12 अगस्त को कथित ‘खालिस्तान’ के समर्थन में कथित ‘सिख फॉर जस्टिस’ (एसएफजे) का लंडन में रिफरैंडम 2020 के नाम पर तमाशा फ्लॉप शो रहा। दुनिया भर में प्रचार करने के बावजूद वहां केवल 2500 के करीब ही लोग उपस्थित थे। बार-बार प्रयास करने के बावजूद पाकिस्तान तथा दूसरे देशों में बैठे आतंकी नेता पंजाब की धरती पर आतंकवाद फिर खड़ा नहीं कर सके। इन तत्वों के पास पैसे की कमी नहीं है। इसी के बल पर वह लंडन की रैली में बाहर से लोगों को ला सके और उन्हें वहां ठहरा सके।
इंटरनैट पर इनकी उपस्थिति बहुत है। सोशल मीडिया का वह खूब इस्तेमाल करते हैं। जिस तरह जेहादी युवकों को रैडिकल कर रहे हैं उसी तरह यह कथित खालिस्तानी सिख नौजवानों को भडक़ाने की कोशिश करते रहते हैं। भारत विरोधी भारी प्रचार किया जा रहा है। ऐसे प्रचार को रोका भी नहीं जा सकता। पाकिस्तान की कुख्यात आईएसआई दोबारा पंजाब में आतंकवाद के गुब्बारे में हवा भरने की कोशिश कर रही है। पाकिस्तान के प्रमुख गुरुद्वारों में रिफरैंडम 2020 के पोस्टर लगे हैं।
पर जिस तरह इस साईबर-अभियान के बावजूद इसे समर्थन नहीं मिला उससे आयोजकों को स्पष्ट हो जाना चाहिए कि सिखों ने इस देश विरोधी विचार को पूरी तरह से रद्द कर दिया है। पंजाब के सभी राजनीतिक दल चाहे वह कांग्रेस हो, या शिरोमणि अकाली दल हो सभी ने एक आवाज में इस रिफरैंडम 2020 का विरोध किया है। आम आदमी पार्टी जिसने पिछले विधानसभा चुनाव में सिख रैडिकल का समर्थन हासिल कर अपने हाथ झुलस लिए थे, ने भी अब तोबा कर ली है। इसके खिलाफ सबसे मुखर मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह है उनका आरोप है कि यह कुछ नहीं केवल भारत विरोधी अभियान चला कर पैसे इकट्ठे करने का साधन है। दिलचस्प तो यह है कि उग्रवादी संगठन दल खालसा ने भी इस रिफरैंडम 2020 पर सवाल उठाए हैं। उनका बड़ा सवाल है कि अगर यह पंजाब के लिए हो रहा है तो यह पंजाब में क्यों नहीं हो रहा?
इसका जवाब है कि पंजाब में इन्हें कोई समर्थन नहीं इसीलिए यहां आने की जुर्रत वह नहीं कर सकते। कथित सिख फॉर जस्टिस की तो यहां शाखा ही नहीं है। यह भी उल्लेखनीय है कि लंडन जहां इस तमाशे को अनुमति दी गई के मेयर पाकिस्तानी मूल के सादिक खान हैं और इस रैली को सफल बनाने में सबसे सक्रिय वहां का लार्ड नजीर अहमद रहा है जो पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर से है। भारत से भागे पाकिस्तान में बसे कई सिख आतंकी सक्रिय रहे।
लेकिन पाकिस्तान के वेतन भोगी नेताओं तथा संगठनों को पंजाब में कोई घास डालने वाला नहीं है। भारत और विशेष तौर पर पंजाब में सम्पूर्ण सिख समाज ने इस रैली में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। कहीं चर्चा नहीं हुई। पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआना ने एक खुले पत्र में लिखा है कि खालिस्तान का संघर्ष केवल हवा में लड़ा जा रहा है इसमें जमीनी स्तर की हकीकत नहीं है। राजोआना का कहना था, “यह लोग खालिस्तान के नाम पर 34 साल से खालसा पंथ को गुमराह कर रहे हैं और हजारों सिख नौजवान इस साजिश के शिकार हो गए हैं।“
लंडन की रैली में पंजाब से एक भी सिख ने हिस्सा नहीं लिया। यह नहीं कि सिख समुदाय की शिकायतें नहीं है। आप्रेशन ब्लू स्टार तथा सिख विरोधी दंगे बहुत बड़ी शिकायतें हैं। इनसे सिखों को बड़ा जख्म पहुंचा है। यह भी बहुत दुख की बात है कि सिख विरोधी दंगों के एक बड़े अपराधियों को सजा नहीं दी गई लेकिन इसके बावजूद उदारता दिखाते हुए सिख समुदाय आगे बढ़ आया है। दस वर्ष एक सिख डॉ. मनमोहन सिंह ने देश की हकूमत चलाई है। उल्लेखनीय है कि सिखों की जनसंख्या देश की जनसंख्या का मात्र 2 प्रतिशत है पर योगदान बहुत बड़ा है। उनकी देशभक्ति तथा उनकी कुर्बानियों की कोई बराबरी नहीं।
जहां तक इन कथित खालिस्तानी सिखों का सवाल है उनसे पूछा तो जा सकता है कि क्या वह पंजाब में आकर बसने को तैयार हैं? जिस पंजाब के लिए वह एक प्रकार से यह नाटक कर रहे हैं क्या उसके लिए वह अपने ब्रिटिश या कैनेडियन या अमेरिकन या दूसरे विदेशी पासपोर्ट छोडऩे को तैयार हैं? क्या वह वहां अपनी नौकरियां छोडऩे को तैयार होंगे? बच्चों को यह पढ़ाएंगे? विदेशों में बसे बड़ी संख्या में देश भक्त सिख दुखी हैं कि इन पाक समर्थक सिखों के कारण उनकी स्वदेश में छवि खराब हो रही है। ब्रिटेन में 40 दलित संगठनों ने एक संयुक्त बयान में खुद को सिख अलगाववादियों से अलग करने की घोषणा की है। उनकी यह भी आशंका है कि इससे ब्रिटेन में विभिन्न सिख संगठनों के बीच तनाव और अविश्वास पैदा होगा।
पंजाब में खालिस्तान या अलगाववाद का न पहले और न ही अब कोई खरीददार है। विशेषज्ञ प्रीतम सिंह कुमेदन ने तो इसके औचित्य पर सवाल किया है कि हकीकत में यह बन कैसे सकता है? इस सारे मामले में ब्रिटेन सरकार की भूमिका खेदजनक रही है। इस रैली से पहले हमारे अधिकारियों ने ब्रिटेन से अपनी चिंता सांझी की थी कि यह रैली भारत विरोधी तत्व आयोजित कर रहे हैं पर ब्रिटेन ने ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के नाम पर इस पर रोक लगाने से इंकार कर दिया। पहले भी अपनी जमीन से खालिस्तानी प्रचार के बारे हमारी शिकायतों की वह देश अनदेखी करता रहा है। वहां छ: खालिस्तान समर्थक संगठन तथा ‘खालिस्तान सरकार’ पहले ही सक्रिय है जो वहां अपने उद्देश्य के लिए लाबी करते रहते हैं। इनमें से कई कश्मीरी अलगाववादी संगठनों की मिलीभगत में है लेकिन हमारी शिकायतों की वहां की सरकार को परवाह नहीं।
अगर ब्रिटेन ने भारत से भागे हुए माल्या जैसे भगौड़ों का शरणस्थल बनना है और खालिस्तानियों को वहां हमारे झंडे जलाने की इज़ाजत देनी है तो इसका सख्त जवाब देना चाहिए। इस रैली से पहले से तनाव ग्रस्त आपसी रिश्ते और खराब होंगे। व्यापारिक संबंधों पर गंभीरता से गौर करना चाहिए क्योंकि ब्रएग्ज़िट के कारण अब वह बहुत असुरक्षित है। कुछ दिन पहले ब्रिटिश एयरवेज़ की उड़ान से भारतीय परिवार को इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि उनका बच्चा रो रहा था। किसी अमरीकी परिवार के साथ ऐसा सलूक करने की उनकी हिम्मत न होती। अर्थात पुरानी मानसिकता बदली नहीं। ब्रिटिश म्यूजिम यहां से चुराई हुई हमारी कलाकृतियों से भरे हुए हैं। जब उनकी वापिसी की मांग की गई तो एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री का लापरवाह जवाब था कि अगर ऐसे करने लगे पड़े तो हमारे म्यूजियम खाली हो जाएंगे। कोहीनूर समेत भारत की अनमोल वस्तुएं वहां के संग्राहलय में चमक रही हैं। वह लौटाने को तैयार नहीं। यह तो सांस्कृतिक संहार था।
न ही इन लोगों ने अपने शासन के दौरान यहां हुए अत्याचार के बारे अभी तक माफी मांगी है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरान ने जलियांवाला बाग आकर दुख अवश्य प्रकट किया है पर माफी नहीं गई। महारानी एलिजाबेथ तथा उनके पति ने तो इतना भी नहीं किया। उन्होंने तो केवल आंगतुक रजिस्टर में हस्ताक्षर किए एक शब्द अफसोस का भी नहीं लिखा। शशि थरूर ने अपनी किताब में बताया है कि अंगे्रजों के आने से पहले भारत का विश्व जीडीपी में प्रतिशत 23 था जो अंग्रेजों के जाने के वक्त 3 प्रतिशत गिर गया। मुगल तो यहां आकर बस गए थे पर अंग्रेज तो हमें चूस गए। इसलिए उस देश के साथ, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने एक बार ‘छोटा सा द्वीप’ कहा था, रिश्तों के बारे पुनर्विचार होना चाहिए।
अब फैसला किया गया है कि महारानी एलिजाबेथ के बाद अधेड़ राजकुमार चार्ल्स को राष्ट्रमंडल का प्रमुख बनाया जाएगा जबकि यह पद वशांगत नहीं है। अफसोस है कि भारत भी इस परिवर्तन के लिए तैयार हो गया। वैसे भी इस कथित राष्ट्रमंडल का तुक क्या है? इन देशों में क्या सांझ है इसके सिवाय कि इन पर कभी गोरों का राज था? इस वारदात को बार-बार याद करने की जरूरत क्या है?
ब्रिटेन और 'खालिस्तान' (Britain and 'Khalistan'),