
डोकलाम में भारत-चीन के बीच 72 दिन के टकराव के खत्म होने के ठीक आठ महीने के बाद भारत और चीन के नेता चीन के चित्रमय खूबसूरत शहर वुहान के बागों में सैर कर रहे थे और झील में किश्ती पर बैठ कर चाय पर चर्चा हो रही थी। डोकलाम टकराव के दौरान चीन के सरकारी मीडिया ने तो युद्ध की धमकी तक दे दी थी और उनकी सेना के प्रवक्ता ने भारत को चेतावनी दी थी कि वह ”1962 के युद्ध का सबक भूल गया है” लेकिन अब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग प्रधानमंत्री मोदी से “रिश्तों में नए अध्याय” शुरू करने की बात कर रहे थे।
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जून में फिर चीन जा रहे हैं। उस यात्रा से दो महीने पहले उनके लिए वुहान में ‘विशेष लाल गलीचा’ बिछाना, जैसे विदेशी मीडिया कह रहा है, विशेष महत्व रखता है। इस लम्बी मुलाकात के दौरान क्या बात हुई यह तो शायद कभी भी पता न चले पर यह साफ है कि दोनों देशों के नेताओं को इस मुलाकात की जरूरत क्यों पड़ी? बड़ा कारण है कि इस वक्त दुनिया की व्यवस्था में भारी तोडफ़ोड़ हो रही है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जो ढांचा खड़ा किया गया था वह चरमरा रहा है। इस दौरान भारत और चीन जो दुनिया की लगभग एक तिहाई जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं ने समझ लिया कि यह समय आपस में झगडऩे का नहीं बल्कि दोनों के हित में है कि आपस में बैठ कर तनाव और टकराव को कम करे और विशेष तौर पर डोकलाम जैसी स्थिति फिर न आने दें।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लिए पिछले कुछ सप्ताह बहुत अच्छे नहीं रहे। चीन की पीपल्स कांग्रेस द्वारा उन्हें आजीवन राष्ट्रपति बने रहने के रास्ते से रुकावटें हटाने, जिस कारण उन्हें ‘सम्राट जिनपिंग’ भी कहा जाना शुरू हो गया था, के बाद अचानक बाजी पलटनी शुरू हो गई है। इस पलटे का नाम डानल्ड ट्र्रम्प हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति ने एक प्रकार से चीन को मुख्य खलनायक घोषित कर दिया है। पहले अमेरिका रूस के पीछे पड़ा रहता था। अमेरिका की व्यवस्था तो अभी भी रूस को मुख्य खलनायक समझती है पर ट्रम्प पुतिन को नाराज नहीं करना चाहते उन्होंने चीन के साथ ‘ट्रेड वॉर’ शुरू कर दी हैै।
ट्रम्प की चुनौती से शी जिनपिंग की स्थिति कमजोर हुई है। अमेरिका की दखल के बाद उत्तरी कोरिया के राष्ट्रपति किम जोंग उन ने दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति से मिलकर अपना परमाणु कार्यक्रम रोकने की घोषणा की है। इस सारी प्रक्रिया से चीन को अलग रखा गया है। इस पर हांगकांग के लिंगनान विश्वविद्यालय के प्रोफैसर ज़ांग बाओ का कहना है कि “प्रतिष्ठा में आई कमी चीन के लिए बहुत बड़ी समस्या है। शी चाहते थे कि सब यह समझे कि चीन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में जरूरी फैक्टर है। लेकिन अचानक चीन अब प्रासंगिक नहीं रहा”
अमेरिका से सताए हुए और उत्तरी कोरिया से ठुकराए हुए चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अतीत की कड़वाहट को एक तरफ रखते हुए भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। बीजिंग के सिंघना विश्वविद्यालय के रिसर्चर क्वान छैंग ने लिखा है कि “अमेरिका के साथ चल रहे ट्रेड युद्ध ने चीन को भारत की तरफ समझदारी वाला रवैया अपनाने को मजबूर किया है।“ चीन को भारत तथा अमेरिका की नजदीकी भी पसंद नहीं है। विशेष तौर पर चार शक्तियों, अमेरिका, भारत, जापान तथा आस्ट्रेलिया का गठबंधन ‘क्वैड’, चाहे वह बहुत प्रभावी नहीं, चीन को चुभ रहा था। शी कोशिश कर रहे हैं कि भारत अमेरिका के प्रभाव क्षेत्र से बाहर निकल आए।
अभी तक तो वह दोनों देशों के बीच जो असमानता है उसके बारे हमें बताते नहीं थकते थे। हमें बताया गया कि उनकी अर्थ व्यवस्था हमसे पांच गुना है और रक्षा बजट तीन गुना से अधिक है। अब अचानक हमें ‘‘सद्भावना’ के बारे बताया जा रहा है जबकि चीन का इतिहास साक्षी है कि वह ‘सद्भावना’ को लेकर कुछ नहीं करते वह तो केवल राष्ट्रहित आगे रखते हैं। इसलिए हमें किसी गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि शी को भारत की चिंता है। वह ट्रम्प तथा किम द्वारा दिए गए झटकों से उभरना चाहते हैं और अपने देश के लोगों को बताना चाहते हैं कि वह अभी भी प्रासंगिक हैं।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था है। व्यापार में अमेरिका से मिले धक्के की भरपाई शी भारत से करना चाहेंगे। उन्हें हमारा बाजार चाहिए। चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साथी भी है। पिछले साल दोनों के बीच व्यापार 84 अरब डालर का था लेकिन यह भी चीन की तरफ झुका हुआ है। हमें 50 अरब डालर का इस व्यापार में घाटा है। 2014 में शी ने पांच वर्षों में भारत में 20 अरब डालर का निवेश करने की घोषणा की थी। उस में से एक चौथाई भी नहीं आया।
जहां तक भारत के प्रधानमंत्री मोदी का सवाल है, यह शिखर वार्ता उनकी ‘निजी कूटनीति’ की कामयाबी है। भारत की प्रगति के लिए चीन के साथ बेहतर संबंध चाहिए। हमें भी चीन का बाजार चाहिए जो पूरी तरह से वह खोलने को तैयार नहीं। मोदी यह भी जानते हैं कि सनकी डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिका पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता। इसीलिए मोदी चीन गए और भारत रुस से 400 मिसाईल सिस्टम खरीदने जा रहा है। और चुनावी वर्ष में ऐसे शिखर सम्मेलन तथा अच्छे संबंधों का नुकसान नहीं होता। एक बार फिर नरेन्द्र मोदी की अंतर्राष्ट्रीय स्टेटसमैन की छवि चमकने लगी है।
लेकिन आगे बहुत सी बाधाएं भी हैं। बड़ी समस्या 3488 किलोमीटर सीमा है जहां 2016 में हुए 273 अतिक्रमण की तुलना में 2017 में 426 अतिक्रमण हुए थे। चीन के साथ सीमा विवाद के बारे पूर्व विदेशमंत्री नटवर सिंह का कहना है कि वह समझतें हैं कि इस समस्या का कोई समाधान नहीं है। दोनों में से कोई भी पीछे नहीं हट सकता। चीन ने रूस के साथ अपना सीमा विवाद खत्म कर लिया है लेकिन कई दौर के बावजूद भारत के साथ यह लटकता छोड़ दिया गया है ताकि जब चाहे तनाव खड़ा किया जा सके। चीन द्वारा पाक स्थित आतंकवादियों का विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बचाव करना भी अविश्वास पैदा कर रहा है। न ही चीन हमें एनएसजी का सदस्य ही बनने दे रहा है।
चीन जानता है कि भारत के हाथ में भी कुछ तुरुप पत्ते हैं। एक तिब्बत है। इस वक्त जरूर चीन को खुश करने के लिए दलाईलामा की पृष्ठभूमि में डाल दिया गया है लेकिन चीन जानता है कि सबसे अधिक विस्थापित तिब्बती भारत में रहते हैं और यह सब चीन से नफरत करते हैं। दलाईलामा का रवैया भी कुछ लचीला हुआ है। कभी वह तिब्बत के लिए आजादी की बात करते थे अब अटानिमी अर्थात स्वायतता की मांग कर रहे हैं।
चीन की बड़ी शिकायत है कि ऐशिया में जिनपिंग द्वारा शुरू किए गए OBOR अर्थात आर्थिक गलियारे का भारत विरोध कर रहा है। चीन ने इस गलियारे पर बहुत निवेश किया है और उन्हें घबराहट है कि भारत इस सारी योजना को अस्थिर कर सकता है।
आपसी अविश्वास दोनों तरफ है इसलिए दोनों नेताओं ने अपने-अपने कमांडरों से कहना शुरू कर दिया है कि वह शांत हो जाएं। देखना होगा कि यह अच्छा माहौल कब तक चलता है? यह भी उल्लेखनीय है कि इस हाई प्रोफाईल मुलाकात से एक भी मसला सुलझा नहीं। बातचीत अच्छी हुई लेकिन टकराव भविष्य में फिर भडक़ सकता है। न्यूयार्क स्थिति यूरोऐशिया गु्रप के एशिया डायरैक्टर शलेश कुमार का सही कहना है कि “अविश्वास बहुत ऊंचा है और तनाव रहेगा विशेष तौर पर चीन की पाकिस्तान में आर्थिक दखल जिसे भारत आर्थिक कम और रणनीतिकारक अधिक समझता है, भारत को चोट पहुंचा सकती है।“ चीन फिर अप्रत्याशित कदम उठा सकता है इसलिए हमारा प्रयास होना चाहिए कि चीन और हमारे बीच जो फासला है वह कम से कम रह जाए। विशेष तौर पर सीमा पर पूरी तैयारी होनी चाहिए, जैसी अब हो भी रही है।
इस नए माहौल को देख कर पाकिस्तान को गश पड़ रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से लेकर पाक मीडिया विलाप कर रहे हैं कि “सभी मौसम के दोस्त” तथा “ इस्पाती भाई” चीन ने उनके दुश्मन भारत के साथ हाथ मिला लिया है। दी डॉन अखबार में खुरर्म हुसैन ने लिखा है तथा चीन के बीच महत्वपूर्ण बदलाव हो रहा है… संबंधों में गर्माहट का पाकिस्तान के लिए गहरा फंसाव है।“ इस अखबार के दुखी पाठक भी संपादक के नाम पत्र में लिख रहे हैं कि “हम मुसीबत में हैं”, “हमारा नकली दोस्त चीन “ , “चीन पाकिस्तान की फौलादी दोस्ती किधर गई?”
कोई इन्हें ‘बाजार का दस्तूर’ समझाएं कि “बिक गया जो वह खरीददार नहीं हो सकता!” 1961 में यह बात कैफी आज़मी साहिब ने अच्छी तरह से समझा दी थी।
मुलाकात हुई क्या बात हुई (The Wuhan Meeting),