
राजस्थान में अलवर की जनसंख्या 82 प्रतिशत हिन्दू हैं और यहां हुए लोकसभा उपचुनाव में भाजपा 2 लाख वोट से हार गई है। 2014 में पार्टी 2.8 लाख वोट से जीती थी। अजमेर में भाजपा 84000 वोट से हार गई जबकि 2014 में उसने यह सीट 1.7 लाख वोट से जीती थी। अगर इसके साथ मांडलगढ़ की विधानसभा सीट पर भाजपा की पराजय को जोड़ दिया जाए तो स्पष्ट है कि राजस्थान में पार्टी खतरे में है। और इसके साथ ही अगर पंजाब में गुरदासपुर के उपचुनाव, गुजरात के विधानसभा चुनाव तथा मध्यप्रदेश के स्थानीय निकाय के चुनावों में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन को देखें तो स्पष्ट है कि भाजपा के गम का प्याला छलक रहा है।
आठ विधानसभा चुनाव तथा आम चुनाव से पहले भाजपा के लिए यह चुनाव अच्छी खबर नहीं है। अमित शाह लाख कहें कि देश ‘कांग्रेस मुक्त’ हो रहा है पर हवा का रुख तो कुछ और ही कहता है। वैसे भी देश को किसी पार्टी से ‘मुक्त’ नहीं किया जा सकता। हमें अपना बहुपार्टी लोकतंत्र चाहिए। और कांग्रेस पहले ही पंजाब में वापिसी कर चुकी है।
क्या हुआ? अचानक भाजपा के बढ़ते कदमों में ब्रेक क्यों लग गई? बड़ा कारण आर्थिक है। लोगों के दैनिक जीवन में अशांति तथा गड़बड़ी पैदा करने की कीमत अदा करनी पड़ती है। नोटबंदी ने बहुत जिंदगियां तबाह की थी। लाखों रोजगार खत्म हो गए। ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष तौर पर इसका विपरीत असर पड़ा था। इसीलिए देहात अशांत है जो पहले गुजरात तथा अब राजस्थान के परिणामों से स्पष्ट होता है। दोनों नोटबंदी तथा जीएसटी का अमल अराजक तथा अव्यवस्थित रहा है। अब लोग अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहें हैं।
सरकार पर लोगों का भरोसा कम हो रहा है। इतने वायदे किए गए, इतने सब्जबाग दिखाए गए, कि लोग अब विश्वास नहीं करते। बहुत अधिक जुमलाबाजी हुई है। ‘अच्छे दिन आएंगे’, किसान की आय दोगुनी होगी’, ‘करोड़ो रोजगार तैयार होंगे।‘ यह वायदे पूरे नहीं हो रहे, न हो सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के इरादे, संकल्प तथा मेहनत पर किसी को शक नहीं लेकिन अब उनकी बात पर कम विश्वास किया जा रहा है। यह भाजपा के लिए बहुत बड़ा संकट है।
बजट में गरीबों के बीमा के लिए बड़ी स्कीम की घोषणा की गई। हर परिवार के लिए 5 लाख रुपए तक के बीमे का प्रावधान है। बढ़िया योजना है। ऐसी योजना के लिए 11,000 करोड़ रूपया वार्षिक चाहिए लेकिन बजट में प्रावधान केवल 2000 करोड़ रूपया का है। यह भी मालूम नहीं कि यह कब से लागू होगी? क्या इससे लालची प्राईवेट हस्पतालों की चांदी तो नहीं होगी? नीति आयोग के अधिकारी बता रहे हैं कि योजना को लागू करने की ‘एक्सरसार्इज़’ चल रही है। पर सवाल तो है कि घोषणा से पहले पूरी तैयारी क्यों नहीं की गई? ऐसा आभास मिलता है कि नोटबंदी की तरह पूरी तैयारी को बिना इसे लागू किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री चाहतें हैं कि लोकसभा तथा विधानसभा के चुनाव एक साथ करवाए जाएं। विचार बुरा नहीं लेकिन इससे हमारे संघिए ढांचे में इतनी उथल-पुथल पैदा होगी कि संभालना मुश्किल होगा। फिर लोग परेशान होंगे। बेहतर होगा कि एक और बखेड़े से बचा जाए। ‘एक देश एक चुनाव’ का वक्त अभी नहीं आया।
हर मामले में श्रेय लेने की आदत भी उलटी पड़ रही है। सेना के सर्जिकल स्ट्राईक का श्रेय सरकार ने लिया पर अब हालत यह है कि लगातार गोलाबारी हो रही है। अभी चार सैनिक शहीद हुए हैं। उधर से मिसाईल से हमला हुआ है। पिछले साल नियंत्रण रेखा का 800 बार अतिक्रमण हुआ। हजारों लोग पाकिस्तान की फायरिंग से बेघर हो गए हैं। यह सही है कि उन्हें भी बराबर कीमत चुकानी पड़ रही है लेकिन जो सबक सिखाने की बात करते थे वह अब कहां हैं? सैनिकों के शहीद होने से बहुत तकलीफ होती है। केवल च्कड़ी निंदाज् पर्याप्त नहीं।
भारतीय जनता पार्टी के लिए एक बड़ी समस्या छवि की है। यह प्रभाव फैल रहा है कि जबसे यह सरकार आई है देश में अशांति और उत्तेजना बढ़ी है। हिन्दुत्व के नाम पर हिंसा तथा उपद्रव को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसा आभास मिलता है कि राजनीति लम्पट और जनूनी किस्म के लोगों के हाथ में आ गई है जिनके व्यवहार से देश बदनाम हो रहा है। विनय कटियार कह रहे हैं कि ताजमहल को तोड़ कर मंदिर बनाया जाए। क्या हमने आपको विकास करने के लिए वोट दिया था कि ताजमहल तोडऩे के लिए?
अलवर से भाजपा के उम्मीदवार जसवंत सिंह यादव ने कहा था, “अगर आप हिन्दू हो तो मुझे वोट दो, अगर आप मुसलमान हो तो कांग्रेस को दो।“ वह दो लाख वोट से हार गए और कांग्रेस को 60 प्रतिशत के करीब वोट मिले। अर्थात भाजपा को वोट देने की जगह लोगों ने जसवंत सिंह यादव की परिभाषा में ‘मुसलमान’ बनना बेहतर समझा। अफसोस ऐसी वाहियात बातों पर कोई लगाम नहीं लगाई जाती। याद रखिए जनता आपसे अधिक समझदार और संवेदनशील है।
स्वामी विवेकानंद ने गीता से उद्धत करते हुए बताया था कि ‘सब लोग उन रास्तों पर चल रहे हैं जो अंत में मुझ तक पहुंचते हैं।‘ वह भारत की विविधता पर गर्व करते थे लेकिन आज तुच्छ राजनीति को लेकर इस भव्य संस्कृति पर वार किया जा रहा है। सब पर एक वर्दी थोपने की कोशिश हो रही है। हालत तो यह बन गई है कि देशभक्ति भी धंधा बनती जा रही है। राष्ट्रवाद एक जुमला बना दिया गया। गणतंत्र दिवस पर तिरंगा यात्रा को लेकर कासगंज में व्यापक हिंसा हुई। देशभक्ति के कुछ ठेकेदार दूसरों से उनकी देशभक्ति का प्रमाण मांग रहे हैं। क्या अब देशभक्ति को भी आधार से लिंक किया जाएगा? तिरंगा तो हमें जोड़ता है लेकिन उसे ही लेकर टकराव तथा तनाव पैदा किया गया है।
हम आक्रामक हिन्दुत्व का प्रदर्शन देख रहे हैं। लेकिन इससे नुकसान हो रहा है। देश पहले से अधिक हिंसक तथा असहिष्णु बन गया है यहां तक कि हिंसा क्लास रूम तक पहुंच गई है। सारा माहौल उत्तेजित है। जाहिलपन बढ़ा है। राजस्थान में पिछले साल पेहलू खान की पीट-पीट कर गौरक्षा के नाम पर हत्या कर दी गई थी। उसी अलवर में भाजपा का बैंड बज गया। दिसम्बर में मुहम्मद अफराजुल को लव जिहाद के नाम पर जिंदा जला दिया गया था। सारा प्रकरण वीडियो पर है। पिछले साल अप्रैल में अपनी शादी पर जा रहे दलित युवक की पिटाई कर दी गई थी। उसका कसूर था कि उसने घोड़ी पर चढ़ने की जुर्रत की थी। पदमावत को लेकर उपद्रव किया गया। सरकारें चुप रहीं। वोट बैंक ही इस देश के गले में मील पत्थर बन लटक गया है।
जो हिन्दुत्व के ठेकेदार बने हैं उन्होंने इसे मात्र तमाशा में परिवर्तित कर दिया है। देश में अब जरूरी बातों पर बहस कम होती है। सारा ध्यान फिजूल बातों पर रहता है। दुख यह होता है कि समाज में तनाव और ज़हर फैलाने वालों के खिलाफ नेतृत्व मुंह नहीं खोलता। परिणाम है कि मार-काट बढ़ रही है। देश में असुरक्षा बढ़ी है। च्सर्वधर्म समभावज्, और च्सबका साथ सबका विकासज् जैसी बढ़िया अवधारणाओं को रौंद दिया गया है। इन अराजक तत्वों पर अंकुश लगाने में विफलता के कारण सरकार सद्भावना खो रही है। मिडल क्लास विशेष तौर पर उसके जीवन में पैदा हो रही बंदिशों को लेकर क्रुध हैं।
पहले जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ अभियान चलाया गया। उनकी वंशावली पर बेसरपैर के अश्लील सवाल खड़े किए गए। अब महात्मा गांधी की बारी है। उनके खिलाफ भी अभियान चलाया जा रहा है। उनकी हत्या को जायज़ ठहराने की कोशिश हो रही है। क्या इस देश में कुछ नहीं बचेगा? कुछ पाक और सांझा नहीं रहेगा? अपनी नई वैचारिक इमारत खड़ी करने के लिए क्या जरूरी है कि जिन्होंने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी और उसे हासिल किया उनकी इज्जत मिट्टी में मिलाई जाए?
देशभक्ति भी धंधा बन रही है (Patriotism has become a business),