चुनाव आयोग ने गुजरात में भाजपा के राहुल गांधी को मज़ाक में ‘पप्पू’ कहने वाले टीवी विज्ञापन को मंजूरी नहीं दी। यह चुनाव आयोग की सोच है पर मेरा मानना है कि ‘पप्पू’ शब्द के इस्तेमाल पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अफसोस है कि हमारी राजनीति हास्य रहित नीरस बनती जा रही है। एक टीवी चैनल ने श्याम रंगीला का कॉमिक एक्ट हटा दिया था क्योंकि उसमें नरेन्द्र मोदी तथा राहुल गांधी की नकल उतारी गई थी। चाहिए तो यह था कि यह दोनों उस लड़के को उसकी प्रतिभा के लिए शाबाशी देते पर उलटा हो गया। गांधी जी को किसी ने उनका चित्र बना कर दिखाया तो हंसने लगे कि “मुझे नहीं मालूम था कि मैं इतना बदसूरत हूं।“ खेद है कि आज हमारे नेता अपने पर व्यंग्य या मज़ाक को बर्दाश्त करने का उदार मादा नहीं रखते।
लेकिन यह अलग बात है। असली बात है कि अब राहुल गांधी पप्पू रहे भी नहीं। कुछ समय पहले तक यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि लोग राहुल को गंभीरता से लेंगे और उनकी बात सुनेंगे पर पिछले दो महीनों में बहुत कुछ बदल गया है। उन्होंने अपने सलाहकार तथा प्रचार टीम भी बदल ली लगती है। भाषण अब पहले जैसे नीरस नहीं रहे। जीएसटी पर ‘गब्बर सिंह टैक्स तथा दिल्ली के प्रदूषण पर ‘आंखों में जलन….’ जैसे कटाक्ष लोग पसंद कर रहे हैं। राहुल अब राजनीति के दंगल के लिए वह जोश दिखा रहे हैं जो पहले नज़र नहीं आता था। अगर उन्होंने तथा उनकी कांग्रेस पार्टी ने 2019 में अच्छा प्रदर्शन करना है तो गुजरात में अच्छा प्रदर्शन जरूरी भी है। वह नरेन्द्र मोदी की लहर उतरने का इंतजार नहीं कर सकते। न ही वह उस वक्त का इंतजार कर सकते हैं जब नरेन्द्र मोदी खुद को तबाह कर लें। ऐसा होने वाला नहीं। इसीलिए राहुल गुजरात में इतना जोर लगा रहे हैं। उन्हें यह भी सिद्ध करना है कि वह पार्ट-टाईम नेता नहीं, जो स्विच की तरह कभी ऑन तो कभी ऑफ।
मध्यप्रदेश के एक इंजीनियरिंग छात्र ने गिनिस बुक ऑफ रिकार्ड से कहा है कि यह दर्ज किया जाए कि जब से राहुल गांधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने हैं पार्टी बड़े-छोटे 27 चुनाव हारी है। इससे कुछ सबक सीख लिया गया है। अमेरिका में बर्कले में राहुल ने नम्रता से माना है कि यूपीए शासन में गलतियां हुई थीं। उनका यह भी कहना है कि भाजपा के नेता चाहे कहें कि उन्हें ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत चाहिए हमें ‘भाजपा मुक्त’ भारत नहीं चाहिए। वह भाजपा को खत्म नहीं करना चाहेंगे क्योंकि वह भारत की जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति हैं। उन्होंने यह भी माना कि यूपीए II के समय कांग्रेस में ‘कुछ अहंकार’ आ गया था। यह नम्रता उस पार्टी में बहुत देर के बाद देखने को मिल रही है जिसमें कभी यह नारा उठा था कि ‘इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इंज़ इंदिरा।‘
राहुल ने यह भी समझ लिया कि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण उलटा पड़ रहा है और यह नरेन्द्र मोदी के उभार का बड़ा कारण है। इसलिए आजकल वह भी गुजरात में मंदिर-मंदिर जा रहे हैं। अभी तक यह संख्या 20 बताई जा रही है। इंदिरा गांधी तो स्पष्ट तौर पर भक्त थी पर सोनिया गांधी के परिवार से किसी को पहली बार इस अवतार में देखा जा रहा है। वह भाजपा का हिन्दुत्व का कार्ड कमजोर करना चाहते हैं। उनका यह भी कहना है कि मैं शिव भक्त हूं। अब तो वहां ‘तू डाल डाल मैं पात पात’ वाली स्थिति है। जहां मोदी जा रहे हैं वहीं राहुल भी पहुंच रहे हैं, यहां तक कि अगर चुनाव प्रचार के आठ दिनों में मोदी 50 रैलियों को संबोधित करने जा रहे हैं तो राहुल भी इतनी ही सभाओं को संबोधित कर रहें हैं।
इस बात की संभावना नहीं कि कांग्रेस गुजरात जीत जाएगी पर फिर भाजपा इतनी चिड़चिड़ी क्यों है? पहली बार वहां भाजपा कुछ आशंकित नज़र आ रही है। आभास है कि कहीं कांटा चुभा है। राहुल पर बड़े-बड़े नेता इतने हमले क्यों कर रहें हैं? उनके मंदिर भ्रमण को योगी आदित्यनाथ ने ‘ढोंग और पाखंड’ कहा है। शिवराज सिंह चौहान का कहना था कि जिसने कभी पूजा की थाली नहीं उठाई वह तिलक लगवा रहा है। सुशील मोदी का कहना था कि मंदिर जाकर वह लोगों को भ्रमित कर रहे हैं। निर्मला सीतारमण तथा स्मृति ईरानी भी हमले कर चुकीं हैं कि वह परिपक्व नहीं हैं। अमेठी में कांग्रेस की खस्ता हालत को याद करवाया जा रहा है।
अमेठी वाली शिकायत गलत भी नहीं। पिछली बार अमेठी से राहुल केवल एक लाख वोट से जीते थे। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस तो केवल 7 सीटें ही मिली थी। 2017 के विधानसभा चुनावों में अमेठी से एक भी सीट कांग्रेस जीत नहीं सकी थी, पर फिर भाजपा इतनी चिंतित क्यों है कि राहुल पर दर्जन भर मंत्री ताबड़तोड़ हमले कर रहे है?
इसका बड़ा कारण है कि राहुल की सभाओं में भीड़ जुट रही है। मूडीज़ जो भी कहें लोग अभी भी नोटबंदी तथा जीएसटी से दुखी हैं। इस नाराजगी को राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी दिशा दे रही है। राजनीति में शून्य नहीं रहता। देश को मजबूत विपक्ष की जरूरत है नहीं तो सत्तारुढ़ दल और उसके नेता अहंकारी और तानाशाह बन जाएंगे। और कोई नेता है नहीं। नीतीश भाजपा के पाले में चले गए हैं। ममता दी बंगाल से बाहर आने की क्षमता नहीं रखती ओर केजरीवाल दिल्ली तक सीमित हैं। इसलिए अब विपक्ष के नेता की भूमिका राहुल के कंधे पर आ गई है। वह इसे अच्छी तरह निभा पाएंगे या नहीं, यह अलग बात है।
राहुल गांधी को आखिर पार्टी अध्यक्ष बनाया जा रहा है। जो लगातार चुनाव हारता रहा उसे सर्वसम्मति से पार्टी की बागडोर संभाली जाएगी। लोकतंत्र के उपर वंशवाद हावी हो रहा है जिससे मणिशंकर अय्यर का यह कथन याद आता है कि दो ही व्यक्ति पार्टी अध्यक्ष बन सकते हैं, मां और बेटा! देखना यह है कि वह इस जिम्मेवारी को गंभीरता से निभाते हैं या पहले की तरह देश और संसद से गायब रहते हैं?
राहुल के नए तेवर से कांग्रेस में जान पड़ रही है। कम से कम उन्होंने अब सर पकडऩा बंद कर दिया। इस बार हिन्दुत्व का मुद्दा नहीं है। धु्रवीकरण की कोशिश भी नहीं हो रही। कांग्रेस भी मुसलमानों के पीछे भाग नहीं रही। तीन युवा नेताओं द्वारा समर्थन से भी पार्टी उत्साहित थी लेकिन पाटीदारों को लेकर बवाल शुरू हो गया है। हार्दिक पटेल के साथ खेल बिगड़ता नज़र आ रहा है। कांग्रेस को यह भी फायदा है कि चुनाव परिणाम कुछ भी हो उसे धक्का नहीं लगेगा क्योंकि वह जीतने के लिए नहीं बल्कि भाजपा को सीमित करने के लिए लड़ रहे हैं। 120 से कम सीटें भाजपा के लिए अच्छा समाचार नहीं होगा।
पर राहुल गांधी के सामने गुजरात में हिमालय जैसी बाधा है, नरेन्द्र मोदी। पहले वह मुख्यमंत्री थे अब वह प्रधानमंत्री हैं। चाहे गुजरात के व्यापारी तथा किसान इस वक्त नाराज़ हैं पर वह भी जानते हैं कि नरेन्द्र मोदी का इरादा नेक है, वह देश को बदलना चाहते हैं। दिसम्बर के पहले सप्ताह से मोदी गुजरात में अपना धुआंधार चुनाव प्रचार शुरू कर रहे हैं। इस दौरान वह भावनात्मक भाषण देंगे। लोगों को सम्मोहित करने की कला वह खूब जानते हैं जो बात राहुल गांधी भी स्वीकार करते हैं। भाजपा और विपक्ष के बीच 8 फीसदी का फासला है इसे पार करने का दमखम कांग्रेस में नहीं जिसके पास वहां संगठन नहीं है।
चाहे इस बार भाजपा ने हिन्दुत्व का कार्ड नहीं खेला पर बहुत गुजराती इस मुद्दे से जुड़े हुए हैं। और वहां नरेन्द्रभाई की भक्ति है। इसलिए जहां राहुल का रुतबा बढ़ा है कांग्रेस के लिए गांधीनगर अभी बहुत दूर लगता है। आखिर में वहां चुनाव मोदी बनाम राहुल होगा। यह चुनाव राहुल जीत नहीं सकते। पर निश्चित तौर पर वह ‘पप्पू’ नहीं रहे। उन्हें अपना प्रमुख प्रतिद्वंद्वी मान कर भाजपा ने ही यह संज्ञा हटा दी है।
पप्पू 'पप्पू' न रहा (Pappu No Longer Pappu),