कुछ समय के लिए ही सही पर अपने लड़ाई-झगड़े, टकराव, गाली-गलौच सब भुला कर सारा देश रोमांचित हो उठा। अंडर-20 एथलैटिक्स की 400 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक प्राप्त करने के बाद विजय मंच पर भारत की 18 वर्षीय हिमा दास खड़ी थी। राष्ट्रीय गान बज रहा था और हिमा की आंखों से आंसू बह रहे थे। खुशी के। गर्व के। बड़ी सफलता के। और देश भक्ति के। बहुत भारतवासियों ने यह वीडियो देखा है सब के लिए यह वो भावनात्मक क्षण था जिसके लिए बहुत समय से हम तरस रहे थे।
आज इस देश में बहुत कुछ गलत चल रहा है। अखबार नकारात्मक खबरों से भरे हुए हैं। टीवी चैनलों की बहस ही आग लगा रही है। आपस में लड़ाया जा रहा है। कोई नहीं जो शांत करे। आपसी अविश्वास बढ़ा है।
इस अंधकारमय वातावरण में हिमा दास एक सुनहरी किरण की तरह आई है। वह देश भक्ति की उत्कृष्ट मिसाल है। असम के नगांव जिले के एक छोटे से गांव के एक मामूली किसान की बेटी का यहां तक पहुंचना खुद ही चमत्कार से कम नहीं। हम अब लगातार देख रहें हैं कि गरीब परिवारों के बच्चे चाहे पढ़ाई हो या खेल हो, बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं क्योंकि उनमें सफलता के लिए अधिक भूख है। लडक़ी मां-बाप के साथ धान के खेत में काम करती रही है। अभ्यास के लिए सिंथैटिक ट्रैक तक नसीब नहीं हुआ। वह बताती है कि जब बेहतर कोचिंग के लिए उसे गुवाहाटी ले जाया गया तो पिता इस बात से संतुष्ट थे कि बेटी को तीन वक्त का खाना तो मिल जाएगा। स्वर्ण पदक जीतने के बाद उसने भी जब मां से बात की तो पूछा कि “खाना खाया कि नहीं?”
उसके पिता बतातें हैं कि जज़्बा इतना था कि पास से निकलती कार के साथ दौड़ लगाना शुरू कर देती थी। उसकी कहानी हैरत अंग़ेज है। इतने गरीब परिवार की बेटी यहां तक कैसे पहुंची होगी? सही आहार, सही ट्रेनिंग कैसे मिली होगी? अब तो चारों तरफ से मदद मिल रही है पर पहले तो ऐसा नहीं था। मिल्खा सिंह कह रहें हैं कि देश की अगली मिल्खा सिंह होगी यह लडक़ी। 2020 के आंलंपिक में वह भारत की बड़ी आशा होगी और मिल्खा सिंह ने यह भी कहा कि मैडल सुविधाओं से नहीं जज़्बे से जीते जाते हैं।
हिमा दास के जज़्बे को सलाम! आज यह ऐसा देश बन चुका है जहां राष्ट्रीय गान के समय खड़े होने पर भी आपत्ति की जा रही है। कईयों के घुटनों को तकलीफ होती है। राष्ट्रगान के समय इस बच्ची की आंखों से गर्व के आंसू बह रहे थे जबकि यहां ऐसे मिडल ऐज ‘छात्र’ भी हैं जो मुफ्तखोरी में माहिर हैं भारत के टुकड़े-टुकड़े करना चाहते हैं और राष्ट्रीय गान पर खड़े होने से इंकार करते हैं। देश के कथित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग उन्हें सर पर उठाए फिरता है।
अफसोस है कि देश के आगे आदर्श नहीं रहे। हमारे राजनेताओं ने आदर्श मसल कर रख दिए। इनके सामने केवल चुनाव जीतने का लक्ष्य है समाज को सही दिशा देने में उनकी रुचि नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने भीड़ द्वारा लोगों को मारने या पीटने (लिंचिंग) के खिलाफ आवाज़ उठाई है लेकिन सुनता कौन है? निराशा का वातावरण है। आपसी अविश्वास बढ़ा है। आपसी हिंसा बढ़ी है। कोई नहीं जो माहौल को शांत करे। हमारी मूर्खता का आलम यह है कि हिमा दास की सफलता के बाद गूगल में सबसे अधिक यह सर्च किया गया कि उसकी जात क्या है? यही सर्च पीवी सिंधु की भी हुई थी। जब टिकटों का वितरण या नियुक्तियां जाति को देख कर की जाती हो तब यह आशा ही नहीं करनी चाहिए कि जातिवाद कम होगा।
समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में बांटा जा रहा है। अत्यंत निराशामय स्थिति है। जहां बहुत कुछ गलत हो रहा है वहां हिमा दास जैसे प्रतिभाशाली बच्चे नई आशा देते हैं कि सब कुछ लुट नहीं चुका है। वह कहती है कि ‘अभी तो मेरी यात्रा शुरू हुई है।‘ आशा है कि खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर उसकी पूरी मदद करेंगे। सारे देश का आशीर्वाद उसके साथ रहेगा। हम अधिक से अधिक विजय मंचों पर उसे खड़ा देखना चाहिए, पीछे तिरंगा लेहरा रहा होगा और आगे राष्ट्रीय गान बज रहा होगा। उसके साथ मिल कर सब खुशी और गर्व के आंसू बहाएंगे।
फुटबाल के विश्वकप का रोमांच खत्म हो गया। फ्रांस कप जीत ले गया पर आकर्षण का विषय छोटा सा पूर्वी योरुप देश क्रोएशिया रहा जो फाईनल तो हार गया पर दुनिया की वाहवाही लूट गया। क्रोएशिया की जनसंख्या मात्र 40 लाख है जो हमारी दिल्ली की जनसंख्या का तीसरा हिस्सा है। उनकी अर्थ व्यवस्था दुनिया में 77 है जबकि भारत अब छठे स्थान पर है पर हम तो प्रतियोगिता में प्रवेश भी नहीं पा सके क्योंकि फुटबाल में हम 97वें स्थान पर हैं। पिछले दो ओलंपिक खेलों में क्रोएशिया को पांच स्वर्ण पदक मिले हैं जबकि सभी ओलंपिक खेलों को मिला कर भारत को केवल छ: पदक मिले हैं।
हम पीछे क्यों हैं? इसका बड़ा कारण है कि हमारे यहां खेल संस्कृति नहीं है। कभी-कभार फोगत बहनों की तरह या हिमा दास की तरह या दीपा करमारकर की तरह प्रतिभाशाली खिलाड़ी संघर्ष कर उपर तक पहुंचने में सफल रहतें हैं पर आम तौर पर लोग बच्चों को खेलों में कैरियर से निरुत्साहित करते हैं जबकि पश्चिम में उलटी प्रथा है। हॉकी में सुधार हो रहा है पर फुटबाल जैसी खेल जो हमारी परिस्थिति के अनुकूल है क्योंकि खर्चा कम होता है, में हम बहुत पीछे हैं। हमारी तो हालत है कि फुटबाल कप्तान सुनील छेतरी को हाथ जोड़ कर अपील करनी पड़ी “हमें गाली दें, हमारी आलोचना करो पर प्लीज़ भारत की राष्ट्रीय टीम को खेलते देखने तो आओ।“ उसके बाद स्टेडियम भर गया पर ऐसी अपील करने की जरूरत क्यों पड़े?
इस हालत के लिए हमारी खेल व्यवस्था भी बहुत जिम्मेवार है। खेल संघों पर दशकों से राजनेता काबिज हैं। दुनिया के बडे़ देशों में खिलाडिय़ों को खेलें सौंपी जाती हैं जबकि भारत के फुटबाल संघ के अध्यक्ष पूर्व मंत्री प्रफुल्ल पटेल हैं। खेल मंत्रालय को इस मामले में दखल देना चाहिए और खेल संघों की विश्वसनीयता सुधारनी चाहिए। क्रिकेट के प्रति हमारी दिवानगी भी बाकी खेलों को उभरने से रोकती है। सारा पैसा क्रिकेट में ही है। कभी पंजाब खेलों में नंबर १ था लेकिन राष्ट्रमंडल खेलों में पंजाब को केवल 5 मैडल मिले थे जबकि हरियाणा 22 मैडल जीतने में सफल रहा। खेलों में पंजाब के पतन का राष्ट्रीय स्तर पर बुरा असर पड़ा है पर खुशी है कि हरियाणा यह कमी पूरी कर रहा है।
फुटबाल के विश्वकप में एक व्यक्ति जो अपनी छाप छोडऩे में सफल रहा वह थी क्रोएशिया की राष्ट्रपति कोलिंदा ग्राबर-किटारोविच। वह क्रोएशिया से मास्को विशेष विमान में नहीं बल्कि साधारण उड़ान में इकानिमी क्लास में पहुंची थी। क्रोएशिया के मैच उन्होंने विशेष वीआईपी बॉक्स में नहीं बल्कि अपने देश से गए आम दर्शकों के बीच बैठ कर देखें। केवल फाईनल उन्होंने वीआईपी कक्ष से देखा क्योंकि रुस के राष्ट्रपति पुतिन ने उन्हें वहां बैठने का निमंत्रण दिया। जब उनकी टीम फाईनल में हार गई तो वह अपने हर दुखी खिलाड़ी से गले मिली। उस वक्त वर्षा शुरू हो गई लेकिन क्रोएशिया की राष्ट्रपति ने परवाह नहीं की छाता नहीं लिया और बरसात में दोनों टीमों के खिलाडिय़ों से हाथ मिलाती रही। उनका देश मैच हार गया पर वह दिल जीतने में सफल रही और दुनिया को बता गई कि असली लोकप्रिय नेतृत्व क्या होता है।
हिमा दास के आंसू (Tears of Hima Das),