मुद्दत से आरज़ू थी सीधा करे कोई (The Trudeau Fiasco)

कैनेडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो अपनी एक सप्ताह की यात्रा के बाद स्वदेश पहुंच गए। जाने से पहले वह बता गए कि वह भारत की एकता तथा अखंडता में विश्वास रखतें हैं और किसी भी प्रकार के उग्रवाद का समर्थन नहीं करते।

धन्यवाद ट्रूडो जी, पर ऐसे स्पष्टीकरण की जरूरत भी क्यों पड़े? किसी और देश के नेता को तो ऐसा कहने की जरूरत नहीं पड़ी। इसका जवाब है कि खुद ट्रूडो तथा उनकी सरकार के कुछ मंत्री पंजाब में खालिस्तान की मुहिम को हवा देते रहे हैं। इसी का परिणाम था कि ट्रूडो की आठ दिन की यात्रा आखिर में खंडहर में परिवर्तित होकर रह गई थी। कैनेडा का मीडिया विलाप करता रहा कि उनके प्रधानमंत्री का ठंडा स्वागत किया गया। एक समीक्षक का तो कहना था कि   “ट्रूडो को भारत में उतने जोश के साथ देखा जा रहा है जैसा मलेरिया के मच्छर को देखा जाता है।”

ट्रूडो की नीतियों के प्रति भारत की नाराजगी पहले दिन ही स्पष्ट हो गई थी जब उनके स्वागत के लिए राज्यमंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत को भेजा गया। प्रधानमंत्री मोदी जो ओबामा या नेतनयाहू जैसे नेताओं का खुद हवाई अड्डे पर जप्फी के साथ स्वागत कर चुके हैं, अगवानी के लिए मौजूद नहीं थे। न ही प्रधानमंत्री ने ट्वीट कर ट्रूडो का स्वागत ही किया।

यह ट्वीट और यह जप्फी छ: दिन के बाद आए पर तब तक भारत अपनी नाराजगी जता चुका था और कैनेडा के प्रधानमंत्री को पता चल गया था कि दुनिया की छठी अर्थ व्यवस्था को नाराज करने की कीमत अदा करनी पड़ती है।

यह नहीं कि नाराजगी नई है। दशकों से कैनेडा सरकार उन कुछ लोगों की गतिविधियों के बारे आंखें मूंदे हुए है जो भारत के टुकड़े करना चाहते हैं। 23 जून, 1985 को एयर इंडिया के ‘कनिश्क’ जहाज को अटलांटिक महासागर के ऊपर बम से उड़ा दिया गया था। 329 लोग इस घटना में मारे गए थे। विमान का पायलट सिख था। मरने वालों में 268 कैनेडा के नागरिक थे लेकिन इसके बावजूद कैनेडा को यह मानने मेें 20 साल लग गए कि ‘यह एक आतंकी घटना’ थी। पहले यह ही कहा जाता रहा कि यह घटना भारत की राजनीति और वहां की शिकायतों से जुड़ी हुई है।

जस्टिन ट्रूडो के आने तक बहुत कुछ बदल चुका था। एक तरफ ट्रूडो ने ‘अल्पसंख्यकों के हित’ के नाम पर सिख अलगाववाद को खुली छूट दे दी दूसरी तरफ भारत भी बदल गया था। नरेन्द्र मोदी की सरकार विशेष तौर पर ऐसी बेहूदगी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है इसीलिए ट्रूडो की यात्रा इतनी फीकी रही। स्पष्ट संदेश दे दिया गया। खालिस्तान मेड इन कैनेडा स्वीकार नहीं। जो खालिस्तान का समर्थन करेंगे उन्हें यहां नापसंद किया जाएगा।

ट्रूडो की नीति समझ से बाहर है। कथित खालिस्तान का मामला कैनेडा के अपने हित से जुड़ा हुआ नहीं। फिर वह खुद ऐसी गतिविधियों में क्यों संलिप्त रहे जिससे भारत चिढ़ गया? ट्रूडो टोरांटो में खालसा मार्च में शामिल हुए जहां भिंडरावाला की तस्वीरें लगी हुई थी। ट्रूडो की लिबरल पार्टी ओंटारियो में सत्तारुढ़ है। वहां की विधानसभा में प्रस्ताव पारित करवाया गया कि 1984 के सिख विरोधी दंगे ‘नरसंहार’ था। कैनेडा के प्रतिष्ठित अखबार ‘द ग्लोब एंड मेल’ में पूर्व राजदूत डेविड मुलरोनी ने ट्रूडो यात्रा पर लिखा है कि आशा है कि देश अपनी विदेशी नीति पर पुनर्विचार करेगा जो   “पटरी से उतरी नजर आती है। ”

कैनेडा सरकार की अकल ठिकाने लगाने में मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह का बड़ा हाथ है। उन्होंने ही कैनेडा में खालिस्तान समर्थन का मामला जोर-शोर से उठाया था जिसके बाद वह सरकार बैकफुट पर आ गई थी। पंजाब के मुख्यमंत्री ने खूब दबाव बनाया। आखिर में रक्षामंत्री हरजीत सिंह सज्जन को भी कहना पड़ा कि न वह और न ही एक और मंत्री अमरजीत सोही जिन्हें भी खालिस्तानी समर्थक समझा जाता है,  “खालिस्तान नामक अलग देश का समर्थन करते हैं।”

अमरेन्द्र सिंह में खालिस्तानियों को बड़ा जबरदस्त विरोधी मिला है जिसे अकालियों की तरह अपनी बात घुमा-फिरा कर कहने की आदत नहीं। वह एक निडर, देश भक्त और स्वाभिमानी सिख हैं जिन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि वह कट्टरवाद को बर्दाश्त नहीं करेंगे। उन्होंने ही ट्रूडो के मुंह से कहलवाया कि उनका देश आतंकी गतिविधियों का समर्थन नहीं करता। मुंबई में ट्रूडो के डिनर में खालिस्तानी आतंकवादी जसपाल अटवाल की मौजूदगी से इस विवाद का फिर विस्फोट हो गया। उसे पंजाब के एक मंत्री की हत्या के प्रयास में 20 साल की कैद की सजा हो चुकी है। कैनेडियन पत्रकार कैनडिस मैलकॉम ने लिखा है कि ट्रूडो सिख उग्रवादियों को उस वक्त ‘वोईन एंड डाईन’ करते रहे जब वह इनके प्रति सहानुभूति का प्रतिवाद कर रहे थे।

ब्रिटिश कोलम्बिया के पूर्व प्रधानमंत्री उज्जल दोसांझ ने स्पष्ट तौर पर कैनेडा के राजनेताओं की खालिस्तानी समर्थकों के साथ दोस्ती को भारत में उनके ठंडे स्वागत के लिए जिम्मेवार ठहराया है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत तथा पंजाब के सिख खालिस्तान नहीं चाहते हैं।

यह नहीं कि सिख समुदाय की शिकायतें नहीं हैं। 1980 और 1990 के दशक में यहां बहुत कुछ गलत हुआ था। पंजाब में आतंकवाद, आप्रेशन ब्लूस्टार, इंदिरा गांधी की हत्या, 1984 के दंगे, सदैव हमें परेशान करते रहेंगे। जब तक यह सब कुछ खत्म हुआ 25,000 पंजाबी मारे जा चुके थे, जिनमें अधिकतर सिख थे। पंजाब की अर्थ व्यवस्था को इतना झटका लगा कि तीन दशक के बाद भी हम संभल नहीं सके। सिख विरोधी दंगे विशेष तौर पर एक कलंक रहेंगे इसलिए भी क्योंकि मुख्य अपराधियों को अभी तक सजा नहीं मिली। यह हमारी न्यायिक प्रणाली की बहुत भद्दी तस्वीर पेश करती है।

लेकिन यह हमारी समस्या है। जो देश छोड़ गए और जिन्होंने अपने पासपोर्ट को किसी कथित ‘स्तान’ के पासपोर्ट के लिए नहीं बदलना, यह उनका मामला नहीं है। हम आतंकवाद तथा उग्रवाद में झुलसे गए थे। हमने अपना सबक सीख लिया। इसलिए पंजाब में खालिस्तान का कोई मामला नहीं। विधानसभा चुनावों में आप का पंजाब में जो हश्र हुआ इसका भी बड़ा कारण था कि आप का नेतृत्व यहां बेवकूफी कर गया। वह विदेशी सिख के समर्थन के सहारे बैठे रहे। चुनाव के दौरान केजरीवाल का एक पूर्व आतंकवादी के घर भी ठहरना बहुत महंगा पड़ा। अमरेन्द्र सिंह और अकाली उन पर  ‘खालिस्तान समर्थक’ लेबल चिपकाने में सफल रहे। उसके बाद जो हुआ वह सब के सामने है।

यह भी नहीं कि कैनेडा में सभी सिख खालिस्तान समर्थक हैं। टोरांटो से एक सिख मित्र का संदेश आया है, ‘मैं  यहां पिछले 12 वर्ष से रह रहा हूं और मैंने खालिस्तान के समर्थन में एक भी आंदोलन या लाईव टीवी शो नहीं देखा है। यह बात बीत चुकी है।” यह बात सही होगी लेकिन यह भी तो सही है कि कैनेडा में रह रहे आम सिख उन तत्वों का विरोध नहीं करते जिन्हें  गर्मख्याली’ कहा जाता है। वहां के कई गुरुद्वारों में भारतीय अधिकारियों के प्रवेश पर लगाया प्रतिबंध बहुत गलत संदेश देता है।

एक लाख से अधिक भारतीय छात्र कैनेडा में पढ़ते हैं जो 5 अरब डालर का उनकी अर्थव्यवस्था में योगदान डालते हैं। भारत में 1000 कैनेडियन कंपनियां काम करती हैं। आपसी व्यापार बढ़ाने की बहुत संभावना है लेकिन इनको एक तरफ रख कैनेडा उस मुद्दे पर केन्द्रित रहा जो भारत को खिजाता है और जिसका उनके साथ कोई संबंध नहीं। ऐसी हालत में उनकी यात्रा चाहे वह कितने भी रंगे-बिरंगे कुर्ते-पजामे बदले, की सफलता पहले से ही संदिग्ध थी। सारी यात्रा के दौरान खालिस्तान का भूत जस्टिन ट्रूडो का पीछा करता रहा। ट्रूडो की भारत यात्रा का जो भुरता बना है उससे उन्हें भी समझ जाना चाहिए कि अब यह नरेन्द्र मोदी का भारत है और अमरेन्द्र सिंह का पंजाब। दोनों ही किसी शरारत को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.