाबंदी नहीं लगती।

यह हमारे देश की हकीकत है कि चाहे हिन्दू यहां बहुमत में है पर उनकी भावनाओं की उतनी चिंता नहीं की जाती जितनी अल्पसंख्यकों की होती है। अगर मुहर्रम के जलूस पर आपत्ति नहीं तो दही-हांडी के उत्सव पर नियंत्रण क्यों? बेहतर होता कि अदालत पटाखों पर पूर्ण पाबंदी लगाने की जगह इन पर नियंत्रण करती। कितना बड़ा अन्याय होगा अगर दिवाली के दिन बच्चे फुलझड़ी भी नहीं जला सकेंगे?

आजादी के तत्काल बाद नेहरू सरकार ने हिन्दुओं के लिए कानून बनाने का प्रयास किया जिसमें महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना तथा जात-पात से मुक्ति दिलवाना था। लेकिन हिन्दुओं को छेड़ते हुए नेहरू सरकार ने इस जरूरी सुधार से मुसलमानों को अछूता रखा। तब संसद में हिन्दू कोड बिल पर बहस के दौरान एन.सी. चैटर्जी ने जायज सवाल उठाया,  “ऐसा कानून सबके लिए क्यों न बना लिया जाए? अगर सरकार सचमुच एक पत्नी विवाह में विश्वास रखती है… तो क्यों न मुस्लिम बहनों को बहुविवाह प्रथा से मुक्ति दिलवाएं और उनकी दुर्दशा को खत्म किया जाए?” लेकिन किसी ने यह हिम्मत नहीं दिखाई जिस पर इतिहासकार राम चंद्र गुहा ने टिप्पणी की,  “नेहरू अपने साथी हिन्दुओं का कानून में परिवर्तन करने के प्रति कटिबद्ध थे लेकिन साथ ही इसी तरह मुसलमानों से निबटने के लिए इंतजार करने को तैयार थे। ” 70 वर्ष के बाद तीन तलाक से मुक्ति तो मिल गई पर देश में सभी धर्मों के लिए एक जैसे कानून की अभी भी इंतजार है।

डॉ. मनमोहन सिंह का कहना है कि 2004 में सोनिया गांधी ने मुझे प्रधानमंत्री बनाने के लिए चुना जबकि प्रणब मुखर्जी इस पद के लिए हर लिहाज में बेहतर थे लेकिन वह (मुखर्जी) जानते थे कि मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता था।” प्रणब मुखर्जी का भी कहना है कि  “मैं निराश नहीं था, मुझे लगा कि मैं पीएम बनने लायक नहीं हूं।” लेकिन असली कहानी प्रणब मुखर्जी या मनमोहन सिंह की नहीं। असली कहानी सोनिया गांधी की राजनीतिक चतुरता की है। वह जानती थीं कि मुखर्जी अडिय़ल स्वभाव के हैं उनकी बात नहीं मानेंगे इसलिए नरम मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दस साल पीछे से खूब राज किया जो बात खुद मनमोहन सिंह ने संजय बारू से स्वीकार की कि  “सत्ता का केवल एक केन्द्र हो सकता था।” अर्थात वह यह केन्द्र नहीं थे।

अंत में: अमित शाह के पुत्र जय शाह का मामला राबर्ट वाड्रा वाला मामला नहीं क्योंकि कहीं भी सरकार को छुआ नहीं गया। वैबसाइट ने इसे जय शाह का ‘गोल्डन टच’ कहा है पर यह खाक ‘सुनहरा स्पर्श’ है जहां 80 करोड़ रुपए के टर्नओवर के बाद 1.4 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है। अमित शाह को तो अपने पुत्र के कान खींचने चाहिए कि गुजराती होने के बावजूद चज से धंधा करना नहीं आता और नालायक ने बड़ा घाटा कर दिया! दिवाली मुबारिक!

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.