पहला कदम ही गलत पड़ा था। मार्च 2015 में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति में शपथ ग्रहण के तत्काल बाद नव निर्वाचित मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद ने सहयोगी भाजपा की भावनाओं की परवाह किए बिना जम्मू-कश्मीर के शांतमय चुनाव का श्रेय आतंकवादियों, अलगाववादियों तथा ‘उस पार के लोगों’ अर्थात पाकिस्तान को दे डाला।
ऐसा कर मुफ्ती ने अपना इरादा तथा झुकाव स्पष्ट कर दिया लेकिन इस हिमाकत को भाजपा का नेतृत्व चुपचाप बर्दाश्त कर गया। आखिर उस वक्त अपनी टोपी में नए-नए पंख लगाने की दौड़ थी नहीं तो उसी मौके पर भाजपा के मंत्रियों को शपथ लेने से इंकार कर देना चाहिए था। दिलचस्प है कि मुफ्ती मुहम्मद सईद की पीडीपी में जिन लोगों ने भाजपा के साथ गठबंधन कर तीखा विरोध किया था उनमें प्रमुख उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती थी। चुनाव के दौरान महबूबा वोट यह कह कर मांगती रही कि “वादी में भाजपा अपना खाता भी खोल न सके।“ मुफ्ती साहिब ने भी माना था कि भाजपा के साथ गठबंधन का सबसे बड़ा विरोध अंदर से हुआ था।
जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अप्रैल 2003 में श्रीनगर आए तो स्टेज पर वाजपेयी तथा मुफ्ती मुहम्मद सईद के बैठने का प्रबंध किया गया। महबूबा वहां बैठना चाहती थी लेकिन वाजपेयी नहीं माने। अपनी किताब ‘कश्मीर द वाजपेयी इयर्स’ में रॉ के पूर्व प्र्रमुख अमरजीत सिंह दुल्लत लिखते हैं,”वाजपेयी उसे वहां नहीं चाहते थे… दिल्ली में उनके हिजबुल मुजाहीद्दीन के साथ संबंधों को लेकर तथा 2002 के चुनाव में उन्हें तथा उनकी पार्टी को मिली मदद को लेकर गंभीर संशय था।“
लेकिन सब संदेह और दुविधा को एक तरफ फेंकते हुए इन्हीं महबूबा मुफ्ती को भाजपा ने जम्मू-कश्मीर संभाल दिया। आज दोनों पार्टियों में तलाक हो चुका है और अमित शाह इसका दोष महबूबा पर मड़ रहे हैं पर असली कमजोरी तो भाजपा की रही है जो हर हालत में इस गठबंधन में बनी रही यह अच्छी तरह से जानते हुए कि महबूबा की नीति ‘नरम अलगाववाद’ की है। महबूबा ने भी जवाब दिया है कि शासन पीडीपी-भाजपा के गठबंधन के एजैंडे के तहत हुआ जिसके सहलेखक राजनाथ सिंह तथा राम माधव थे। महबूबा का कहना है कि अनुच्छेद 370 की यथा स्थिति बनाए रखना, पाकिस्तान तथा हुर्रियत के साथ संवाद बनाए रखना इस एजैंडे का हिस्सा था।
महबूबा मुफ्ती ने जो भी फैसले लिए वह केवल कश्मीर वादी को प्रसन्न करने के लिए लिए गए। उनके आगे केवल कश्मीरी मुसलमानों का हित था। जम्मू या लद्दाख की उन्हें चिंता नहीं थी। इसी नीति पर चलते हुए उन्होंने 11,000 पत्थरबाजों को रिहा कर दिया जिनमें से कई सडक़ों और गलियों में लौट आए हैं।
महबूबा ने अपना हित देखा। हैरानी तो भाजपा जो बड़ी पार्टी है के समर्पण की है। इस ढुलमुल नीति के कारण वहां सुरक्षा कर्मियों का काम करना ही मुश्किल हो गया था। जितने सुरक्षा कर्मी इस गठबंधन सरकार के दौरान शहीद हुए हैं उतने पहले कभी नहीं हुए। उत्तरी कमान के पूर्व प्रमुख ले. जनरल (रिटायर्ड) दीपेन्द्र हुडा ने कहा है, “सेना का मनोबल गिरा है। पत्थरबाज़ों का हौंसला इतना बढ़ गया कि आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई में वह सेना का रास्ता रोकने लगे।“ सेना के अफसरों पर एफआईआर दर्ज करवाई गई। मुख्यमंत्री महबूबा पत्थरबाज़ों को ‘बेटा’ कहती रही। बार-बार सेना या सीआरपीएफ के वाहनों को घेरने की कोशिश की गई। इसे बर्दाश्त क्यों किया गया?
सुरक्षा बलों को कश्मीर में कभी भी इतनी चुनौती नहीं मिली जितनी आज मिल रही है। याद रखना चाहिए कि जब सेना का भी डर चला जाता है तो फिर कुछ नहीं बचता। कश्मीर में लगभग ऐसी हालत पहुंच गई थी।
भाजपा की कलाबाज़ी हैरान करने वाली है। धारा-370 को यह लोग भूल गए। उलटे गृहराज्यमंत्री ने 27 मार्च को लोकसभा में बयान दिया कि इससे छेड़छाड़ का कोई विचार नहीं। फिर रमज़ान पर एकतरफा संषर्ष विराम घोषित कर दिया। पाकिस्तान को भी हम नियंत्रण में नहीं कर सके। सीमा पर संघर्ष विराम का जितना उल्लंघन पिछले दो सालों में हुआ है वह भी पहले नहीं हुआ। 2017 में पाकिस्तान ने 971 बार उल्लंघन किया था इस साल मई तक 1252 बार हो चुका था। गांव के गांव खाली करवाने पड़ गए। भाजपा के लिए अब विश्वसनीयता का संकट है क्योंकि कश्मीर में मांसल नीति की जगह समर्पण की नीति देखी गई। क्योंकि 2019 नजदीक आ गया है इसलिए अब गठबंधन से बाहर आ गए हैं।
लेकिन भारी नुकसान हो चुका है। इसे सुधारने में बहुत समय लगेगा। इस ढुलमुल और अस्पष्ट नीति का खामियाजा देश चुका रहा है। न सुरक्षाकर्मी सुरक्षित हैं, न पर्यटक, न पत्रकार, न कश्मीरी पंडित, न राजनेता और न ही आम आदमी। फौजी औरंगज़ेब का कत्ल कर शाम तक उसका वीडियो जारी कर दिया गया। यह सेना को सीधी चुनौती है लेकिन सेना के तो हाथ बांध दिए गए थे। पाकिस्तान या आईएसआईएस के झंडे लहराने की इज़ाजत क्यों दी गई? आतंकियों के जनाज़ों पर रोक क्यों नहीं लगाई गई? इन्हीं जनाज़ों के बाद स्थिति और भडक़ती थी। उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हुई जो आतंकियों की तारीफ करते रहे और युवाओं को प्रेरित करते रहे? और पत्थरबाज़ी पर सख्ती से लगाम क्यों नहीं लगाई गई?
तीन पुराने पापियों सईद अली शाह गिलानी, यासीन मलिक तथा मौलवी उमर फारुख को फिर से नज़रबंद कर लिया गया है लेकिन इससे होगा क्या? ऐसा तो पहले भी हुआ है। सब जानते हैं कि कश्मीरी अलगाववादी नेताओं को ‘उस पार’ से हवाला के द्वारा पैसा आता है, इसे रोका क्यों नहीं गया? एनआईए के छापों का क्या बना? यह भी सब जानते हैं कि यह लोग पाकिस्तान के इशारे पर नाचते हैं। पाकिस्तानी पत्रकार इरशाद मुहम्मद ने फेसबुक पर पोस्ट किया है कि पत्रकार शुजात बुखारी जिनका दिन-दिहाड़े कत्ल किया गया, के अलगाववादियों तथा जेहादियों से भिन्न विचार थे। वह शांति चाहते थे और कश्मीर समस्या का समाधान चाहते थे। अफसोस ऐसे लोगों के लिए कश्मीर में जगह नहीं रही।
अटल जी ने एक बार जम्हूरियत, इंसानियत तथा कश्मीरियत की बात कही थी। इसका मतलब भी क्या है? कश्मीर में कश्मीरियत और इंसानियत तो उस दिन खत्म हो गई थी जब कश्मीरी पंडितों को वहां से निकाला गया था। हैरानी है, दुख है, कि जो भी भाजपा के नेता कश्मीर जाते हैं, अटल जी से नरेन्द्र मोदी तक, किसी ने वहां जाकर कश्मीरी पंडितों का नाम तक नहीं लिया। सब इधर-उधर के निरर्थक भावनात्मक जुमले उछाल कर लौट आते हैं। कश्मीर वादी पर जोर दिया जाता है और जम्मू तथा लद्दाख की अनदेखी हो रही है। असली ‘अलगाव’ तो उनका हुआ है और यह वह लोग हैं जिन्होंने भाजपा को समर्थन दिया था पर बदले में उन्हें मिले बांग्लादेशी तथा रोहिंग्या। इस संवेदनशील क्षेत्र में यह विदेशी कैसे पहुंच गए? केन्द्र की सरकार इतनी सुस्त क्यों है?
कांग्रेस के नेता गुलाब नबी आजाद तथा सैफूद्दीन सोज ने कश्मीर के बारे जो कहा कि वहां आम आदमी अधिक मारे जा रहे हैं तथा मुशर्रफ ने सही कहा था कि लोग आजादी चाहते हैं, निंदनीय है। राहुल गांधी को इसके बारे अपनी चुप्पी तोडऩी चाहिए। लेकिन असली परीक्षा तो केन्द्र और भाजपा की है जिनकी कश्मीर नीति ने तो शीर्षासन कर लिया है। अपराधियों को हीरो बना दिया गया। हम न पाकिस्तान को सीधा कर सके न ही जेहादियों का वहां प्रचार रोक सके। संघर्ष विराम विफल रहा। हर प्रकार के राष्ट्र विरोधी को खुली छूट दे दी गई। नीति न नरम थी न सख्त। दो किश्तियों की सवारी करते हुए हम उफान पर नदी के ठीक बीच गिर गए।
अब गलती सुधारने का समय है और यह 2019 की जीत या हार से अधिक महत्व रखता है। रक्षा विशेषज्ञ मारुफ रज़ा ने कहा है कि बातचीत से कश्मीर समस्या का हल करने का विचार ही बईमानी है। आशा है राज्यपाल के शासन में अब सख्ती नजर आएगी। न केवल आतंकियों का सफाया करना है बल्कि जो ढांचा उन्हें समर्थन देता है और जिसे फलफूलने का पूरा मौका दिया गया, को भी तबाह करना है। जहां से उन्हें पैसा तथा समर्थन आता है उन स्रोतों पर प्रहार की जरूरत है नहीं तो हम धक्के खाते जाएंगे।
अंत में : क्या कश्मीर समस्या का कोई समाधान है? कोई अंत नज़र आता है? डा. कर्ण सिंह से यह सवाल एक बार किया गया था तो उन्होंने इस पुराने खूबसूरत गाने की यह पंक्ति गुनगुना दी, “अजीब दास्तां है यह, कहां शुरू कहां खत्म! “
बहुत देर कर दी मेहरबां आते आते (J&K Too Late),