हिटलर तथा उसके नाज़ियों के अत्याचार तथा उसके सामने जर्मन बुद्धिजीवियों के कायर समर्पण के बारे जर्मन पादरी मार्टिन नीमओलर ने बाद में लिखा था, पहले वह सोशलिस्ट के लिए आए, मैं नहीं बोला क्योंकि मैं सोशलिस्ट नहीं था। फिर वह ट्रेड यूनीयनिस्ट के लिए आए पर मैं नहीं बोला क्योंकि मैं ट्रेड यूनियनिस्ट नहीं था। फिर वह यहूदियों के लिए आए और मैं नहीं बोला क्योंकि मैं यहूदी नहीं था। फिर वह मेरे लिए आए, पर मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं बचा था।
यह पंक्तियां एक सूझवान जर्मन की हताशा व्यक्त करती है कि अगर शुरू में हिटलर को रोका जाता तो इतना विनाश न होता और न ही जर्मनी तबाह होता। लेकिन उस वक्त जिसे अब्राहिम लिंकन ने अत्याचार के सामने ‘खामोशी का पाप’ कहा था, के कारण जर्मनी तथा दुनिया ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी।
ऐसी ही ‘खामोशी का पाप’ की बड़ी कीमत कश्मीर के लोग चुका रहे हैं। सरकार द्वारा घोषित संघर्ष विराम फेल हो चुका है। एक और सरकार का पतन हो चुका है। प्रमुख सम्पादक शुजात बुखारी की हत्या हो चुकी है। ईद पर घर आए सेना के जवान औरगंजेब को अगवा कर मार डाला गया है जैसे पहले लै. उमर फयाज को मारा गया था। चारों तरफ निराशा का माहौल है कि जैसे वह आतंकवादियों (इन्हें मिलिटैंट नहीं कहा जाना चाहिए) के कैदी बन चुके हैं। सामान्य शांतमय जीवन जिसकी हसरत सबको होती है वह उनसे दूर जा चुका है। आईएस अधिकारी शाह फैज़ल जो आईएएस टॉप करने वाले पहले कश्मीरी है ने टिवीट किया है,”मुझे आभास है कि कश्मीर में जिंदगी खत्म हो चुकी है। हम अब केवल जनाजा उठाने वाली सुन्न भीड़ है जो घर-घर जा रही है, कब्रीस्तान से कब्रीस्तान जा रही है। हम सब अपनी मौत की इंतजार में हैं।“
इस मार्मिक टिप्पणी में एक संवेदनशील इंसान की हताशा झलक रही है कि वह ऐसी परिस्थितियों में फंस चुके हैं जिनसे निकलने का कोई रास्ता नहीं। कश्मीरी हिंसा और नफरत की अंधी गली में फंस चुके है जहां जब तक उसका लडक़ा घर नहीं लौटता हर मां चिंतित रहती है।
शुजात बुखारी को क्यों मारा गया? इसलिए कि वह कश्मीर समस्या का सर्वमान्य समाधान चाहते थे। वह शांतमय और स्थिर कश्मीर चाहते थे और वह अपनी राय बेबाक रखते थे। कश्मीर में जो भी खुली सोच होगी उसे खामोश कर दिया जाएगा। हैरानी नहीं कि हुर्रियत के नेता सही बात करने से कांपते हैं। मौलवी उमर फारुख और शबनम लोन जैसे लोग जिनके वालिद मीरवायज़ मौलवी फारुख तथा अब्दुल गनी लोन आतंकवादियों ने मार डाले थे, भी उनकी खुली आलोचना से परहेज करते हैं क्योंकि गोली का डर है। प्रैस की हालत यह है कि जो आजाद और समझदारी की बात करते हैं उन्हें आतंकवादियों के प्रचंड क्रोध का सामना करना पड़ा है। कई पत्रकार मारे जा चुके हैं, कई अपहरण कर पिटाई बाद लौटाए गए हैं, कई अखबारों के दफ्तर जलाए जा चुके हैं।
लेकिन कोई नहीं बोला। जब शोपियां में स्कूल बस पर पत्थर पड़े तब भी कोई नहीं बोला। जब पथराव के कारण चेन्नई से पर्यंटक थिरुमन्नी की जान चली गई तब भी किसी ने निंदा नहीं की। केवल जब सीआरपीएफ की जीप के नीचे आकर एक व्यक्ति मारा गया तो सब की जुबान खुल गई पर किसी ने जीप पर हुए हमले की निंदा नहीं की। इतनी जुर्रत कश्मीरी नेताओं और बुद्धिजीवियों में नहीं है। केवल मारे जाने वाले व्यक्ति के एक रिश्तेदार ने इन कथित नेताओं की खूब क्लास ली कि आपके बच्चे क्यों बाहर हैं और हमारे क्यों मारे जा रहे हैं? औरगंजेब के बहादुर पिता जिन्होंने कहा है कि मेरा बेटा तो मारा गया पर देश की हिफाजत के लिए और बच्चों को सेना में भर्ती होना चाहिए, ने भी आरोप लगाया है कि कश्मीरी नेता दूसरों के लडक़ों को मरवा रहें हैं।
शुजात बुखारी के जनाज़े में हजारों लोगों का शामिल होना बताता है कि लोग इस आजाद पत्रकार की हत्या से कितने दुखी हैं। लेकिन लाचार है। असहाय है। वह हिंसा और उग्रवाद के कुचक्र में बुरी तरह फंस चुके हैं। असंख्य पढ़े-लिखे युवक-युवतियां कश्मीर से बाहर निकलने के मौके की तलाश में है पर अफसोस है कि आतंकवादियों की करतूतों के कारण इन्हें बाकी देश में अविश्वास से देखा जाता है।
कश्मीर में हिंसा का यह कुचक्र कैसे रुकेगा?
यह तब रुकेगा जब कश्मीरी खुद इसके खिलाफ उठ खड़े होंगे। अपनी खामोशी की कीमत उन्होंने बहुत चुकाई है।
अत्याचार के सामने खामोशी का सबसे बड़ा पाप उन्होंने 1989-90 में किया था जब कश्मीरी पंडितों को वहां से जबरदस्ती निकलने पर मजबूर किया गया। विशेष तौर पर 19 जनवरी 1990 की रात वह थी जिसके बारे कहा जा सकता है कि इसकी सुबह नहीं थी। रातोंरात कश्मीरी पंडितों के 60,000 परिवार अपना घर-बार, बिसनेस, बाग, फार्म छोडऩे पर मजबूर हुए थे। कर्नल तेज कुमार टिक्कू ने कश्मीर पर अपनी किताब में लिखा है, “जैसे-जैसे रात बढ़ती गई यह छोटा समुदाय और आतंकित होता गया… अपने वफादारों को आह्वान किया गया कि काफिरों को धक्का लगाओ ताकि सच्ची इस्लामिक व्यवस्था कायम की जा सके। हजारों कश्मीरी मुसलमान कश्मीर वादी की सडक़ों पर उतर आए। “
पत्रकार राहुल पंडिता लिखते हैं, “वादी की मस्जिदों में भारी भीड़ इकट्ठी हो गई। वह भारत विरोधी तथा पंडित विरोधी नारे लगा रहे थे। अगले कुछ महीनों में हजारों कश्मीरी पंडितों को टार्चर किया जाएगा, हत्याएं की जाएंगी और बलात्कार किए जाएंगे। “ राहुल पंडिता की किताब का शीर्षक है, ‘हमारे चांद पर खून के धब्बे हैं।‘
यह हकीकत है कि उस वक्त कश्मीर की असंख्य मस्जिदों से यह घोषणा की गई कि कश्मीरी पंडित काफिर हैं उन्हें बाहर निकालो। उनके सामने तीन विकल्प रखे गए (1) कश्मीर छोड़ जाएं (2) मुसलमान बन जाएं या (3) मारे जाएं। खुलेआम कहा गया कि अगर यहां रहना है तो अल्लाह-ओ-अकबर कहना पड़ेगा। लेकिन यह शर्तें मर्दों के लिए थी, औरतों के बारे घोषणा की गई कि उन्हें यहां ही छोड़ दिया जाए।
हजारों कश्मीरी पंडित अपना वतन छोड़ गए। उनका अपराध केवल यह था कि वह देश भक्त हैं। जिन्होंने कश्मीरी पंडितों की त्रासदी जाननी है उन्हें अनुपम खेर का वीडियो देखना चाहिए जहां उन्होंने इस बात पर अपनी पीड़ा व्यक्त की है कि देश भक्त होने तथा “भारतीयता की भावना की सच्चे मन से आदर करने” की उनके समुदाय को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।
लेकिन कश्मीर में एक आवाज इस नस्ली अत्याचार के खिलाफ नहीं उठी। इसके लिए एक व्यक्ति को सजा नहीं दी गई। अपने देश में अपने लोगों को शरणार्थी बनवा कर हम भी एक तरफ बैठ गए। आज तक कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास नहीं हो सका। नई दिल्ली तथा श्रीनगर दोनों में जब भाजपा की सरकार थी वह भी कुछ नहीं कर सकी। अब गवर्नर शासन से भी अधिक कुछ नहीं बदलेगा।
कश्मीरी मुसलमानों के रवैये पर रॉ के पूर्व प्रमुख ए.एस. दुल्लत ने अपनी किताब में लिखा है, “फारुख अब्दुल्ला ने मुझे बताया था कि कश्मीरियों ने कश्मीर तथा कश्मीरियत के साथ धक्का किया क्योंकि वह 1989-90 में पंडितों का पलायन रोक नहीं सके। कश्मीरी ढोंगी हैं। यासीन मलिक तथा हुर्रियत कांफ्रेंस की तरह वह अनर्थक बातें बोलते रहते हैं कि किस तरह वह अपने पड़ोसियों के बिना अधूरे हैं और वह चाहते हैं कि वह आ वापिस जाए… लेकिन कश्मीरियों में यह असुरक्षा है जिसे वह व्यक्त नहीं करते कि दिल्ली उन्हें अपने होमलैंड में अल्पसंख्यक बनाना चाहती है।“
इसी भावना की भेंट कश्मीरी पंडित चढ़ गए। प्रयास एक इस्लामिक स्टेट बनाना था लेकिन अब स्थिति हाथ से निकल गई है। उनके चांद पर खून के धब्बे और पक्के हो गए। जो दानव उस वक्त खड़ा किया गया वह अब अपनी औलाद को ही निगल रहा है। हिंसा खुद का पोषण कर रही है। पाकिस्तान की साजिश के कश्मीरी अब शिकार हैं। तीन दशक पहले कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार पर जो खामोश रहे अब जरूर समझ रहे होंगे कि हिटलर की जर्मनी की तरह वह भी इस समर्पण की आज बहुत बड़ी कीमत चुका रहे हैं।
जो खामोश रहे तब (Those Who Remained Silent Then),