
सोनिया गांधी ने घोषणा की है कि वह भाजपा तथा नरेन्द्र मोदी को सत्ता में वापिस आने नहीं देंगे। उनका यह भी विश्वास है कि 2019 में कांग्रेस वापिसी करेगी। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि वह जानती थी कि मनमोहन सिंह उनसे बेहतर प्रधानमंत्री होंगे लेकिन फिर सवाल उठता है कि उन्होंने पर्दे के पीछे से मनमोहन सिंह की लगाम अपने हाथ में क्यों रखी? मनमोहन सिंह को तो एक प्रकार से स्टैपनी प्रधानमंत्री बना दिया गया जिनकी इज्जत न पार्टी करती थी न उनके मंत्री। उनका बड़ा तमाशा तो तब बन गया था जब राहुल गांधी ने जबरदस्त अहंकार दिखाते हुए उस वक्त मंत्रिमंडल द्वारा पारित अध्यादेश के टुकड़े कर दिए जब प्रधानमंत्री वाशिंगटन में अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलने जाने वाले थे।
तब से लेकर राहुल गांधी का अहंकार काफी उतर चुका है। आखिर भाजपा आज 21 प्रदेशों में सत्तारुढ़ है और कांग्रेस के पास सिर्फ साढ़े तीन प्रदेश (पंजाब, कर्नाटक, मिजोरम तथा पुडेच्चेरी) हैं। इसीलिए सार्थक सवाल उठता है कि सोनिया गांधी और उनकी पार्टी नरेन्द्र मोदी की फौज को रोकेंगे कैसे?
उत्तर पूर्व विशेष तौर पर त्रिपुरा, की भाजपा की जीत से केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि कई और दल भी चिंतित हैं। इनमें भाजपा के साथी भी हैं जो समझते हैं कि भाजपा में उन्हें निगलने की क्षमता है। चंद्रबाबू नायडू ने अपने दो मंत्री केन्द्रीय मंत्रिमंडल से हटा लिए चाहे टीडीपी अभी एनडीए में बनी रहेगी। अतीत में वह कांग्रेस विरोधी राजनीति के सूत्रधार रह चुके हैं। वह खुद को युनाईटेड फंरट तथा एनडीए की सरकारें बनाने में किंग मेकर भी समझते रहे हैं लेकिन वह पैंतरे भी बदलते रहे हें। 2004 में चुनाव हारने के बाद उन्होंने मुसलमानों से यह कहते हुए कि भाजपा के साथ गठबंधन कर उन्होंने अपनी जिंदगी की ‘सबसे बड़ी भूल’ की थी माफी मांग ली थी। पर दस वर्ष के बाद वह फिर इसी भाजपा के साथ थे, जिस पर कहा जा सकता है:
कथनी और करनी में फरक क्यों है या रब्ब
तो जाते थे मयखाने में कसम खाने के बाद!
इस बीच उनके पड़ोसी तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव भी उतावले हो रहे हैं। उन्होंने तीसरा मोर्चा बनाने का आह्वान किया है। खुद को इस कथित मोर्चे का मुखिया प्रस्तुत करते हुए उनका कहना है कि वह “देश की राजनीति में गुणात्मक परिवर्तन” लाना चाहते हैं। यह होगा कैसे यह उन्होंने नहीं बताया। उल्लेखनीय है कि केसीआर पहले गैर भाजपा मुख्यमंत्रियों में से थे जिन्होंने नोटबंदी और जीएसटी, जो मोदी सरकार की सबसे बड़ी सरदर्द है, का स्वागत किया था।
उधर पश्चिम बंगाल से टीएमसी के नेता गर्ज रहे हैं। सांसद डैरिक ओ ब्रायन ने घोषणा की है कि 15 अगस्त 2018 को नरेन्द्र मोदी अंतिम बार लाल किले के प्राचीर से देश को संबोधित करेंगे। पर उनकी जगह कौन लेगा? इस बाबत भी वे स्पष्ट है। उनके अनुसार अगला प्रधानमंत्री वह व्यक्ति बनना चाहिए जिसका लम्बा राजनीतिक अनुभव हो, जो केन्द्र में मंत्री रह चुका हो और जिसे मुख्यमंत्री बनने का अनुभव हो। वैसे तो देश में मुलायम सिंह यादव, प्रकाश सिंह बादल, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार और शरद पवार जैसे नेता भी हैं जो इस शर्त पर खरे उतरते हैं पर डैरिक ओ ब्रायन का इशारा तो केवल उनकी नेता ममता बैनर्जी की तरफ है। वह समझते हैं कि दीदी ही इस पद के उपयुक्त हैं।
लेकिन यहां पेच फंसता। अगर दीदी ने अगला प्रधानमंत्री बनना है तो राहुल गांधी का क्या होगा? कांग्रेस किसी भी हालत में राहुल की जगह किसी और को नरेन्द्र मोदी का विकल्प स्वीकार नहीं करेगी। आखिर जिस राहुल गांधी ने 2006 में कहा था कि ‘मेरा राष्ट्रीय ध्वज ही मेरा धर्म है’ अब ‘जनेऊधारी हिन्दू’ बन चुके हैं। पहले वह अपनी धार्मिक पहचान के बारे अस्पष्ट थे अब उसकी नुमायश कर रहे हैं। यह सब ममता बैनर्जी या किसी और को अगला प्रधानमंत्री बनाने के लिए नहीं हो रहा। इस परिवार ने सदा अपने लिए ही मेहनत की है।
सांझे खतरे को देखते हुए उत्तर प्रदेश में 23 साल पुरानी दुश्मनी को एक तरफ रखते हुए सपा और बसपा लोकसभा उप चुनाव के लिए इकट्ठे हो गए हैं। मायावती को अप्रासंगिक बनने का डर सता रहा है क्योंकि उनका दलित वोट भाजपा की तरफ खिसक रहा है और वह तीन चुनाव हार चुकी हैं। यह दोनो अगर इसी तरह इकट्ठे रहे तो 2019 मे भाजपा की तबीयत बिगाड देगैं ।
असली सवाल तो यह है कि बादशाह शाहजहां द्वारा निर्मित लाल किले पर 2019 में झंडा कौन लहराएगा? यहां आकर भी मामला पचीदा हो जाता है। अतीत में गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा मोर्चे जनता घटकों के इर्द-गिर्द गठित हुए थे। एनडीए या यूपीए की सरकारें कांग्रेस या भाजपा के बल पर बनी थी। आज अगर उन प्रादेशिक सूबेदारों जिनका आपस में कुछ सांझा नहीं केवल इसके कि वह भाजपा और नरेन्द्र मोदी से भयभीत हैं, का कोई मोर्चा बनता है तो क्या वह जनता को कायल कर सकेंगे? विश्वसनीयता क्या होगी?
इन सज्जनों की यह भी समस्या है कि अतीत बहुत उत्साह पैदा नहीं करता। अतीत में नैशनल फ्रंट या युनाईटेड फ्रंट यया किसी और फ्रंट के नाम पर जो सरकारें बनी थी वह अल्पावधि ही रहीं। चरण सिंह ॒(170 दिन), वीपी सिंह (343 दिन), चंद्रशेखर (223 दिन), देवे गोडा (324 दिन),इंद्र कुमार गुजराल (332 दिन) ही सत्ता में रहे। इनमें से कुछ तो ‘सूटकेस सरकारें’ के नाम से कुख्यात रही थी। लोग ऐसा परीक्षण क्यों दोहराना चाहेंगे?
अगर नरेन्द्र मोदी का मुकाबला करना है तो यह केवल गणित से ही नहीं होगा इसके लिए वैकल्पिक कार्यक्रम चाहिए। लोग पूछेंगे कि अगर आप विकल्प हो तो यह विकल्प है क्या? लोग अंधेरे में छलांग नहीं लगाएंगे। कौन आपका चेहरा होगा? आजकल तो चुनाव व्यक्तित्व पर लड़े जा रहे हैं पर यहां तो सभी नेता पीएम बनना चाहते हैं। एजेंडा क्या है? क्या कांग्रेस के बिना भाजपा का सामना किया जा सकता है? पर तब क्या बाकी विपक्ष राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करेंगे जबकि डैरिक ओ ब्रायन कह चुके हैं कि उनका “फोक्स लाल किले पर है।“
नरेन्द्र मोदी जैसे नेता के लिए ऐसी किसी अस्थिर गठबंधन की धज्जियां उड़ाना मुश्किल नहीं होगा। नरेन्द्र मोदी के लिए समस्या और है। जहां उन्हें अपनी साथी पार्टियों को संतुष्ट रखना है वहां जनता के असंतोष से भी निबटना है। अच्छी बात है कि उन्होंने तथा अमित शाह ने तत्काल बुत्त तोडऩे की भद्दी हरकत की निंदा कर दी नहीं तो मामला बहुत बढ़ जाता पर उन्हें भी समझना चाहिए कि त्रिपुरा में उनके कार्यकर्त्ताओं ने इसलिए यह बेहूदगी की क्योंकि प्रभाव फैल गया कि इसकी आजादी है। पहले जब लव जेहाद या गौ रक्षा आदि के नाम पर हिंसा या अराजकता फैलाई गई तो नेतृत्व चुप रहा। इससे गलत प्रभाव फैल गया कि खुली छूट है। और क्या अब नरेश अग्रवाल भाजपा का चाल,चरित्र और चेहरा होंगे?
मोदी सरकार के सामने असली चुनौती जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने की है। किसान की दरिद्रता बहुत भयंकर चुनौती है। 40,000 आदिवासी किसान अपनी दुर्गति बताने मुबई शहर आए थे। कई तो कर्ज के बोझ में इतने दबे हुए हैं कि नंगे पैर नासिक से मुंबई 180 किलोमीटर चल कर आए हैं। उनसे जो वायदे किए गए वह पूरे नहीं किए गए और वह उस मुंबई शहर में पहुंचे जहां देश के सबसे अधिक अरबपति रहते हैं। जहां शिवाजी के बुत्त पर 3600 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। मुंबई में कई ऐसे लोग भी रहते हैं जिनकी धन-दौलत इन सभी किसानों की कुल सम्पत्ति से भी अधिक होगी। यह गरीब वह लोग हैं जिन्हें व्यवस्था या तो छोड़ कर आगे बढ़ गई या जो इस संवेदनशील तथा भ्रष्ट व्यवस्था के शिकार हैं। किसान देख रहा है कि जो बैंकों को लूट रहे हैं वह कानून के हाथ से दूर हैं जबकि वह तड़प रहे हैं। उनकी पीढ़ा को कौन खत्म करेगा? जिस तरह मुंबईकरों ने इन किसानों का स्वागत किया, उसमें भी संदेश छिपा है। चाहे वह ग्रामीण हो चाहे वह शहरी हों, सब समझते हैं कि व्यवस्था असंवेदनशील है। कभी ‘गरीबी हटाओ’ तो कभी समाजवाद, तो कभी ‘इंडिया शाईनिंग’ तो कभी ‘अच्छे दिन’ के नाम पर सबका उल्लू बना रही है।
विकल्प है, तो विकल्प क्या है? (Where is the alternative ?),