माननीय,यह अमान्य है (Honourable Sirs, This is Unacceptable)

केस आबंटन को लेकर बगावत करने वाले सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों में से एक जस्टिस जोसफ कुरियन का कहना है कि समस्या के समाधान के लिए बाहरी दखल की कोई जरूरत नहीं।

पर माननीय, आपने ही तो ‘बाहरी दखल’ को आमंत्रित किया है। पत्रकार सम्मेलन का आपने ही उच्च न्यायालय के गंदे कपड़े सरेआम धो डाले थे। इसके बाद देश में भूचाल आना ही था। न्यायपालिका की इमारत हिल गई। मीडिया में अभी भी इसकी गर्मागर्म चर्चा हो रही है यहां तक कि इसरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू की यात्रा भी पीछे पड़ गई। प्रधानमंत्री मोदी ने न्यायपालिका की गरिमा को ध्यान में रखते हुए जरूर खामोशी इख्तयार ली लेकिन राहुल गांधी ने तो  भागे-भागे पत्रकार सम्मेलन भी कर डाला। कम्युनिस्ट नेता डी राजा बागी जस्टिस चेलमेश्वर को मिलने पहुंच गए और मीडिया तथा वामपंथी वकील बेलगाम हो गए।

बाद में जस्टिस रंजन गोगोई जो बागी जजों में शामिल थे और जो अगले मुख्य न्यायाधीश बनेंगे, का भी कहना था कि कोई संकट ही नहीं है। पर माननीय, आप सबने ही तो कहा था कि सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा। आपने मुख्य न्यायाधीश पर केस आबंटन के मामले में मनमानी करने का आरोप लगाया था और यहां तक कह दिया कि अगर जल्द इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। आप सब ने ही मुख्य न्यायाधीश को लिखे अपने पत्र को सार्वजनिक कर दिया। इशारा यह था कि बैंच अलाट करने में घपला है।

जो सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीशों ने किया उसे मैं न केवल सुप्रीम कोर्ट बल्कि देश के साथ भी भारी अन्याय समझता हूं। उन्होंने देश का भरोसा तोड़ डाला। जो उन्होंने किया वह अमान्य है। अपने पद की गरिमा के कारण जज मीडिया से बात नहीं करते। सार्वजनिक तौर पर वह अपना पक्ष नहीं रखते, न ही किसी पर इस तरह उंगली उठाते हैं। दूर किसी गांव में बैठा आदमी भी समझता है कि न्यायालय से उसे न्याय मिलेगा लेकिन यहां तो इलाज करने वाला डाक्टर बता रहा है कि वह खुद बीमार है। ठीक है मुख्य न्यायाधीश को अपना घर सही रखना चाहिए था। वह अपने चार वरिष्ठ साथियों जो मिल कर कोलीजियम बनते हैं, का विश्वास खो बैठे हैं। वह ‘मास्टर ऑफ दी रोस्टर’ हैं। महत्वपूर्ण बैंच का गठन वह करते हैं। किसे क्या मामला दिया जाना है वह ही तय करते हैं। उन्हें पूर्ण अधिकार है पर उन्हें भी देखना चाहिए कि ऐसा करते वक्त वह पारदर्शिता और निष्पक्षता का इस्तेमाल करें। उन्हें परम्परा का भी ध्यान रखना चाहिए था। निष्पक्षता और परम्परा से कहीं छेड़छाड़ हो गई जिसने उच्च न्यायपालिका की विश्वसनीयता को ही कटघरे में खड़ा कर दिया।

अगर बैंच बनाने में कुछ गड़बड़ रही है जैसा यह कर जज संकेत दे रहे हैं तो इसका मतलब है कि लोगों को न्याय नहीं मिल रहा। मैं कोई कानूनविद नहीं हूं। कानून की उतनी ही जानकारी है जितनी एक आम आदमी को है। पर अब जब कभी कोई बड़ा फैसला आएगा तो जहन में यह सवाल अवश्य उठेगा कि क्या यह निष्पक्ष है? यह किसने दिया? क्या उस जज का कोई राजनीतिक या व्यक्तिगत झुकाव तो नहीं था? पृष्ठभूमि क्या है?

हम सब जानते हैं कि न्यायपालिका भी पहले जैसी  साफ-सुथरी नहीं रही लेकिन अब जिस तरह चार जजों ने ट्रेड यूनियनइज्म दिखाया है उससे तो और कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। क्या शिखर पर ऐसे जज हैं जो समझौता करने के लिए तैयार हैं? इस पत्रकार सम्मेलन का और बहुत नुकसान हुआ। वह यह संकेत दे गए कि उनके बाकी 20 साथी जज कुछ मामलों में कमजोर हैं। या व सक्षम नहीं। या वह बराबर ईमानदार नहीं। जूनियर जज पूछ सकते हैं कि हमारा क्या कसूर है कि लोगों की नज़रों में हमें गिरा दिया गया? यह बहुत बड़ी ज्यादती है क्योंकि आखिर सब जज बराबर हैं फिर किसी को काम दिए जाने पर आपत्ति कैसी? इन चार जजों ने न केवल मुख्य न्यायाधीश बल्कि बाकी साथी जजों की सत्य निष्ठा पर सवाल उठा दिए हैं। हरीश साल्वे का सही कहना है कि कई बढ़िया फैसले उन्होंने दिए जिन्हें जूनियर जज कहा जाता है और सभी उत्कृष्ट और खरे हैं।

इसी के साथ अब एक बार फिर जज नियुक्त करने की कोलीजियम व्यवस्था पर सवाल उठेंगे। भारत में पहले कार्यपालिका ही इन्हें नियुक्त करती थी लेकिन इंदिरा गांधी द्वारा इस अधिकार के घोर दुरुपयोग के बाद इस व्यवस्था पर सवाल उठने लगे जिसका फायदा उठाते हुए जजों ने जज नियुक्त करने का अधिकार छीन लिया।

लेकिन अब दुर्भाग्यवश साबित हो गया कि यह कोलीजियम व्यवस्था भी असफल हो गई है। अगर उच्च न्यायालयों  में खुद नियुक्त किए गए जज ही आपस में उलझने लगे तो कोलीजियम व्यवस्था के तो चिथड़े उडऩे लगेंगे। कोलीजियम व्यवस्था पर पुनर्विचार करने की जरूरत है क्योंकि इसकी भी बस हो गई लगती है। बेहतर हो कि ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिसमें न कार्यपालिका और न ही न्यायपालिका का एकाधिकार हो।

यह तो बार-बार स्पष्ट हो चुका है कि न्यायपालिका खुद को सुधारने की कोशिश नहीं करती इसीलिए इसमें भी भ्रष्टाचार फैल गया है। बेहतर होता अगर सुप्रीम कोर्ट यह नियम बनाता कि रिटायर होने के बाद जज कोई सरकारी या गैर सरकारी पद नहीं लेंगे। इस तरह जज सरकारी प्रलोभन से बच जाते पर यहां तो बीसीसीआई को सही करने की जिम्मेवारी भी तीन जजों वाली जस्टिस लोधा कमेटी को दे दी गई जबकि यह जिम्मेवारी क्रिकेट विशेषज्ञों को मिलनी चाहिए थी। कहने की जरूरत नहीं कि माननीय पूर्व न्यायाधीशों ने यह काम मुफ्त में नहीं किया।

इस बीच सोहराबुद्दीन शेख मामले की जांच कर रहे सीबीआई जज बृजमोहन लोया की तीन साल पहले हुई मौत राजनीति का फुटबाल बन गई है। उनकी मौत 30 नवम्बर 2014 को मुंबई में हुई थी। उस वक्त उनके साथ दो जज और थे जो उन्हें हस्पताल लेकर गए। क्योंकि इस मामले में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का नाम आया था इसलिए अब इसे भडक़ाने की कोशिश हो रही है। उस वक्त उनके परिवार ने अवश्य कहा था कि जज लोया की मौत प्राकृतिक नहीं है पर अब पत्रकार सम्मेलन बुला कर उनके पुत्र ने कहा है कि उस वक्त मैं भावना में बह गया था लेकिन हमारा मानना है कि मौत संदिग्ध नहीं थी और यह हार्टअटैक से हुई थी। उस युवक का यह भी कहना है कि कई एनजीओ, राजनेता तथा वकील उन्हें परेशान कर रहे हैं।

आम तौर पर अगर परिवार कह दे कि उन्हें कुछ शक नहीं तो मामला ठप्प कर दिया जाता है पर यहां तो मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त वाली बात है। कांग्रेस पार्टी तथा कम्युनिस्ट तथा उनके समर्थक मीडिया वाले तथा वकील बाल की खाल उखाडऩे में लगे हुए हैं। सवाल तो यह है कि तीन साल यह लोग चुप क्यों रहे? और अब एक पीड़ित परिवार की गुहार उन्हें क्यों सुनाई नहीं दे रही कि उन्हें चैन चाहिए और वह समझते हैं कि कुछ गड़बड़ नहीं। अफसोस कि हमारे कुछ राजनेता तथा मीडिया वाले एक मृत जज की याद पर अपनी रोटियां सेंकना चाहते हैं।

बहरहाल इस सारे नाटक से न्यायपालिका लहूलुहान है। इसे बचाने तथा इसकी गरिमा कायम करने की जरूरत है क्योंकि व्यक्ति विशेष से संस्था सदा बड़ी होती है। अप्रैल 1973 में जब इंदिरा गांधी ने तीन वरिष्ठ जजों के अधिकार की अनदेखी कर जस्टिस ए.एन. राय को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था तो इन तीनों ने इस्तीफा दे दिया था। जनवरी 1977 में फिर जब इंदिरा गांधी की सरकार ने ही जस्टिस एच.आर. खन्ना का अधिकार छीन कर उनसे निचले जस्टिस एम.एच. बेग को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया तो जस्टिस खन्ना ने भी इस्तीफा दे दिया। पहले तीन जजों की तरह जस्टिस खन्ना ने भी संविधान और मौलिक अधिकार पर सरकारी छापे का विरोध किया था।

यह मैं केवल राहुल गांधी की जानकारी के लिए नहीं बता रहा जिनकी पार्टी को आज लोकतंत्र खतरे में नजर आता है। लोकतंत्र वास्तव में उनकी दादी के समय खतरे में थे। पर यह मैं इन चार माननीय के लिए भी लिख रहा हूं जिनके पास मीडिया से बात करने के अतिरिक्त और विकल्प भी मौजूद था जो अधिक शानदार और सम्मानपूर्ण रहता। तब उनका नाम इतिहास में लिखा जाता। वह भी इस्तीफा दे सकते थे।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.