सरदार वल्लभभाई पटेल के बारे मई 1933 में महात्मा गांधी लिखते हैं,“क्या मुझे इस बात का अहसास नहीं कि भगवान की मुझ पर कितनी अनुकंपा रही है कि मुझे वल्लभभाई जैसे असाधारण व्यक्ति का साथ मिला है। ” उन्होंने पटेल से यह भी कहा था, “तुम्हारा दिल शेर जैसा हैं”। लेकिन सरदार पटेल के योगदान के बारे सटीक टिप्पणी राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने मई 1959 में की थी कि, “आज एक भारत है जिसके बारे हम सोच सकते हैं और बात कर सकते हैं तो यह बहुत कुछ सरदार पटेल की शासन कला तथा मजबूत प्रशासन का परिणाम है।“
भारत की प्राचीन सभ्यता है लेकिन हम सदा बिखरे रहें हैं। यही कारण है कि 1947 से लगभग एक हजार वर्ष पहले तक हमारा अपना शासन नहीं था। कहीं-कहीं और कभी-कभी कुछ शासक चमके थे लेकिन भारत इन वर्षों में अपने शासक के नीचे कभी भी एक नहीं हुआ। आजादी के समय भी हम 500 से अधिक रियासतों में बंटे हुए थे। उन्हें एक करना और मजबूत केन्द्र की स्थापना करना सरदार पटेल का ऐसा योगदान था जिसे कभी भुलाया नहीं जाएगा। उन्होंने विभाजन का सामना कर रहे देश को संभाला और उसके और टुकड़े होने से बचाया। उनकी एक जीवनी के लेखक हिन्दोल सेनागुप्ता लिखते हैं, “भारतवासियों की पीढ़िया यह नहीं समझती कि सरदार की दृढ़ता और चालाकी के बिना शायद ही कोई भारत होता। उन्होंने उसे इकट्ठा किया जो हजारों सालों से केवल दर्शन तथा आध्यात्मिकता में एक था, और कई बार ऐसा भी नहीं था।“
आजादी के बाद भारत को एक करते वक्त उन्होंने किसी बाधा को सामने नहीं आने दिया। साम, दाम, दंड, भेद सबका भरपूर इस्तेमाल किया। यह भी याद रखना चाहिए कि सरदार पटेल के नेतृत्व में रियासतों को एक रक्तविहीन अभियान के द्वारा मिलाया गया जबकि इब्राहिम लिंकन के नेतृत्व में उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका को एक करने में लाखों लोग मारे गए। इसलिए अगर आज सरदार पटेल की याद को जिंदा रखने का प्रयास किया जा रहा है तो इसका समर्थन होना चाहिए लेकिन क्या ऐसा करने के लिए 182 मीटर की मूर्ति बनाना जिस पर 3000 करोड़ रुपए खर्च किए गए और जिसको लेकर 22 गांवों के लोगों ने प्रदर्शन किया, जायज था?
मैं स्वीकार करता हूं कि नेहरू-गांधी परिवार के शासन के दौरान पटेल और सुभाष चंद्र बोस जैसे लोगों को वह महत्व नहीं दिया गया जिसके वह अधिकारी थे। इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि सरदार पटेल को मरणोप्रांत 1991 में राजीव गांधी के साथ भारत रत्न दिया गया जबकि 1955 में जवाहर लाल नेहरू ने अपने आप को और 1971 में इंदिरा गांधी ने अपने आप को भारत रत्न प्रदान कर दिया था। देश में लगभग 500 संस्थाएं, हस्पताल, हवाई अड्डे, स्टेडियम, सड़कें आदि ऐसी हैं जो नेहरू-गांधी परिवार के नाम पर रखी गई हैं। ऐसा सम्मान पटेल या बोस को नहीं दिया गया।
कांग्रेसी नेताओं में इतना दम तो नहीं था कि वह सरदार पटेल की याद को बिलकुल मिटा सके लेकिन उसे सही महत्व नहीं दिया गया जबकि सरदार पटेल भी अंत तक कांग्रेस के नेता रहे इसलिए अगर अब संतुलन कायम करने का प्रयास हो रहा है तो गलत नहीं, पर 3000 करोड़ रुपए? अगर पटेल खुद जीवित होते तो इसे अश्लील फजूलखर्ची कहते। सरदार पटेल का कद देश के प्रति उनकी सेवा के कारण विशाल है इसलिए नहीं कि उनकी मूर्ति विशाल है।
इस मौके पर दुर्भाग्यवश कुछ बहस भी शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कहना था कि “नेतृत्व अगर पटेल या बोस को मिलता तो बात अलग होती।” उन्होंने ‘इंगलैंड के चश्मे’ का जिक्र कर अप्रत्यक्ष तौर पर जवाहरलाल नेहरू की आलोचना भी की। फरवरी में अपने एक भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस तथा नेहरू की देश के विभाजन तथा कश्मीर विवाद के लिए दोषी ठहराया। उनका कहना था कि पटेल इसे रोक देते। दूसरी तरफ पत्रकार और लेखक स्वामीनाथन एंकलेसरिया अय्यर का कहना है कि ‘पटेल विभाजन के शिल्पकार थे’ और पटेल ने बहुत तेज रफ्तार से विभाजन करवाया था जिसका भारी नुकसान हुआ था।
चाहे नरेन्द्र मोदी हो या स्वामीनाथन अय्यर यह सब 70 वर्ष पहले के घटनाक्रम को आज के नज़रिए से देखने के दोषी थे। देश के विभाजन जैसे संवेदनशील मामले पर राजनीति बिलकुल नहीं होनी चाहिए। आजादी के 70 वर्ष के बाद आज यह कहना कि यह हो सकता था, वह हो सकता था, यह गलत था यह सही था बिलकुल जायज नहीं है। गांधी समेत कांग्रेस के नेता देश के विभाजन के खिलाफ थे लेकिन उन्हें एक तरफ ब्रिटिश मक्कारी तो दूसरी तरफ जिन्नाह और मुस्लिम लीग की हठधर्मिता का सामना करना पड़ा था इसलिए विभाजन स्वीकार करना पड़ा। पटेल विशेष तौर पर इसके लिए तैयार हो गए थे। 11 अगस्त 1947 को एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने कहा था, “चाहे मैं पहले विभाजन के बिलकुल खिलाफ था, मैं इसके लिए तैयार हो गया क्योंकि मैं इस बात का कायल था कि भारत को संयुक्त रखने के लिए इसका अब विभाजन होना चाहिए।“ 1949 में फिर उन्होंने यह बात दोहराई, ”इसकी सब बुराईयों के बावजूद यह अच्छी बात है कि हम विभाजन के लिए तैयार हो गए। मुझे इस बात का कभी भी पछतावा नहीं रहा कि मैं विभाजन के लिए सहमत हो गया था।”
यह है लौह पुरुष। पूरी सच्चाई वर्णन कर दी कोई पसंद करे या न करे। सच्चाई है कि अंत में गांधी जी को छोड़ कर सभी कांग्रेसी नेता विभाजन के लिए तैयार हो गए थे। यह कष्टदायक निर्णय था पर अगर आज के संदर्भ में देखा जाए तो यह बहुत विवेकपूर्ण निर्णय था। अगर अलग पाकिस्तान नहीं बनता तो यह सभी मदरसे, मुल्ला, जेहादी हमारे पल्ले होते!
इसी तरह कश्मीर के बारे गलतफहमी पैदा की जा रही है। नरेन्द्र मोदी का कहना है कि अगर पटेल प्रधानमंत्री बनते तो पूरा कश्मीर हमारा होता लेकिन यहां भी तथ्य असुखद है। पटेल का कश्मीर के साथ कोई भावनात्मक लगाव नहीं था जैसा नेहरू का था। पटेल का मानना था कि एक मुस्लिम बाहुल्य वाला प्रांत जिसकी सीमा पाकिस्तान के साथ सीधी लगती है भारत के लिए बहुत मुसीबत बन सकता है इसलिए वह एक वक्त कश्मीर के आदान-प्रदान के लिए तैयार हो गए थे। बलदेव सिंह को 13/9/1947 को लिखे अपने पत्र में पटेल ने स्पष्ट कहा था, “अगर कश्मीर दूसरे हिस्से में शामिल होना चाहता है तो मैं इसे स्वीकार करने को तैयार हूं।“ सरदार पटेल की प्रसिद्ध जीवनी के लेखक राजमोहन गांधी ने लिखा है कि पटेल का मानना था कि अगर पाकिस्तान जूनागढ़ तथा हैदराबाद से अपना दावा हटा ले तो कश्मीर की अदला-बदली हो सकती है। एक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं, “यह उल्लेखनीय है कि जहां नेहरू सदा कश्मीर को भारत का हिस्सा चाहते थे पटेल एक समय कश्मीर के पाकिस्तान के विलय के लिए तैयार थे। उन्होंने अपना मन उस दिन बदला जब पाकिस्तान ने जूनागढ़ का विलय स्वीकार कर लिया।“
आखिर में पटेल की दक्षता तथा रणनीति के परिणामस्वरूप जूनागढ़ भी भारत में रहा और हैदराबाद भी लेकिन कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान छीन ले गया। नेहरू अपने कश्मीर को पूरी तरह बचा नहीं सके और यह विवाद आज तक हमें परेशान कर रहा है लेकिन जैसे मैंने उपर लिखा 70 वर्ष पुराने निर्णयों पर आज फैसला देना आसान है लेकिन जायज़ नहीं। देश असुरक्षित था। अंग्रेजों के एकदम प्रस्थान से शून्य पैदा हो गया उन विकट परिस्थितियों में निर्णय लेना आसान नहीं था। अगर आज एक भारत है जो प्रगति कर रहा है और पाकिस्तान नहीं बना तो यह उस वक्त के नेतृत्व की हिम्मत और देश भक्ति का परिणाम है। इसमें गांधी, नेहरू, पटेल, राजगोपालाचार्य, मौलाना आज़ाद इत्यादि सब शामिल थे। सरदार पटेल को उठाने के लिए नेहरू की याद तथा योगदान को नीचा दिखाना या उन्हें बदनाम करना जरूरी नहीं। देश की आजादी के लिए दोनों में ‘पार्टनरशिप’ थी, जैसे राजमोहन गांधी ने भी लिखा है।
सरदार पटेल का देहांत 15 दिसम्बर,1950 को हो गया। गांधी जी की हत्या 1948 के शुरू में हो चुकी थी। इनके बाद किसने देश को संभाला और इसके भविष्य की नींव रखी? जवाहर लाल नेहरू!