‘भात’, ‘भात’ कराहती हुई झारखंड के कारीमारी गांव की ग्यारह वर्ष की बच्ची संतोषी ने भूख से तड़प-तड़प कर जान दे दी। कारण यह बताया जाता है कि परिवार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) से राशन मिलना बंद हो गया था क्योंकि उनका राशन कार्ड आधार कार्ड से लिंक नहीं था। अब विलाप करती उसकी मां कोयली देवी का कहना है कि काश उसके पास भात होता तो उसकी बच्ची बच सकती थी।
कितना अनर्थ है कि आज के भारत में अभी भी लोग भूख से मर रहे हैं और उनकी भूख को आधार से लिंक किया जा रहा है। हमने खाक सुपरपावर बनना है अगर हम अपने लोगों का पेट भी नहीं भर सकते? और झारखंड तो वह प्रदेश है जो खनिज पदार्थों में सबसे समृद्ध है। सरकारें बदली। मुख्यमंत्री बदले। लेकिन झारखंड की हकीकत नहीं बदली।
यहां तो आधार कार्ड जीवन-मरण का मामला बन गया। अब स्पष्टीकरण दिए जा रहे हैं कि राशन प्राप्त करने के लिए आधार कार्ड से लिंक होना अनिवार्य नहीं पर संतोषी की भूख से मौत तो हकीकत है। वहां टीवी चैनल पर एक आदमी कह रहा था कि “जबसे कम्प्यूटर आया है हमें राशन नहीं मिल रहा। पहले मिलता था।” इसका अर्थ यह है कि देश को ‘डिजीटल’ से चकाचौंध करने के प्रयास में देश की हकीकत को नज़रअंदाज कर दिया गया कि यहां अति गरीब भी हैं जिन्हें आधार के बारे मालूम नहीं। संतोषी की मौत के लिए जिम्मेवार कौन है? मुख्यमंत्री रघुबर दास इसका जवाब देंगे? क्या वह यह भी महसूस करेंगे कि इस मौत के पीछे उनकी कार्यप्रणाली की भी जिम्मेवारी है?
गुलजार ने सही कहा है कि ‘हिन्दोस्तान में दो-दो हिन्दोस्तान दिखाई देते हैं।’ विश्व के भूख सूचकांक में 119 देशों की सूची में भारत महान 100वें स्थान पर है। चीन 29वें स्थान पर है। हमारी इतनी शर्मनाक स्थिति है कि नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका जैसे कमज़ोर पड़ोसी बेहतर स्थिति में हैं। हम तो दक्षिणी सहारा देशों के नजदीक पहुंच गए हैं। हमें ‘गंभीर’ श्रेणी में रखा गया है? ऐसा आभास मिलता है कि देश अपने एक बड़े वर्ग को दरिद्रता के कूड़ादान में फैंक कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है।
जो कुपोषित है उनकी यहां संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। एक सर्वेक्षण के अनुसार हमारी 40 प्रतिशत जनसंख्या इस तरह कुपोषित है कि भविष्य में वह अपना पूरा शारीरिक सामर्थ्य हासिल नहीं कर सकेगी। हर साल 14 लाख बच्चे पांच वर्ष से पहले मर जाते हैं, जैसे हम योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर में देख कर हटे हैं। भूख मिटाना मोदी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।
7 प्रतिशत विकास की दर की बात कही जाती है। सैनसैक्स छलांगें मार रहा है। अब सवाल उठता है कि यह विकास जा कहां रहा है? इसका जवाब है कि विकास का फायदा चंद कारप्रेट घराने उठा गए हैं जबकि नीचे तक विकास का फल नहीं पहुंच रहा। न मनमोहन सिंह पहुंचा सके न नरेन्द्र मोदी। भारत की आधी सम्पत्ति पर ढ्ढ फीसदी लोगों का कब्ज़ा है। रिलायंस उद्योग के चीफ मुकेश अंबानी की सम्पत्ति 2.5 लाख करोड़ रुपए बताई जाती है। बाबा रामदेव के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण की जायदाद ही 42 हजार करोड़ रुपए बनती है। चाहे अर्थ व्यवस्था यहां हिचकोले खा रही है पर फोबर्स की अमीर भारतीयों की सूची में जो टॉयकून है उनकी जायदाद में 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। स्टॉक मार्केट भी देश के सबसे अमीर 100 लोगों को और अमीर बना रहा है।
यह सब कुछ पिछले 10-15 सालों से हो रहा है। हमने अनियंत्रित पूंजीवाद को गले लगा लिया जिस पर अभागी संतोषी जैसों के परिवार कह सकेंगे,
इस दौर-ए-तरक्की के अंदाज़ निराले हैं,
ज़हनों में अंधेरा है, सडक़ों पे उजाले हैं।
‘वाह ताज़’ से हम ‘हाय ताज़’ पर पहुंच गए। जब से भाजपा के विधायक संगीत सोम ने ताजमहल को ‘कलंक’ कहा और इतिहास को बदलने का बेसुरा राग शुरू किया है तब से मामला उबल रहा है। योगी आदित्यनाथ का भी कहना है कि रामायण और गीता भारत की संस्कृति का प्रतीक है ताज नहीं। हरियाणा के मंत्री अनिल विज का कहना है कि ताजमहल एक खूबसूरत कब्रिस्तान है।
सवाल तो यह है कि ताजमहल मुद्दा कैसे बन गया? क्या भाजपा का एजेंडा विकास का है या गढ़े मुर्दे उखाडऩे का? देश में आ रहे पर्यटकों का बड़ा हिस्सा वह है जो केवल ताजमहल को देखने आते हैं। इंसान द्वारा किए गए निर्माण में मिस्त्र के पिरामिड तथा पेरिस के आइफल टॉवर के साथ ताजमहल वह स्थल है जहां सबसे अधिक पर्यंटक आते हैं। इसका महत्व कम करना या इस पर फिजूल बहस करना केवल कट्टरता ही नहीं, मूर्खता भी है।
इतिहास में बहुत ज्यादतियां हुई हैं, पर इतिहास बदला नहीं जा सकता। उससे सबक सीखने की जरूरत है। 800 साल मुसलमानों ने यहां हकूमत की और 200 साल ईसाई अंग्रेजों ने। ऐसा क्यों हुआ? हमारे में क्या कमजोरी थी कि हम 1000 साल गुलाम रहे? अब हम उस तालिबान की तरह बर्ताव नहीं कर सकते जिसने अफगानिस्तान में बामियान में बुद्ध की प्राचीन मूर्तियां तोपों से उड़ा दी थीं। उलटा हमें इंडोनेशिया जो सबसे बड़ा मुस्लिम देश है से सीखना चाहिए जो बहुत खुशी से अपनी विरासत मानते हुए रामायण का वहां मंचन करवाते हैं और बोरोबंदर में बुद्ध-स्थल में पूजा करवाते हैं।
इंडोनेशिया का जिक्र करते हुए हावर्ड में इतिहास के प्रोफैसर सुनील अमृत कहते हैं कि वह लोग “सांस्कृतिक आत्मविश्वास को प्रेरणादायक स्तर तक प्रदर्शित करते हैं।” अफसोस हममें यह आत्मविश्वास नहीं है। इस देश पर बहुत ज्यादती हुई है पर हम क्या-क्या मिटाएंगे? जिस शाहजहां ने ताजमहल बनाया उसने दिल्ली का लाल किला भी बनाया जहां से भारत के प्रधानमंत्री आजादी दिवस पर देश को संबोधन करते हैं। और जो निर्माण अंग्रेज कर गए उसके बारे कोई आपत्ति क्यों नहीं करता? संसद भवन,
राष्ट्रपति भवन, नार्थ-साऊथ ब्लॉक सब अंग्रेजों के बनवाए हुए हैं। जावेद अख्तर की टिप्पणी जायज़ है कि, “मुझे हैरानी होती है कि जो अकबर से नफरत करते हैं उन्हें कलाइव से समस्या नहीं। और जो जहांगीर से नफरत करते हैं, वह असली लुटेरे हेस्टिगंज़ का जिक्र नहीं करते।” असली लुटेरे अंग्रेज थे जबकि कुछ अपवाद को छोड़ कर मुगल तो यहां ही बस गए थे। अंग्रेज कभी भी भारतीय नहीं बने और सब कुछ लूट कर यहां से लंदन भेजते रहे। आज भी वह कोहिनूर वापिस करने को तैयार नहीं।
क्या 1000 साल का इतिहास बच्चों को पढ़ने को नहीं मिलेगा, उस वक्त जबकि सब कुछ गूग्गल पर मौजूद है? और क्या ताजमहल को गालियां निकाल कर हम 800 वर्षों का बदला ले सकते हैं जबकि यह भारत भूमि पर बना है, हमारे कारीगरों ने बनाया है और आज तक टूरिस्ट से हमारे लिए सबसे अधिक पैसे कमा रहा है? कोई नहीं कहता कि ताजमहल हमारे संस्कारों या संस्कृति का प्रतीक है लेकिन वह ऐसी कला की कृति है जिस पर यह देश गर्व कर सकता है।
अंत में: दिवाली के दिन अयोध्या में बहुत भव्य दीपोत्सव किया गया। कई लोग आपत्ति कर रहे हैं कि सरकारी पैसे का ‘दुरुपयोग’ किया गया। इन्हें तब आपत्ति नहीं होती जब हज पर सरकारी पैसा खर्च किया जाता है। और यह वह लोग हैं जो लंदन में आक्सफोर्ड स्ट्रीट या न्यूयार्क के टाईम्स स्कवेयर या पेरिस में शांज-एलिसीज़ पर लगी क्रिसमस-लाईटस को देख-देखकर धन्य होते हैं। पर अयोध्या की धूम पर इन्हें आपत्ति है। सवाल तो यह है कि अगर अयोध्या में भव्य दीपावली नहीं होगी तो और कहां होगी?
जिस देश में गंगा बहती है (Where Ganga Flows),