बिना उत्तेजना दिए, बिना किसी को गाली दिए, बिना कहीं आग लगाए यह दलित नौजवान पूर्वाग्रहों से लडऩे की देश के आगे बढ़िया मिसाल कायम कर गया है। संजय कुमार जातव की शादी इस महीने के अंत में है। वह जिस रास्ते से अपनी बारात ले जाना चाहता था उस रास्ते में ठाकुरों के घर पड़ते थे जो शताब्दियों पुराने पूर्वाग्रह में इस बारात के प्रवेश का विरोध कर रहे थे। संजय कुमार हाईकोर्ट तक भी गया कि यह उसके ‘सम्मान’ का मामला है पर दुर्भाग्यवश वहां से भी मदद नहीं मिली। उसने यह वायदा भी किया था कि उसकी बारात पूरी गरिमायुक्त होगी, कोई शराब नहीं पीएगा, कोई हथियार नहीं रखेगा और कुछ आपत्तिजनक नहीं कहा जाएगा।
जिला प्रशासन भी सक्रिय रहा। बारात के लिए वह रास्ता सुझाया गया, जो ठाकुर घरों से दूर जाता था पर संजय कुमार अड़ गए। उसका सवाल था “क्या मैं हिन्दू नहीं हूं? योगी आदित्यनाथ कहते हैं हम सब बराबर हैं फिर मेरे साथ ऐसा अन्याय क्यों?” आखिर में ठाकुर परिवार भी मान गए और अब यह साहसी और समझदार जातव नौजवान अपनी दुल्हन शीतल के घर उसी रास्ते से बारात लेकर जाएगा जिस रास्ते से वह चाहता था। पर उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दो महीने उसके पत्र का उत्तर तक नहीं दिया था।
खुशी है कि इस युवक ने अपने सम्मान पर आंच नहीं आने दी। उसका यह कहना कि “मैं भी तो हिन्दू हूं“ हिन्दू धर्म के सब ठेकेदारों के आगे एक सवाल खड़ा करता है कि जहां संजय सफल रहा वहां असंख्य दलित युवक नाकाम भी रहे। देश के कई गांवों में अभी भी उन्हें घोड़ी चढ़ने नहीं दिया जाता।
मध्यप्रदेश में छतरपुर जिले में एक दलित दुल्हे की इसलिए पिटाई कर दी गई क्योंकि उसने सजी हुई कार में बारात ले जाने की ‘जुर्रत’ की थी। ऐसे बहुत से किस्से हैं जहां घोड़ी चढ़ने या मूंछ रखने या सवर्ण जाति के लोगों के आगे से निकलने के लिए दलित का भारी उत्पीडऩ किया गया। भावनगर गांव में एक दलित की इसलिए तीन युवकों ने हत्या कर दी क्योंकि उसके पास एक घोड़ा था जिसे सवर्ण जाति के लोग अपनी रईसी का प्रतीक समझते हैं।
आजादी के 70 वर्ष बाद भी हमारे समाज के पूर्वाग्रह और नफरत खत्म नहीं हुई। पंजाब कुछ बेहतर है क्योंकि जहां गुरु साहिबान की शिक्षा तथा आर्य समाज के संदेश ने बराबरी की भावना को बल दिया है पर यहां भी अलग गुरुद्वारे बन गए हैं। सबसे अधिक प्रभावित चार प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार तथा मध्यप्रदेश हैं जो सभी इस वक्त भाजपा शासित हैं। एक और भाजपा शासित प्रदेश गुजरात में ऊना में गौ रक्षकों द्वारा चार दलित नौजवानों की पिटाई के बाद देशभर में विरोध-प्रदर्शन हुए थे। महाराष्ट्र, फिर भाजपा शासित, के भीमा-कारोगांव में दलित जश्न के दौरान हुई हिंसा में भारी हानि हो चुकी है। एक और भाजपा शासित हरियाणा में भी दलितों पर लगातार अत्याचार हो रहे हैं। आज अगर भाजपा का नेतृत्व परेशान है कि दलित उससे दूर जा रहे हैं तो उन्हें अपनी प्रादेशिक सरकारों की असंवेदनशीलता को इसके लिए जिम्मेवार मानना चाहिए।
दलित केवल अम्बेदकर समारक बनाने से संतुष्ट नहीं होंगे। दलितों की असली समस्या प्रदेशों में, विशेष तौर पर गांवों में है जहां उन्हें बराबरी नहीं मिलती और उन्हें अभी भी दबाया जाता है। महिलाओं का उत्पीडऩ किया जाता है। मोदी सरकार की आर्थिक तथा सामाजिक नीतियों के कारण दलित और अधिक परेशान है। नोटबंदी तथा गौ हत्या को लेकर हिंसा ने दलितों को जो पहले ही हाशिए पर थे सबसे अधिक प्रभावित किया है। सरकारी नौकरियों में दलित की संख्या बढ़ी है लेकिन अब यह नौकरियां कम हो रही हैं। विनिवेश, कांट्रैक्ट व्यवस्था तथा निजीकरण ने सरकार नौकरियां कम कर रही है। दलित सबसे अधिक प्रभावित है।
इसका उलटा असर भी हो रहा है, आरक्षण अब बड़ा मुद्दा बन रहा है। दूसरी जातियों के जो नौजवान आरक्षण के कारण वंचित रह गए हैं वह विरोध कर रहे हैं। दलितों के ‘भारत बंद’ के खिलाफ दूसरे ‘भारत बंद’ का यही संदेश है। पिछले साल महाराष्ट्र में मराठों ने अपने लिए आरक्षण की मांग को लेकर भारी प्रदर्शन किया था। जाट, गुज्जर सब यह मांग कर रहे हैं। दलित समझते हैं कि मोदी सरकार उनका आरक्षण खत्म नहीं तो कमजोर करना चाहती है वहां जो आरक्षण से वंचित रह गए हैं वह अपना विरोध प्रकट कर रहे हैं। भारत बंद के एक दिन बाद राजस्थान में भीड़ ने एक वर्तमान तथा एक पूर्व विधायक के घर को आग लगा दी। दोनों दलित हैं।
दलित अब अपनी पहचान को लेकर कम रक्षात्मक हैं। नई पीढ़ी उभर रही है। गुजरात में ऊना में दलितों के उत्पीडऩ के बाद वहां नौजवान दलित नेता जिग्नेश मेवानी उभरा है। वह उस नई आक्रामक पीढ़ी से है जो वह समझौता नहीं करेगी जो मायावती करती रहीं है और आगे भी कर सकती है। मायावती को सम्भालना व्यवस्था को आता है। इन नौजवानों को सम्भालना मुश्किल होगा।
भारी संख्या में अब दलित नौजवान पढ़े-लिखे हैं। वह आधुनिक संचार को साधने का इस्तेमाल जानते हैं। उन्हें अपनी राजनीतिक ताकत का भी अहसास है। वह मुखर हैं। वह अब अपना एजंडा तय कर रहे हैं जिस कारण स्थापित राजनीतिक दलों के पसीने छूट रहे हैं। भाजपा नुकसान की भरपाई करने में लगी है क्योंकि 2014 के चुनाव में उसका दलित मत 2009 के 12 प्रतिशत से बढ़ कर 2014 में 24 प्रतिशत हो गया था जिस कारण लोकसभा की रिजर्व 84 सीटों में से भाजपा को 40 मिली थीं जिनमें 17 उत्तर प्रदेश की थी। अब यह खतरे में हैं। पर दलित भी नहीं जानते हैं कि वह जाएंगे किधर? कांग्रेस कितना विकल्प है यह उसके मज़ाकिया ‘छोले-भटूरे उपवास’ से पता चलता है।
इस बीच दलित सुप्रीम कोर्ट द्वारा दलित अत्याचार कानून में किए संशोधन से बहुत खफा हैं। उनका कहना है कि पहले ही दलितों के खिलाफ अत्याचार के 9 प्रतिशत मामलों में ही सजा मिलती है अब यह और भी कम हो जाएगी जबकि बड़ी अदालत का कहना है कि उन्होंने कानून को नहीं छेड़ा केवल प्रावधान सही किए हैं। इस मामले में दलित पक्ष कमजोर है। कोई भी कानून मानवीय अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकता। किसी की शिकायत पर बिना सुनवाई किसी को अंदर करना प्राकृतिक न्याय की धारणा के खिलाफ जाता है। सुनवाई, जांच और जरूरत पडऩे पर जमानत, के प्रावधान से किसी भी वर्ग को अछूता नहीं रखा जा सकता चाहे वह सवर्ण हो या दलित। दो गलतियां मिल कर एक सही नहीं होती। जो अन्याय पीढ़ियों से चलता आ रहा है का जवाब एक और अन्याय नहीं हो सकता।
मोहन भागवत द्वारा आरक्षण खत्म करने की वकालत से दलित और शंकित हैं। दलित महसूस करते हैं कि ‘सिस्टम’ उनसे वह छीनना चाहता है जो उन्होंने बहुत मुश्किल से हासिल किया है। लेकिन दलितों को भी समझना चाहिए कि आरक्षण अंतहीन नहीं हो सकता। न ही डा. अम्बेदकर भी ऐसा चाहते थे। वह तो जाति विहीन समाज चाहते थे।
इस स्थिति में बहुत संवेदनशीलता तथा समझदारी से निबटना होगा। केवल प्रतीकवाद से कुछ नहीं होगा। डा. अम्बेदकर के नाम के बीच फिर ‘रामजी’ जोडऩे से कुछ नहीं होने वाला। जमीन पर हालत बदलनी होगी। इस बीच संजय कुमार जातव तथा कासगंज के ठाकुर परिवारों ने बहुत समझदार मिसाल कायम की है। झूठी शान से अब परहेज करना चाहिए। सब को मिल कर संजय तथा शीतल के लम्बे तथा मंगलमय विवाहित जीवन की कामना करनी चाहिए।
देश के आगे खड़ी हो रही सामाजिक चुनौतियों के बारे प्रधानमंत्री मोदी की खामोशी या देर से प्रतिक्रिया से असुखद स्थिति बन रही है। यह प्रभाव मिल रहा है कि नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा के शीर्ष नेता का ध्यान केवल 2019 के चुनाव जीतने तक ही है वह देश को सही दिशा देने में रुचि नहीं रखते। उन्नाव तथा कठुआ के भयानक रेप के मामले पर अगर प्रधानमंत्री पहले बोल उठते तो हाईकोर्ट को योगी सरकार की ढिलाई पर यह फटकार नहीं लगानी पड़ती कि सूबे में कानून और व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। न ही निर्भया से भी भयंकर कठुआ कांड में आठ वर्ष की आसिफा से सामूहिक बलात्कार के मामले में दुनिया भर में हमारी भारी बदनामी होती। कितनी शर्म की बात है कि मामला संयुक्त राष्ट तक पहुंच गया है। खेद है कि वहां कुछ नेता रेप को भी साम्प्रदायिक आधार पर देखते रहे। उन्नाव मामले पर भाजपा की प्रवक्ता दीप्ति भारद्वाज का यह ट्वीट कि “आदरणीय अमित शाह जी यूपी को बचा लीजिए। सरकार के निर्णय शर्मसार कर रहे हैं। यह कलंक नहीं धुलेगा,” व्यथा बयान कर रहा हैं। लेकिन अमित शाह जी तो केवल 2019 पर केन्द्रित हैं।
संजय कुमार जातव की बारात (Dalit Angst),