पिछले कुछ दिन भाजपा के लिए बुरे रहे। पहली बार यह प्रभाव मिला कि नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की सेना रोकी जा सकती है। इसीलिए विपक्ष के नेता उत्साही हैं और विशेष तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के चेहरे पर मुस्कराहट नजर आ रही है। जो हुआ इसमें यह सब भूल गए कि दक्षिण भारत में अपने अंतिम किले में कांग्रेस की सीटें 122 से कम होकर 78 रह गई पर सारा ध्यान कर्नाटक के राज्यपाल द्वारा जिस तरह येदियुरप्पा को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया और उसके बाद जो घपला हुआ उसकी तरफ चला गया। वर्षों के आलस के बाद कांग्रेस ने अच्छा खेल खेला है चाहे देखने की बात है कि जद (स) और कांग्रेस का गठबंधन कितना स्थाई रहता है? न केवल विभागों को लेकर ले-दे होगी बल्कि क्षेत्र, समुदाय तथा जाति के समीकरणों का भी ध्यान देना होगा।
यह पहली बार है जब मोदी की छवि को ऐसा झटका पहुंचा है। यह प्रभाव फैल गया है कि वह अजय नहीं हैं। बेहतर होता है कि पहले दिन ही भाजपा सरकार बनाने से इंकार कर देती और बाकी दोनों पार्टियों को सरकार बनाने देती और खुद तमाशा देखती लेकिन संयम शायद अमित शाह के शब्दकोष में नहीं है। बेल्लारी बंधुओं जैसे लोगों को साथ लेकर भाजपा ने स्पष्ट तौर पर अनुचित समझौता किया।
लेकिन इसके बावजूद भाजपा की वर्तमान दुर्गति पर जो लड्डू बांट रहे हैं उन्हें कर्नाटक के चुनाव परिणाम के यह तथ्य देखने चाहिए,
(1) कर्नाटक विधानसभा चुनाव का अगर कोई विजेता है तो भाजपा है क्योंकि वह सबसे बड़ी पार्टी है।
(2) इस चुनाव में सबसे अधिक धक्का कांग्रेस पार्टी को लगा है क्योंकि लोगों ने स्पष्ट कर दिया कि वह कांग्रेस को हराना चाहते थे। दोनों भाजपा तथा जद (स) ने कांग्रेस शासन के खिलाफ मत मांगा था। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया एक चुनाव क्षेत्र से, और उनके डेढ़ दर्जन मंत्री हार गए।
लेकिन विश्वासमत प्राप्त करने के लिए भाजपा ने जो घपला किया उससे इन दो तथ्यों से ध्यान हट गया। शोर मचाया गया कि डैमोक्रेसी का मर्डर किया जा रहा है। हार्स-ट्रेडिंग हो रही है अर्थात घोड़ों की खरीद-फरोख्त हो रही है। जब येदियुरप्पा ने इस्तीफा दिया तो इसे च्लोकतंत्र की विजयज् बताया गया। कहा गया कि ‘मोदी लहर खत्म हो गई’ जबकि भाजपा की सीटें 40 से 104 हुई और मत प्रतिशित 20 से बढ़कर 36 हो गया। हकीकत यह है कि लोकतंत्र का कोई मर्डर-शर्डर नहीं हुआ। अगर वास्तव में ऐसा होता तो कुमारा स्वामी मुख्यमंत्री कभी न बनते।
सबसे अधिक विलाप कांग्रेस पार्टी ने किया था। काश, राहुल गांधी अपने परिवार तथा अपनी पार्टी के इतिहास को याद करते। अतीत में कांग्रेस पार्टी विपक्षी पार्टियों को सत्ता में आने से रोकती रही, निर्वाचित सरकारों को गिराती रही और धारा 356 का ठोक कर गलत इस्तेमाल कर विधानसभाओं को भंग करती रही।
मेरे पास सही आंकड़े तो नहीं पर कांग्रेस 50 बार से अधिक धारा 356 का गलत इस्तेमाल कर चुकी है। आखिर में सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा। 1957 में ही जवाहर लाल नेहरू ने सीपीआई की केरल सरकार को संवैधानिक मशीनरी ध्वस्त होने के बहाने सत्ता से हटा कर विधानसभा भंग कर दी थी। इसके बाद यह सिलसिला चलता रहा।
1982 में हरियाणा के राज्यपाल तपासे ने चौधरी देवी लाल को सत्ता में आने से रोकते हुए भजन लाल को जबरदस्ती मुख्यमंत्री बना दिया। बाद में राज्यपाल को थप्पड़ जड़ चौधरी साहिब ने अपना गुस्सा शांत किया। इंदिरा गांधी के समय विशेष तौर पर धारा 356 का दुरुपयोग हुआ। रामलाल, तपासे, रोमेश भंडारी जैसे गवर्नर कुख्यात रहे। रोमेश भंडारी ने उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर जगदम्बिका पाल को मुख्यमंत्री बना दिया। वह एक दिन मुख्यमंत्री रहे और हाईकोर्ट ने गवर्नर की तीखी आलोचना की। एमरजैंसी तो वैसे ही देश के इतिहास का सबसे काला अध्याय था।
जो आज लोकतंत्र की दुहाई दे रहे हैं वह इस बात को लेकर क्यों खामोश हैं कि दोनों कांग्रेस तथा जेडीएस ने अपने-अपने विधायकों को पांच तारा होटलों में बंद रखा। गरीबों की डैमोक्रेसी को बचाने में पांच तारा होटलों का बड़ा योगदान रहा! घोड़ों पर होटल में ताला लगा हुआ था कि कहीं भाग न जाएं। बताया गया कि इन सब विधायकों को संभालने का दैनिक बिल 15 लाख रुपए था। यह कैसी लोकतंत्र की जीत है कि जनप्रतिनिधि पांच तारा होटलों में बंद है जहां वह बाडीगार्ड तथा बाऊंसरों से घिरे हुए थे और मोबाईल पर बात करने की भी इजाजत नहीं थी?
बहुत कहा गया कि इन ‘घोड़ों‘ को शिकार होने से बचाने के लिए भेड़ों की तरह इन्हें हांकना पड़ा लेकिन यह कैसे जनप्रतिनिधि हैं जो इस तरह बिकने को तैयार हैं? अगर यह लोकतंत्र का मर्डर नहीं तो और क्या है?
कांग्रेस पार्टी ने चुनाव जीतने के लिए लिंगायत का मुद्दा उठा कर हिन्दुओं को बांटने का प्रयास किया। अंग्रेजों की वही पुरानी नीति कि विभाजित करो और शासन करो। एक तरफ राहुल मंदिर-मंदिर और मठ-मठ जा रहे थे तो दूसरी तरफ उनके मुख्यमंत्री कर्नाटक से हिन्दी का नामोनिशा मिटाने का आदेश दे रहे थे, अलग झंडे के मामले को तूल दे रहे थे।
सिद्दारमैया ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर मैट्रो में हिन्दी का एक भी शब्द लिखा मिला तो बर्दाश्त नहीं होगा। पर लोगों ने बता दिया कि उनकी ही कांग्रेस के प्रति बर्दाश्त खत्म हो चुकी थी।
यशवंत सिन्हा का कहना है कि उन्हें खुशी है कि उन्होंने वह पार्टी छोड़ दी जो कर्नाटक में लोकतंत्र का विनाश कर रही है। यह वही यशवंत सिन्हा हैं जो चंद्रशेखर की अल्पमत सरकार के वित्तमंत्री थे जिसे सूटकेस सरकार के नाम से जाना जाता था। एचडी देवेगौडा भी अवसरवादी और अनैतिक अल्पमत सरकार के प्रधानमंत्री थे जो टिक नहीं सकी। दोनों की सरकारों को कांग्रेस ने गिरा दिया था। हैरानी नहीं होगी कि कुमारास्वामी का भी वही हश्र हो जो पापाजी का हुआ था।
अर्थात इस हमाम मे सब नंगे हैं और कोई भी संत नहीं। हर राजनीतिक पार्टी ने अपने हित के लिए अनैतिक तथा अवसरवादी समझौते किए हैं। बार-बार खुल कर पैसे का इस्तेमाल हुआ। कर्नाटक के राज्यपाल ने तो विश्वासमत हासिल करने के लिए 15 दिन दिए थे, तापसे ने तो भजनलाल को पूरा महीना दे दिया था। और अगर लोकतंत्र वास्तव में खतरे में होता तो आधी रात को सुप्रीम कोर्ट कांग्रेस की बात सुनने के लिए अपने किवाड़ न खोलता। यह वही सुप्रीम कोर्ट है जिसके मुखिए पर कांग्रेस के लोग कुछ दिन पहले तक महाभियोग चलाना चाहते थे। हमारी तुलना पाकिस्तान की न्यायपालिका से हो रही थी। अब कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने लोकतंत्र को बचा लिया।
बहरहाल, कर्नाटक चुनाव का धारावाहिक जारी है। एक अस्थिर गठबंधन कायम हो गया जिसकी दोनों पार्टियां कुछ समय पहले तक एक-दूसरे से नफरत करती रही हैं लेकिन भाजपा के लिए भी एक असुखद संदेश है। जिस तरह कर्नाटक में जद (स) तथा कांग्रेस के इकट्ठे आने से वहां सरकार बन गई है उसके बाद सभी सूबेदार सक्रिय हो गए हैं। यह बात समझ आ गई है कि इकट्ठे आकर भाजपा को हराया जा सकता है कि भाजपा की रणनीति की भी सीमा है। एक दृढ़, संयुक्त और प्रेरित विपक्ष भाजपा के नाक में दम कर सकती है।
कर्नाटक में भाजपा ने भी उसी तरह के हथकंडे इस्तेमाल किए जैसे पहले कांग्रेस करती रही थी। भाजपा वह बन गई थी जिसकी वह आलोचना करती थी। लेकिन यह राजनीति है धर्मनीति नहीं। जो कहते हैं कि वह लोकतंत्र या सैक्यूलरिज्म के लिए लड़ रहे हैं वह सब पाखंडी हैं। कोई सिद्धांत के लिए नहीं लड़ता सब अपने-अपने हित के लिए लड़ते हैं। सफेद कपड़ों वाले घोड़ों के सौदे पहले भी हुए आगे भी होंगे।
जिस तरह कर्नाटक में भाजपा ने अपनी सरकार बनाने का प्रयास किया वैसा पहले कई बार किया जा चुका है। यह कोई नई बात नहीं। हम तो कह सकते हैं कि,
मेरे वतन की सियासत का हाल मत पूछिए
घिरी हुई है तवायफ तमाशाईयों में!
मर्डर-शर्डर और घोड़ों के सौदे (Of Murders and Horse Trading),