तो फिर कयामत होगी! (#MeToo in India!)

लगभग एक दर्जन महिला पत्रकार द्वारा शोषण की शिकायत पर अकबर का कहना है कि यह आरोप झूठे हैं और वह इस पर कानूनी कार्रवाई करेंगे जो उन्होंने शुरू कर भी दी है। एक महिला प्रिया रमानी के खिलाफ 97 वकील खड़े कर दिए हैं। उनका यह भी सवाल है कि चुनाव से पहले यह तूफान को उठा? कोई एजेंडा है क्या? अगर लगभग एक दर्जन महिलाएं अलग-अलग आरोप लगा रही हैं तो इसे ‘एजेंडा’ कैसे कहा जाएगा? आरोप लगाने वालों में ब्रिटेन में काम करने वाली पत्रकार डेविड रुथ भी है। इन आरोपों को चुनाव से जोडऩा तो बेहूदगी है लेकिन इस सारे विवाद के और पहलू भी हैं। पहली बात सरकार की खामोशी है। जिस सरकार ने “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” का नारा दिया था, जिसने उज्जवला योजना शुरू की थी, वह क्या संदेश दे रही है कि महिलाओं के उत्पीढ़न से वह विचलित नहीं हैं? लोकराज लोकलाज से चलता है। सरकार को इस मामले में अधिक संवदेनशीलता दिखानी चाहिए थी। इन औरतों के दर्द और सदमें को समझना चाहिए था।

हर मामला कानूनी या राजनीतिक नहीं होता। कई मामलों पर नैतिकता के आधार पर निर्णय लेना पड़ता है। अमित शाह ने जांच की बात कही है। भाजपा अध्यक्ष का नज़रिया केवल राजनीतिक होता है। वह हर बात को गुण-दोष के नजरिए से नहीं राजनीतिक लाभ-हानि के नजरिए से देखते हैं। शायद यह भी चिंता हो कि और राज नेताओं पर भी ऐसे आरोप लग सकते हैं लेकिन प्रधानमंत्री को तो सरकार की छवि की चिंता होनी चाहिए। क्या वह विदेश राज्यमंत्री विदेशों में हमारा प्रतिनिधित्व कर सकता है जिस पर एक दर्जन महिलाओं ने गंभीर आरोप लगाए हैं? महिलाओं में भी सरकार की क्या छवि जा रही है? कि ताकतवर पुरुष कमजोर महिला का उत्पीढ़न कर सकता है, और यह ओ के है? गज़ला वहाब का आरोप है कि एक संपादक के तौर पर अकबर ने उसका यौन उत्पीढ़न किया। सबा नकवी का कहना है कि ‘मैं तो बच गई।’ वह तो बच गई पर कितनी नहीं बची?

जिन पत्रकार महिलाओं ने शिकायतें की हैं उन्होंने विस्तार में अपने शोषण के बारे बताया है। उस पर विश्वास किया जा सकता है। न केवल एम.जे. अकबर, बल्कि मीडिया, सिनेमा,कला, कारप्रेट तथा यहां तक कि न्यायपालिका से जुड़े कई बड़ी हस्तियों पर महिला उत्पीढ़न के आरोप लग रहे हैं। अमेरिका में शुरू हुए  #Me Too अभियान ने अब भारत को अपनी चपेट में ले लिया है। पहली बार ऐसे रहस्योघाटनों के बाद माफी मांगी गई है, इस्तीफे हो रहे हैं, जांच हो रही है। यहां किन्तु-परन्तु की गुंजायश नहीं है। कई आरोप दस-दस, बीस-बीस वर्षों के बाद लगाए जा रहे हैं। इसलिए सवाल किया जा रहा है कि पहले क्यों नहीं? इसका जवाब है कि उस समय के भारत और आज के भारत में बहुत अंतर है। उस समय अगर कोई महिला ऐसी शिकायत करती तो उस पर ही आरोप मढ़ दिया जाता। आज महिला सशक्त हो रही है। अदालतें उनकी बात सुन रही है। कानून बदला है। जो सवाल कर रहे हैं कि यह महिलाएं अब इतने वर्षों के बाद क्यों शिकायत कर रही हैं उनसे कहना है कि आप खुद को उनकी जगह डालो फिर सवाल करो। किसी भी महिला के लिए यह मानना कि उसका यौन उत्पीढ़न हुआ है बहुत दिलेरी की बात है। किसी ने सही कहा है,

खामोशियां कभी बेवजह नहीं होती,

कुछ दर्द आवाज़ छीन लेते हैं!

25 वर्ष के बाद सैफ अली खान ने माना है कि उनका भी उत्पीढ़न हुआ था। अगर आज ऐसी आवाजें बुलंद हो रही है तो इसका स्वागत होना चाहिए। इसे दबाने का प्रयास नहीं होना चाहिए क्योंकि अब यह दब नहीं सकती। याद रहे मुंशी अमीर अहमद ‘मीनाई’  ने कहा था,  “जो चुप रहेगी ज़बान-ए-खंजर लहू पुकारेगा आस्ती का।“ कहा जा रहा है कि यह तो शिक्षित शहरी महिलाएं हैं ग्रामीण क्षेत्र की महिला की आवाज कौन बुलंद करेगा? मानना पड़ेगा कि ग्रामीण क्षेत्र में बहुत ज्यादतियां होती हैं पर इसका अर्थ तो यह नहीं कि शिक्षित महिला के खिलाफ ज्यादती बर्दाश्त की जाए? एक तरफ सब कहते हैं कि लड़कियों को शिक्षित करो लेकिन जब वह हो जाती हैं तो कहा जा रहा है कि अरे, यह तो पढ़ी-लिखी है। हमारे समाज तथा हमारी संस्थाओं को इनकी आवाज़, इनकी तड़प सुननी चाहिए। इनकी मर्यादा का हनन नहीं होना चाहिए। हां असंगठित क्षेत्र की तरफ ध्यान बहुत देने की जरूरत है।

इस मामले में समाज के कर्णधारों की प्रतिक्रिया भी अजब है। सुषमा स्वराज ने एम.जे. अकबर पर सवाल का जवाब देने से इंकार कर दिया। अमिताभ बच्चन जिन्होंने अपनी दोहती को एक सार्वजनिक चिट्ठी लिखी थी कि उसके र्स्कट की लंबाई के अनुसार लोगों का उसके प्रति रवैया नहीं होना चाहिए, ने यह कहते हुए बोलने से इंकार कर दिया कि  “ना मेरा नाम तनुश्री दत्ता है और न नाना पटेकर।“ अगर वह बोलते तो लोग सुनते लेकिन वह तो दुम दबा कर बैठ गए जबकि यदाकदा वह देश को नसीहत देते रहते हैं। और यह भी नहीं कि बच्चन को मालूम नहीं कि फिल्म इंडस्ट्री में क्या-क्या चलता है? प्रसिद्ध महिला निर्देशकों ने ऐसे लोगों के साथ काम करने से इंकार कर दिया है जिन पर आरोप लगे हैं। क्या ‘महानायक’ भी ऐसी कोई घोषणा करेंगे? शबाना आज़मी और जावेद अखतर जैसे तथाकथित समाजिक शूरवीर भी खामोश हैं।

यह ही हाल बड़े मीडिया घरानों का है। सब जानते हैं कि अकबर की ख्याति कैसी है फिर भी वह एक सुपर स्टार पत्रकार के तौर पर फलफूलते रहे। मीडिया को भी अपने अंदर झांकने की जरूरत है। यहां तो शिकायतों की बाढ़ आ गई है। कईयों को अब बर्खास्त कर दिया गया है तो कई खुद छोड़ रहे हैं लेकिन वह मालिक तथा संपादक जो सब जानते हुए इस शोषण की इजाज़त देते रहें, वह भी जवाबदेह है। अब एडिटर्स गिल्ड भी  ‘परेशानी’  प्रकट कर रहा है लेकिन यह सब नकली है। उन्हें मालूम था न्यूजरूम में क्या हो रहा है लेकिन किसी ने मुंह नहीं खोला। उन्हें मालूम था कि जोश में भरी हुई जवान लड़कियां मीडिया में अपनी जगह बनाना चाहती हैं। उन्हें सुरक्षित माहौल देने में यह लोग बुरी तरह असफल रहे।

लेकिन अब भूचाल आ गया है। पुराने पापी लडखड़़ा रहे हैं। आभास है कि कई क्षेत्रों के शिखर पर बहुत कुछ गला-सड़ा है। इनमें फिल्म निर्माता तथा अभिनेता साजिद खान भी शामिल है जो फिल्म हाऊसफुल-4 से हट गया है। इस पर उसकी बहन फराह खान की प्रतिक्रिया उल्लेखनीय है। उनका स्पष्ट कहना था कि अगर उनके भाई ने ऐसा कुछ किया है तो उसे प्रायशित करना चाहिए जबकि वह खुद यौन पीड़ित महिलाओं के साथ खड़ी है। लेकिन एक और प्रमुख महिला पत्रकार तवलीन सिंह की प्रतिक्रिया समझ से बाहर है। उन्होंने सवाल किया है कि  “वह अकेली मेरे मित्र सुहेल सेठ के घर क्यों गई”? वैसे तो सही है महिलाओं को भी देखना चाहिए कि वह कहां जाती हैं, किसके साथ जाती हैं, कब जाती हैं पर क्या अगर कोई महिला किसी के घर अकेली पहुंच जाए तो इसका अर्थ है कि उसका यौन शोषण होना चाहिए?

इन दो प्रमुख महिलाओं की प्रतिक्रिया से पता चलता है कि इस मामले को लेकर हमारे समाज में कितना द्वंद है। अमिताभ बच्चन ने भी फिल्म  ‘पिंक’  में कहा था कि ‘NO MEANS NO’अर्थात ‘न’ का मतलब है ‘न’। काश कि आज वह इतना ही कह देते! यह मामला महिला की इज्जत और सुरक्षा से संबंधित है। इस पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के लिए जगह बनाना बहुत मुश्किल है। बहुत से ऐसे मर्द हैं जो समझते हैं कि काम की जगह में वह कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी कह सकते हैं उसके दुष्परिणाम नहीं होंगे। महिला को काबू करने के लिए ताकत, चाहे वह सैक्स हो या पैसा हो या नौकरी हो का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन इस #Me Too के बाद सब बदलेगा। महिला चुपचाप ज्यादती स्वीकार करने को तैयार नहीं। वह आगे आकर अपनी पहचान बता कर अपने मुजरिम का नाम ले रही है और इसकी कीमत अदा करने के लिए तैयार है। आगे और नाम भी आ सकते हैं। इससे कार्यक्षेत्र की संस्कृति सुधरेगी। उनकी इस हिम्मत की सराहना ही नहीं बल्कि उसे समर्थन मिलना चाहिए। इसलिए जो भेड़िए महिलाओं की कमजोरी का फायदा उठाते रहे उन्हें अब सावधान हो जाना चाहिए, क्योंकि आज यह महिलाएं कह रही हैं,

खामोश हूं, बहुत कुछ दफन है मेरे अंदर

मेरे दर्द को हवा लगी तो कयामत होगी!  

(यह लेख अकबर के त्यागपत्र से पहले लिखा गया था। लेकिन विषय अभी भी प्रासंगिक है)

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.