
पिछले कुछ महीने मोदी सरकार तथा भाजपा के लिए अच्छे नहीं रहे। गोरखपुर तथा फूलपुर के बाद उत्तर प्रदेश में कैराना तथा नूरपुर की सीटें भाजपा द्वारा हारना बताता है कि पार्टी तेजी से ज़मीन खो रही है और इस बात की संभावना नहीं कि 2019 में भाजपा 2014 दोहरा सकेगी। अब तक के 27 संसदीय उप चुनावों में से भाजपा केवल 5 जीत सकी है और उसने 8 खो डालें है। इनमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी तथा उप मुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्या की भी सीटें हैं और उत्तर प्रदेश वह प्रदेश है जिसने 2014 में भाजपा को 71 सीटें दी थी।
मोदी ब्रैंड जिसने देश को चकाचौंध कर दिया था अब फीका पड़ रहा है। ठीक है कैराना भारत नहीं, पर 2019 भी 2014 नहीं होगा। फिर धु्रवीकरण का प्रयास किया गया लेकिन मुज्जफरनगर के दंगों को भुला कर जाट और मुसलमानों ने मिल भाजपा को शिकस्त दे दी और उस पार्टी की मुस्लिम महिला उम्मीदवार को विजयी बनवा दिया जिसका वजूद ही खत्म समझा जाता था। उल्लेखनीय है कि 2014 तथा 2017 दोनों चुनावों में राष्ट्रीय लोक दल मटियामेट हो गया था। 2014 में दोनों पिता-पुत्र अजीत सिंह तथा जयंत चौधरी भाजपा के हाथों हार गए थे।
राजनाथ सिंह का कहना है कि लम्बी छलांग लगाने के लिए दो कदम पीछे हटना पड़ता है लेकिन अगर देखा जाए कि 28 मई को हुए 11 विधानसभा चुनावों में भाजपा को केवल एक सीट उत्तराखंड से मिली है तो पता लगता है कि अभी तो भाजपा पीछे ही हटती जा रही है। आगे छलांग लगाना तो दूर की बात लगती है।
क्या हुआ? भाजपा इतने संकट में क्यों नजर आती है? शायर की यह पंक्तियां याद आती है,
ज़माना बेअदब है, बेवफा है, बेसलीका है
मगर उलफत में हमने भी तो कुछ नादानियां की हैं
सबसे बड़ी कमज़ोरी वादे पूरे न करने की है। भाजपा 2014 में विकास+हिन्दुत्व के बल पर जीती थी। अगर पार्टी 2019 हारती है तो यह पर्याप्त विकास न होने के कारण होगा। हिन्दुत्व का प्रभाव नहीं रहा क्योंकि धारणा बन गई कि पार्टी इसका केवल चुनावी इस्तेमाल करती है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में जिन्नाह की तस्वीर का मुद्दा उछाल दिया गया। क्या समझा गया कि लोग इतने बेअकल हैं कि 70 वर्ष से अधिक पुरानी तस्वीर को लेकर उत्तेजित हो जाएंगे? अब फिर एक भाजपा नेता ने विपक्ष की तुलना हाफिज सईद से कर दी तो गिरिराज सिंह ने विपक्ष को ‘ओसामावादी’ घोषित कर दिया। अपने राजनीतिक विरोधियों की तुलना देश विरोधियों से करना लोकतंत्र में बिलकुल जायज नहीं कहा जा सकता। और एक महापुरुष ने कह दिया कि सीता माता टैस्ट ट्यूब बेबी थी।
इन वाहियात बातों से इन्हें मिलता क्या है? असली मामला विकास है। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने देश को बदलने का प्रयास किया है लेकिन इसके फल नीचे तक नहीं पहुंचे। सुंदर आंकड़ों से वोट नहीं मिलते। भारी टैक्स और भारी खर्च के मॉडल से लोग संतुष्ट नहीं हैं। कृषि का गंभीर संकट, नौकरियों में पर्याप्त इजाफा न होना और उपर से डीज़ल तथा पट्रौल की कीमत में बेहताशा वृद्धि भाजपा को ले बैठी है। मिडल क्लास जो कभी मोदी की दीवानी थी, नाराज़ है जो बैंगलूरू शहर के परिणामों से भी पता चलता है। सरकार तथा मंत्री चाहे नोटबंदी को एक चमत्कार कहे पर इसने अर्थ व्यवस्था की पीठ तोड़ दी। हम अभी तक नहीं उभर सके। बिसनेस में मंदी है और लोगों की नौकरियां जा रही हैं और मंत्री कह रहे हैं कि विपक्ष ओसामावादी है! पाकिस्तान के साथ टकराव में दर्जनों सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं। वह बलशाली विदेशी नीति कहां है?
एक मंत्री का कहना था कि जन कल्याण के लिए भारी टैक्स जरूरी है। यह कल्याण होगा या नहीं होगा कहा नहीं जा सकता, लेकिन अनुभव यही है कि सबसिडी से विकास नहीं होता। उपर से मोदी तथा शाह की आक्रामक राजनीतिक शैली के कारण विपक्ष एकजुट हो रहा है। इन्हीं के कारण बसपा-सपा जैसे दुश्मन एक साथ आ गए हैं। समझ लिया गया कि अगर 2019 में भाजपा का मुकाबला करना है तो सब को एक साथ आना होगा, जैसे ममता बैनर्जी ने भी कहा है कि लड़ाई वन-टू-वन बनानी होगी। यही कारण है कि अपना अहम निगलते हुए कांग्रेस ने कर्नाटक में कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनवा दिया और अब मध्यप्रदेश में बसपा के साथ गठबंधन की पेशकश की है। और अगर विपक्ष एकजुट हो जाता है तो भाजपा हार सकती है। आंकड़े यही कहते हैं।
इस तैयार हो रहे महागठबंधन की काट भाजपा को निकालनी होगी। लोगों ने स्पष्ट कर दिया कि वह ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत नहीं चाहते। सरकारी अहंकार से बचने के लिए देश की राजनीति तथा लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका होनी चाहिए। अल्पसंख्यक पार्टी से दूर चले गए और दलित आंतकित हैं।
भाजपा के लिए यह भी समस्या है कि राजग के सहयोगी बेचैन हो रहे हैं। चंद्र बाबू नायडू पहले छोड़ चुके हैं। शिवसेना विपक्ष की भूमिका निभा रही है। जद (यू) के के.सी. त्यागी ने कहा है कि उन्हें आशा है कि अमित शाह गठबंधन साथियों के साथ तालमेल बैठाने का बेहतर प्रयास करेंगे। अगर भाजपा लगातार चुनाव जीतती रहती तो यह आवाजें खामोश रहती लेकिन आज बेचैनी है जिस पर कराची के शायर परवीन शाकिर के यह शब्द याद आ जाते हैं,
बस्ती में जितने अब गजीदा थे सब के सब
दरया का रुख बदलते ही तैराक हो गए
अर्थात बस्ती में जो भी पानी से घबराते थे नदी की दिशा बदलते ही तैराक बन गए।
पर क्या दरया का बदलता हुआ रुख स्थाई रहेगा? योगेन्द्र यादव जिन्हें भाजपा का मित्र नहीं कहा जा सकता ने ‘भाजपा विरोधी एकता के खतरे’ लेख में लिखा है, “एक फटा-पुराना भाजपा विरोधी गठबंधन उस बड़े विचार का विकल्प नहीं हो सकता जिसका प्रतिनिधित्व मोदी कर रहे हैं।“ यह विपक्ष की सबसे बड़ी कमजोरी है और भाजपा की सबसे बड़ी ताकत। भाजपा के पास नरेन्द्र मोदी में एक नेता है जिसे पार्टी स्वीकार करती है और जो अभी भी बाकियों से अधिक लोकप्रिय हैं। मार खाने के बावजूद कैराना में भाजपा को 4.36 लाख मत मिले हैं। राष्ट्रीय लोक दल से अंतर बहुत विशाल नहीं था।
और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस का तो वहां नामोनिशां ही नहीं रहा। फिर विपक्ष एकता का सूत्रधार कौन होगा? और देश के आगे वह क्या प्रोग्राम रखेगा? जिस तरह हिन्दुत्व का मुद्दा अपनी चमक खो बैठा है उसी तरह सैक्यूलरिज़्म कोई मुद्दा नहीं रहा। अगला चुनाव मोदी प्रैसीडैंशल बनाएंगे। उनके मुकाबले कौन चेहरा होगा? राहुल गांधी को कई प्रादेशिक नेता स्वीकार नहीं करते। पश्चिम बंगाल में खूनी चुनाव देने के बाद ममता बैनर्जी की छवि और खराब हो चुकी है। अखिलेश यादव कहते हैं कि मुलायम सिंह यादव भी उम्मीदवार हो सकते हैं। मुकाबला नरेन्द्र मोदी से होगा जो प्रदर्शित कर चुके हैं कि वह सबसे तेज और चुस्त तैराक हैं।
पहले से ही कांग्रेस-जद (स) गठबंधन कांप रहा है। मुख्यमंत्री कुमारस्वामी कह ही चुके हैं कि वह ‘कांग्रेस की दया पर है’। और बहिन जी की भी तो महत्वाकांक्षी है। वह अचानक प्रासंगिक बन गई हैं। कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में मायावती तथा सोनिया गांधी के बीच जप्फी और खुशमिज़ाजी सबने देखी है। सर तो जुड़े थे पर क्या दिल भी जुड़े हैं? सोनिया को मायावती की बड़ी जरूरत है पर याद रखना चाहिए कि मायावती की राजनीति केवल अपने हित के लिए होती है वह किसी और पर मेहरबानी नहीं करती। अर्थात विपक्ष में अभी बहुत अस्पष्टता है और वह लोगों का विश्वास नहीं जीत सके। सोनिया गांधी तथा मायावती दोनों को बैंगलूरू के राजनीतिक मंच पर इकट्ठे देख किसी ने सोशल मीडिया पर यह डाला है,
लग जा गले कि फिर यह हसीन सुबह हो न हो,
शायद अगले चुनाव में मुलाकात हो न हो!
जब दरिया रुख बदलता है (When River Changes Course),