सोनिया गांधी की संदिग्ध विरासत (Sonia Gandhi’s Doubtful Legacy)

सोनिया गांधी का कहना है कि उनका रिटायर होने का वक्त आ गया है। उनका गोवा में नंगे पांव मज़े से साईकल चलाते का चित्र भी प्रकाशित हुआ है। जहां सब उनके लिए  ’हैप्पी  रिटायरमैंट’ की कामना करेंगे वहां उनकी बेटी प्रियंका के यह कहने से कि राय बरेली से मदर ही अगला चुनाव लड़ेंगी, मामला कुछ उलट-पुलट हो गया है। अभी तो यह ही स्थिति नज़र आती है कि वह रिटायर भी होंगी और नहीं भी! शायद इसमें भी कुछ ‘ड्रमैटिक’ हो!

सोनिया गांधी 19 वर्ष कांग्रेस की अध्यक्षा रहीं। जब राजीव गांधी राजनीति में प्रवेश करना चाहते थे तो सोनिया के अपने शब्दों में उन्होंने “टाईग्रस की तरह”  उस कदम का विरोध किया था। लेकिन बाद में, उनके अपने ही अनुसार, जब वह  ”अपने परिवार, पार्टी तथा देश के प्रति कर्त्तव्य निभाने उस वक्त जब साम्प्रदायिक ताकतें सर उठा रही थीं”, राजनीति में उतरी तो उन्होंने उसे उसी तरह अपना लिया जिस तरह मच्छली पानी को अपनाती है। उनकी राजनीतिक दक्षता का इससे बड़ा प्रमाण पत्र क्या हो सकता है कि इटली से आकर इस महिला ने 10 वर्ष हम पर शासन किया। और जिनका कहना है कि कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर जब पहला भाषण पढ़ा तो हाथ कांप रहे थे वह इतनी ताकतवर बन गई कि उन्होंने बाद में देश के प्रधानमंत्री को ही खुड्डे लाईन लगा दिया।

1998 में जब वह कांग्रेस अध्यक्षा बनी तो कांग्रेस के पास केवल चार प्रदेश थे। छ: वर्ष के बाद पार्टी की दिल्ली में सरकार थी और दस वर्ष उसने देश पर हकूमत की। अप्रैल 1999 में सोनिया गांधी ने सरकार बनाने का दावा भी पेश किया था। प्रैस को उनका कहना था कि  “हमारे पास 272 हैं, और आ रहे हैं”, लेकिन मुलायम सिंह यादव ने अड़िंगा दे दिया। न्यूजवीक पत्रिका ने तब बताया था कि सोनिया गांधी पीएम बनने के लिए इतनी तैयार थी कि शपथ ग्रहण के लिए साड़ी का चुनाव भी हो गया था और इटली से मम्मी को बुला लिया गया था।

1999 की विफलता से सबक सीखते हुए 2004 में उन्होंने यूपीए के सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया। संसद भवन के सैंट्रल हाल में खूब ड्रामा हुआ था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बना दिया गया और पर्दे के पीछे से सोनिया सरकार चलाती रहीं। सोनिया के दोनों हाथों में लड्डे थे। एक तरफ देश में उन्हें त्याग की मूर्ति प्रस्तुत किया जा रहा था तो दूसरी तरफ उन्हें जिम्मेवारी के बिना सत्ता मिल गई थी। जैसे डॉ. मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारु ने अपनी दिलचस्प किताब    ’द एक्सीडैंटल प्राईम मिनिस्टर’ में लिखा है, “व्यवस्था यह बन गई कि सरकार के सभी अच्छे कामों का श्रेय सोनिया गांधी को जाएगा और गलतियों या असफलताओं की सारी जिम्मेवारी डॉ. सिंह को जाएगी।“

उनका विरोध भी बहुत हुआ। परिवार में दो हत्याएं सही। कोई कम मज़बूत व्यक्ति होता तो वापिस लौट जाता लेकिन अपने पति की हत्या के बावजूद वह डटी रही। लार्ड मेघनाथ देसाई लिखते हैं,  ”भावी  इतिहासकार हैरान होंगे कि उत्तर इटली की ककर्श जमीन से सादा पृष्ठभूमि वाला कोई व्यक्ति भारत आया…. और उसे आशा से भी अधिक सफलता मिली और वह दो-दो चुनाव जीत गया”। मार्क टल्ली सोनिया की ‘हिम्मत’, ’आतंरिक ताकत’ की प्रशंसा करते हैं जिसने डूबती किश्ती जिससे चूहे छलांग लगा रहे थे, को बचाया था।

सोनिया गांधी की जिंदगी पर सचमुच फिल्म बन सकती है पर यहां रुकने की जरूरत है। क्या सचमुच उनकी विरासत इतनी शानदार है कि कुछ लोग गद्गद् हो रहे हैं? मेरा मानना है कि वास्तव में सोनिया गांधी की विरासत संदिग्ध थी। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं इसके पांच कारण हैं,

(1) कहा जा रहा है कि जब वह पार्टी अध्यक्ष बनी उस वक्त उनकी पार्टी बिखर रही थी। वह केवल मध्य प्रदेश, उड़ीसा, मिजोरम और नागालैंड में सत्तारुढ़ थी पर आज जब वह अध्यक्ष पद छोड़ रही है तब भी तो पार्टी का यही हाल है? केवल पांच प्रदेश हैं। वास्तव में पार्टी की उससे भी बदत्तर हालत है। जब वह अध्यक्ष बनी तो पार्टी के पास 141 सांसद लोकसभा में थे और जब वह हटी तो केवल 44 सांसद रह गए थे। जवाहरलाल नेहरू तथा इंदिरा गांधी के समय कांग्रेस का 90 प्रतिशत देश पर शासन था सोनिया गांधी की कथित रिटायरमैंट के समय पार्टी सिंकुड़ कर केवल 10 प्रतिशत देश में ही रह गई।

(2) सोनिया गांधी ने कांग्रेस पार्टी को देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं से दूर कर दिया। सैक्यूजरिज़्म के नाम पर कांग्रेस अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति पर चल दी जिसके कारण धीरे-धीरे वह मुख्यधारा से कटती गई। नरेन्द्र मोदी को हिन्दू नाराजगी का पक्का-पकाया फल मिल गया। सोनिया ने अपने इर्द-गिर्द मंडली में भी गैर-हिन्दुओं को भर लिया। 2014 में पार्टी का भट्ठा बैठने के बाद आंकलन करने के लिए बनाई गई ए.के. एंटनी कमेटी ने स्वीकार किया कि कांग्रेस की ‘अल्पसंख्यक पक्षीय’ छवि से नुकसान हुआ है। अब मंदिर-मंदिर भ्रमण कर राहुल डैमेज कंट्रोल करने का प्रयास कर रहें हैं।

(3) सोनिया गांधी ने पक्के तौर पर कांग्रेस को ’कुनबा पार्टी’ बना दिया। जो प्रक्रिया इंदिरा गांधी ने शुरू की थी उसे सोनिया गांधी ने पक्का कर दिया। राहुल, ओनली राहुल! उस व्यक्ति को पार्टी अध्यक्ष बना दिया गया जिसकी विशेषता है कि वह हर चुनाव हारता आया है। सोनिया ने किसी भी ऐसे प्रतिभाशाली कांग्रेसी को उभरने नहीं दिया जो राहुल को चुनौती दे सके। कांग्रेस अब मां-बेटा पार्टी बन गई है जिसके अपने अलग दुष्परिणाम होंगे।

(4) लेकिन सोनिया गांधी पर सबसे संगीन आरोप है कि 2004-2014 के दस सालों में उन्होंने प्रधानमंत्री के पद की गरिमा को मसल दिया। अफसोस की बात है कि इसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उनका पूरा सहयोग दिया। ऐसी स्थिति बन गई कि प्रधानमंत्री का अपने मंत्रिमंडल पर कोई नियंत्रण नहीं था क्योंकि मंत्रियों की वफादारी 10 जनपथ से थी। सांसदों की तो थी ही। कई जानकारों ने लिखा है कि कुछ वरिष्ठ अफसर जिन्हें सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री के कार्यालय में नियुक्त करवाया था रोजाना उनसे मिलते थे और उस दिन के नीतिगत मामलों पर चर्चा करते थे और “उनसे प्रधानमंत्री द्वारा जो महत्वपूर्ण फाईलें निबटाई जानी थी उनके बारे आदेश प्राप्त करते थे।“

यह अंतिम बात संजय बारु ने लिखी है। दुख की बात है कि सोनिया गांधी को सरकारी फाईलों के बारे जानकारी दे कर ‘आफिशियल सीक्रेटस एक्ट’ का खुला उल्लंघन किया गया और हमारे दब्बू प्रधानमंत्री ने आपत्ति नहीं की। एनएसी का गठन करवा सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री के कार्यालय में समानांतर व्यवस्था खड़ी कर दी थी। कई बार प्रधानमंत्री को इस संस्था के निर्णय स्वीकार करने पड़े चाहे वह इनसे सहमत न भी हों।

(5) इसका एक और दुष्परिणाम हुआ। यूपीए पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों ने आखिर में सरकार का कामकाज ही ठप्प कर दिया। मनमोहन सिंह बेबस थे। उन्होंने खुद को भ्रष्टाचार से उपर रखा पर उसके छींटे उनकी सरकार को कलंकित कर गए। क्योंकि उन्होंने किसी मंत्री को नियुक्त नहीं किया था इसलिए कोई उनके प्रति जवाबदेह नहीं था। लेकिन आखिर में संवैधानिक जिम्मेवारी तो उनकी थी। सोनिया गांधी तो आराम से अलग बैठ गई थी उन पर किसी घपले का दोष नहीं लगा। हां, आखिर में जनता ने सजा तो उन्हें भी दी जब उनकी पार्टी को 44 पर ला पटका।

इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं, “डॉ. मनमोहन सिंह सरकारी कामकाज करने में पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं थे… आंतरिक नीति और राजनीति के मामले में वह सोनिया गांधी के सामने पूरी तरह से नतमस्तक थे।“ अर्थात असली बॉस सोनिया थी। यह बात और भी संजय बारु की किताब में स्पष्ट हो जाती है जहां वह डॉ. मनमोहन सिंह के साथ एक वार्तालाप का उल्लेख करतें हैं जहां तत्कालीन प्रधानमंत्री कहते हैं, ”आपको एक बात समझ लेनी चाहिए मैंने इससे समझौता कर लिया है। सत्ता के दो केन्द्र नहीं हो सकते… मैंने यह मान लिया है कि कांग्रेस अध्यक्ष ही सत्ता की केन्द्र हैं।“

यह अत्यंत शर्मनाक स्वीकृति है कि देश के प्रधानमंत्री ने संविधानोतर ताकत के आगे समर्पण कर दिया था। मामला केवल सोनिया गांधी तथा मनमोहन सिंह के बीच का नहीं था। मामला देश की संवैधानिक संस्थाओं विशेष तौर पर प्रधानमंत्री के पद को अपाहिज बनाने का है। ऐसा कर इन दोनों ने न केवल अपना तथा अपनी पार्टी का बल्कि देश का बड़ा नुकसान किया है। मेरा मानना है कि भावी इतिहासकार इन दोनों के प्रति उदार नहीं होंगे।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.