इंदौर में एक आठ महीने की बच्ची के साथ रेप के बाद उसकी हत्या कर दी गई। नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी जिन्होंने बढ़ते रेप को ‘नैशनल एमरजैंसी’ कहा है, के अनुसार पिछले तीन साल में बच्चों के खिलाफ अपराध में 34 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 96 प्रतिशत मामलों में अपराधी वह शख्स था जिसे परिवार और बच्चा जानते हैं जिस कारण कई मामले छिपे भी रहते हैं।
किसी समाज की नीचता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि यहां बच्चियां सुरक्षित नहीं? हमारी तो इंसानियत मर गई लगती है। एक दिन नहीं जाता जब कहीं न कहीं से ऐसा बुरा समाचार नहीं मिलता। आभास मिलता है कि यहां दरिंदे भरे हुए हैं। कठुआ और उन्नाव के बाद सूरत में नौ साल की बच्ची के साथ रेप के बाद गला घोंट कर उसकी हत्या कर दी गई। पीड़िता के शरीर पर 86 घाव पाए गए। छत्तीसगढ़ में विवाह के दौरान 10 वर्ष की लडक़ी के साथ रेप के बाद पत्थर से उसका सर फोड़ कर हत्या कर दी गई। यह कैसी हैवानियत है? हर प्रदेश से ऐसे समाचार मिल रहे हैं कि जैसे रेप की महामारी फैल गई है।
कहां गए हमारे संस्कार? हमारी संस्कृति जिस पर हमें गर्व है? प्राचीन समय में हमारे पास इंटरनेट था या नहीं, यह विवाद का विषय है पर हमारा वर्तमान तो दूषित है। हम एक रोगी देश की तस्वीर पेश कर रहे हैं। जिन्होंने कठुआ रेप के मामले को दूसरी रंगत देने का प्रयास किया तथा कानून के रास्ते में रुकावट डाली उन्होंने अपने समाज तथा देश से भारी अन्याय किया। दुनिया भर में हमारी बदनामी हुई है। बाहर की अखबारें लिख रही हैं कि जिन्होंने अपराधियों के पक्ष में जलूस निकाला उनके हाथ में तिरंगा था और वह ‘जय श्रीराम’ के नारे लगा रहे हैं।
अत्याचार अत्याचार है। रेप रेप है। शोषण शोषण है। इसको लेकर अनावश्यक सवाल उठाने खुद को अपराधियों के संग खड़े करने के बराबर है। रेप का कोई औचित्य नहीं हो सकता। मुलायम सिंह यादव ने एक बार रेप के बारे कहा था कि “लड़के हैं, लडक़ों से गलती हो जाती है।“ गलती? किसी लडक़ी की जिंदगी तबाह करना मात्र ‘गलती’ है? इस आदमी का तो सामाजिक और राजनीतिक बहिष्कार होना चाहिए था लेकिन आज भी वह महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञ हैं। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी कह रहें है कि अपने लडक़ों को संभालो। उनका सही कहना है कि रेप करने वाला भी तो किसी का लडक़ा है। पर केन्द्रीय मंत्री संतोष गंगावर का कहना है कि “इतने बड़े देश में 1-2 घटनाएं हो जाएं तो बात का बतंगड़ नहीं बनाना चाहिए।“ मंत्री से पूछा जाना चाहिए कि अगर यह सब ‘बतंगड़’ है तो आपकी सरकार ने बच्चियों के रेप पर फांसी की सजा का कानून क्यों बनाया है? ऐसे बेपरवाह लोग देश को क्या संदेश दे रहें हैं?
इस फांसी की सजा को लेकर भी कई लोग आपत्ति कर रहे हैं। उनका तर्क है कि फांसी की सजा से क्या हत्याएं रुकी हैं? अगर इस तर्क पर जाया जाए तो कोई भी कानून नहीं चाहिए क्योंकि अपराध तो रुके नहीं। चोरी, डाका, भ्रष्टाचार, हत्याएं सब चल रही हैं। पर डर तो है कि सजा हो सकती है। सख्त कानून और फांसी की सजा के प्रावधान द्वारा सख्त संदेश तो दिया गया है कि अगर तुम बदमाशी करोगे तो यह हश्र होगा तुम्हारा। दुबई में रेप करने वाले को एक सप्ताह के अंदर-अंदर सरेआम फांसी पर लटका दिया जाता है। यही खौफ है जिस कारण वहां महिलाओं से बदतमीजी नहीं होती और वह सुरक्षित महसूस करती हैं। चीन में भी रेप करने वाले को मौत की सजा दी जाती है। अमेरिका की एक अदालत ने राष्ट्रीय जिम्नास्टिक टीम के डॉक्टर को 175 साल कैद की सजा सुनाई जो टीम की बच्चियों के साथ रेप करता था।
यहां सख्ती की बहुत जरूरत है क्योंकि समाज में एक वर्ग बेलगाम हो रहा है। केरल के एक चर्च का ‘फादर’ जो बच्चियों से दुर्व्यवहार के खिलाफ बहुत बोलता था खुद चर्च के अंदर एक नाबालिगा से रेप के आरोप में पकड़ा गया। मामला तब बाहर निकला जब वह लडक़ी गर्भवती हो गई। खैर,चर्च के अंदर जो जबरदस्ती होती रही, केवल लड़कियों के साथ ही नहीं लडक़ों के साथ भी, उस पर किताबें लिखी जा चुकी हैं। पोप खुद इसे स्वीकार कर चुके हैं।
लेकिन हमें अपना देखना है। इंसानियत जो सब से घृणित कर सकती है उसका यहां प्रदर्शन हो रहा है। बड़ी समस्या है कि हमारी पुलिस तथा न्यायिक व्यवस्था बहुत कमजोर है। रेप के मामले बढ़ भी रहे हैं। बाल यौन उत्पीडऩ के एक लाख से अधिक मामले अदालतों में लम्बित हैं। 2013 के मुकाबले 2016 में बच्चियों के साथ रेप के 7000 मामले बढ़े हैं। जितने मामले दर्ज हुए उनमें से केवल एक तिहाई को ही सजा दी जा सकी। जिनके बारे सूचना नहीं दी गई वह अलग है।
नए कानून में दो महीने में जांच तथा दो महीने में मुकद्दमा पूरा करने का प्रावधान है। अपील का निपटारा छ: महीने में करना होगा। जैसी हमारी व्यवस्था बन चुकी है यह हो पाएगा भी? हमारी पुलिस तथा न्यायिक व्यवस्था की मानसिकता में यह कायाकल्प होगा कैसे? अधिकतर बच्चियां गरीब परिवारों से है वह ताकतवर लोगों से टक्कर ले सकेंगे? कानून बनाना आसान है पर न्यायिक प्रणाली जो यौन हमले की जल्द और पक्की सजा देती हो, को चुस्त करना मुश्किल है। साथ यह भी सवाल उठता है, जो निर्भया की माता ने भी उठाया है, कि केवल 12 वर्ष तक की बच्चियों के रेप पर ही फांसी की सजा क्यों? सजा को आयु के साथ क्यों जोड़ा जाए? किसी भी के साथ रेप, चाहे आयु कुछ भी हो, पर मौत की सजा होनी चाहिए और अपराधी को सरेआम मुख्य चौक में लटका देना चाहिए। यह असामान्य सजा है पर परिस्थिति भी तो असामान्य है। इस बाढ़ को रोकने के लिए बहुत सख्ती की जरूरत है।
हमारी त्रासदी है कि हमारी संस्थाएं बदकिस्मत नागरिकों की मदद के लिए आगे नहीं आती। वास्तव में हम अपने चारों तरफ संस्थाओं को चूर-चूर होते देख रहे हैं। पुलिस विभाग विशेष तौर पर भ्रष्ट तथा असंवेदनशील बन चुका है। 2017 के एक सर्वेक्षण के अनुसार 48 विधायक तथा 3 सांसद ऐसे हैं जिनके खिलाफ महिलाओं के प्रति आपराधिक मामला दर्ज है। तीन विधायक ऐसे हैं जिन्होंने एफिडेविट में लिखा है कि उनके खिलाफ रेप से जुड़ा मामला दर्ज है। ऐसे आपराधिक छवि वाले जन प्रतिनिधियों में सबसे अधिक शासक दल भाजपा के हैं। क्या यह दल विशेष तौर भाजपा, अब यह वायदा करेंगे कि ऐसे लोगों को अगली बार टिकट नहीं दिया जाएगा? हार-जीत की कसौटी में सारी नैतिकता को एक तरफ क्यों फैंक दिया जाता है?
कौन निकालेगा हमें इस खाई से? यहां तो धर्म का भी बाजारीकरण हो चुका है। एक विशेष संपादकीय में न्यूयार्क टाईम्स के सम्पादकीय बोर्ड ने नरेन्द्र मोदी के बारे लिखा है “वह अपनी आवाज़ उस समय खो बैठते हैं जब महिलाएं तथा अल्पसंख्यकों को अकसर राष्ट्रवादी तथा साम्प्रदायिक ताकतें निशाना बनाते हैं…। ” इससे पहले 49 पूर्व अफसरशाहों ने कठुआ तथा उन्नाव की घटनाओं पर नरेन्द्र मोदी को ‘सर्वाधिक जिम्मेदार’ ठहराते हुए उनके मौन की आलोचना की है। इसके अलावा दुनिया भर से 600 शिक्षकों तथा बुद्धिजीवियों ने भी खुला पत्र लिख भारत के प्रधानमंत्री की तीखी आलोचना की है।
इन सबके बारे कहा जा सकता है कि इनका अपना एजंडा होगा। न्यूयार्क टाईम्स द्वारा बार-बार ‘राष्ट्रवादी ताकतों’ का जिक्र करना तथा कठुआ में घटनास्थल को बार-बार मंदिर कहना उनका पूर्वाग्रह प्रकट करता है। राष्ट्रवादी होना कोई पाप नहीं अमरीकी भी किसी से कम राष्ट्रवादी नहीं। इसी तरह जिन अफसरशाहों ने मोदी के खिलाफ अपनी भड़ास निकाली है वह भी एक विशेष एजंडे पर चलते रहे हैं। यूपीए के दौरान हुए घपलों के बारे ऐसा कोई पत्र नहीं निकाला गया और इन मामलों में नरेन्द्र मोदी को ‘सर्वाधिक जिम्मेदार’ कैसे ठहराया जा सकता है? सीएनएन ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पुलिस ने आठ लोग पकड़े हैं ‘जो सभी हिन्दू हैं।‘
यह वही लोग है जो कहते हैं कि आतंकवाद का मजहब नहीं होता पर क्योंकि कठुआ के मामले में पीड़िता मुसलमान हैं और अपराधी हिन्दू इसलिए उल्लासपूर्ण बता रहे हैं कि अपराधी हिन्दू है। रेप के बाकी मामलों में इनकी दिलचस्पी नहीं। पर हमारी कमजोरी है कि हमने उन्हें मौका दे दिया। इस मामले में प्रधानमंत्री मोदी की लम्बी खामोशी ने देश-विदेश को बहुत गलत संदेश दिया है। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री ही इसीलिए बनाया गया था क्योंकि हम समझते थे कि उन में देश को सही दिशा देने की क्षमता है। उन्हें भी समझना चाहिए कि उनकी कितनी भी उपलब्धियां हो ऐसे गंभीर और भयानक सामाजिक संकट के समय उनकी खामोशी या देर से प्रतिक्रिया उनकी तथा देश की छवि को आघात पहुंचाती है।
कई बार सोचता हूं कि अगर आज गांधी जीवित होते तो क्या करते? चारों तरफ अत्याचार, अराजकता, अपराध और अनैतिकता देख कर महात्मा जी क्या उपवास पर बैठ जाते, या हे राम! कह कर खुद को गोली मार लेते…?
हे राम! (He Ram),