प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और वह लोग जो जवाहर लाल नेहरू को आजादी के बाद प्रधानमंत्री बनाए जाने की आलोचना करते हैं यह भूलते हैं कि यह फैसला महात्मा गांधी का था जिसे सरदार पटेल ने सहर्ष स्वीकार किया था। गांधी जी ने जवाहर लाल नेहरू के बारे लिखा था, “यह मेरी भाषा बोलेगा।” गांधी जी की इस इच्छा को पटेल ने खुशी से स्वीकार कर लिया था और उन्होंने नेहरू को कहा था, “उस लक्ष्य के लिए जिसके लिए भारत में किसी ने उतनी कुर्बानी नहीं दी जितनी आपने दी है मेरी बेहिचिक वफादारी और निष्ठा आपके साथ है। हमारी जोड़ी बेजोड़ है।“
जो लोग नेहरू की आलोचना करते हैं उन्हें पटेल के इन शब्दों का ध्यान रखना चाहिए जिनमें उन्होंने नेहरू की ‘कुर्बानी’ का जिक्र किया है। यह नहीं कि मतभेद नहीं थे। 1937 में कांग्रेस के नए प्रधान का चुनाव होना था और जवाहर लाल नेहरू फिर प्रधान बनना चाहते थे। पटेल को नेहरू का अनिश्चितकाल के लिए प्रधान बने रहना बिलकुल पसंद नहीं था। उन्होंने महादेव देसाई को पत्र में लिखा था, “सजा सजाया दुल्हा राजा एक बार में जितनी लड़कियां मिल जाए उनसे विवाह रचाने को तैयार है!” लेकिन बाद में पटेल ने चुपचाप गांधी जी का निर्णय स्वीकार कर देश के लिए अपनी महत्वकांक्षा की कुर्बानी दे दी।
गांधी जी ने जवाहर लाल नेहरू का चुनाव क्यों किया और पटेल का क्यों नहीं जबकि पटेल कांग्रेसजनों में अधिक लोकप्रिय थे? यह हमारे इतिहास का रोचक अध्याय है। गांधी और पटेल दोनों गुजराती भी थे। पटेल की शिकायत थी कि महात्मा अपने ‘दो बेटों’ में से एक की तरफ पक्षपाती थे लेकिन उस वक्त किशोरीलाल मशरुवाला ने शायद सही आंकलन किया था, “मैं गांधी-पटेल रिश्ते को भाईयों का रिश्ता कहूंगा जिसमें गांधी बड़े भाई थे जबकि गांधी-नेहरू रिश्ता बाप और बेटे का था।“ गांधी ने एक जगह खुद को पटेल का बड़ा भाई भी कहा था इस पर राजमोहन गांधी ने दिलचस्प टिप्पणी की है, “छोटा भाई राज्य-संरक्षक बन सकता है लेकिन उत्तराधिकारी तो बेटा ही होगा।“
यह भी उल्लेखनीय है कि गांधी के अपने चार पुत्र थे पर जवाहरलाल नेहरू उनके प्रिय उत्तराधिकारी थे और उन्हें अपने बेटों से भी अधिक प्रिय थे। बड़े बेटे हीरालाल के साथ तो गांधी जी के रिश्ते तनावपूर्ण रहे थे हीरालाल भी बागी हो गए थे। पटेल और नेहरू के इलावा सुभाष बोस, राजगोपालाचारी, राजेन्द्र प्रसाद और मौलाना आजाद भी थे लेकिन गांधी जी की पसंद केवल नेहरू थे। आजकल के जमाने में जहां इंदिरा गांधी या प्रकाश सिंह बादल या मुलायम सिंह यादव या देवी लाल या करुणानिधि आदि ने अपनी औलाद को ही बढ़ावा दिया गांधी जी का चुनाव एक मिसाल होनी चाहिए कि जनहित परिवार हित से उपर है।
15 जनवरी, 1942 के कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी ने स्पष्ट कहा था, “न राजाजी न सरदार वल्लभभाई पर जवाहरलाल मेरे उत्तराधिकारी होंगे।“ पटेल और राजाजी वहां मौजूद थे। गांधी जी के निर्णय का एक बड़ा कारण यह था कि नेहरू पटेल से 14 साल छोटे थे। विशेष तौर पर युवाओं तथा अल्पसंख्यकों में नेहरू अधिक लोकप्रिय थे जबकि पटेल की छवि अधिक सख्त ‘नो नॉनसैन्स’ व्यक्ति की थी। दूसरा, सरदार की सेहत अच्छी नहीं थी इसलिए गांधी उन पर अधिक बोझ डालना नहीं चाहते थे। आजादी के तीन साल बाद ही पटेल का देहांत हो गया था। तीसरा, गांधी जी जानते थे कि जनता में जवाहरलाल की स्वीकार्यता पटेल से अधिक है। नेहरू जननायक थे जो पटेल कभी बन नहीं सके।
आजकल जवाहरलाल नेहरू को नीचा दिखाना एक फैशन बन गया है। संघ परिवार विशेष तौर पर नेहरू को पसंद नहीं करता क्योंकि नेहरू ने विभाजन के समय गड़बड़ तथा गांधी जी की हत्या के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को जिम्मेवार ठहराया था जिसका कोई प्रमाण नहीं मिला और बाद में लगा प्रतिबंध हटाना पड़ा जबकि पटेल का मानना था कि संघ वाले केवल “पथ से भटके लोग हैं।” नेहरू समझते थे कि देश में बचे मुसलमानों को संरक्षण देना सरकार का फर्ज है जबकि पटेल का मानना था कि जिम्मेवारी अल्पसंख्यकों की भी बनती है। पर ऐसे मतभेद उनकी देश के प्रति भक्ति के बीच कभी नहीं आए। 14 फरवरी, 1948 को आकाशवाणी से प्रसारण में प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था, “मैं सरदार पटेल के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना चाहता हूं। केवल उनकी देश के प्रति जिंदगी भर की सेवा के लिए ही नहीं बल्कि भारत सरकार में उनके द्वारा किए गए काम के लिए भी… समय के साथ उनके प्रति मेरी श्रृद्धा बढ़़ती गई है।“
गांधी, पटेल और नेहरू वह भव्य त्रिमूर्ति थी जिसने देश देश की आजादी की लड़ाई का सफल नेतृत्व किया था। यह वह परिस्थितियां थी जब अंग्रेज भारत छोड़ कर भाग रहे थे और जिन्नाह तथा मुस्लिम लीग नाक में दम कर रहे थे। आजादी के बाद नेहरू और पटेल ने देश को इकट्ठा मिलकर संभाला था लेकिन दिसम्बर, 1950 में पटेल के देहांत के बाद यह जिम्मेवारी अकेली नेहरू के कंधों पर पड़ गई थी। और भी नेता थे लेकिन जननायक केवल नेहरू ही थे। तब सिद्ध हो गया कि गांधी जी का चुनाव कितना सही था। अगर आज भारत पाकिस्तान नहीं बना तो बहुत श्रेय नेहरू के नेतृत्व को जाता है। उन्होंने देश का निर्माण किया और भविष्य की रुपरेखा तय की। यह उनका मजबूत नेतृत्व, दूरदर्शिता और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अटूट विश्वास था कि आज भारत विश्व का एक प्रमुख देश बन सका है। भारत के किसी भी प्रधानमंत्री के लिए नेहरू की उपलब्धियों या महानता का मुकाबला करना बहुत मुश्किल होगा।
आजादी के शुरुआती सालों में कई विदेशी पर्यवेक्षक तथा पत्रकार इस नए देश का मृत्युलेख लिख रहे थे। कहा गया कि टुकड़े हो जाएंगे या गृहयुद्ध शुरू हो जाएगा। भूखमारी, बीमारी, गरीबी सबको लेकर भारत का बहुत निराशाजनक चित्र पेश किया गया। चर्चिल ने तो हमें केवल 50 वर्ष दिए थे और कहा था कि इसके बाद भारत कहीं गुम जाएगा लेकिन अगर भारत के टुकड़े नहीं हुए यह उस वक्त के नेतृत्व की दक्षता तथा देश भक्ति का परिणाम है। देश के विभाजन के समय लाखों मारे गए। भारी संख्या में विधवाएं और अनाथ थे। करोड़ों उजड़ चुके थे। माऊंटबेटन की जीवनी के लेखक फिलिप ज़ीगलर ने लिखा था कि विभाजन के समय 10 लाख लोग मारे गए। कई लेखक यह आंकड़ा इस से दोगुना बताते हैं। इस भयंकर त्रासदी के बीच नए राष्ट्र को संभालना और आगे बढ़ाना कितनी विशाल चुनौती होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। इसके लिए देश उन लोगों का सदैव ऋणी रहेगा जिन्होंने आजादी के लिए अपनी जवानी दी और देश के भविष्य की नींव रखी। जवाहरलाल नेहरू इनमें प्रमुख हैं।
हां, जवाहरलाल नेहरू से आकंलन की एक भयंकर भूल हुई थी। वह चीन को नहीं समझ सके। उनका मानना था कि दोनों देशों की प्राचीन सभ्यताओं के रिश्तों को देखते हुए, “यह बहुत असंभव है कि भारत को चीन से हमले का सामना करना पड़ेगा” जबकि पटेल ने उन्हें कहा था कि “चीन से नए खतरे के प्रति वह जागरूक रहें।“
यह युद्ध नेहरू के 17 साल के शासन की सबसे बड़ी असफलता रहेगी। सारा देश अपमानित महसूस कर रहा था। खुद नेहरू की प्रतिष्ठा की धज्जियां उड़ गई थी और दो साल के बाद उनका देहांत एक थके हुए पराजित नेता का था। वह आदर्शवादी थे और चीन में आए बदलाव को समझ नहीं सके लेकिन आंकलन की ऐसी गलतियां कई नेता कर चुके हैं। अटलजी लाहौर पहुंच गए पर पीछे कारगिल हो गया। मनमोहन सिंह “नाश्ता अमृतसर में, लंच लाहौर में और डिन्नर काबुल में” की बात करते रहे और मुंबई पर हमला हो गया। नरेन्द्र मोदी लाहौर नवाज शरीफ के पारिवारिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने गए और अगले सप्ताह पठानकोट एयरबेस पर हमला हो गया।
इन नेताओं को उनकी असफलता के लिए नहीं उनकी उपलब्धियों तथा सेवा के लिए याद किया जाना चाहिए। विशेष वर्णन जवाहरलाल नेहरू का होना चाहिए जिन्होंने 15 अगस्त को एक परेशान, घायल और लडखड़़ाते देश को संभाला तथा भविष्य की नींव रखी। यह इतनी मज़बूत नींव थी कि उनकी बेटी भी इसे हिला नहीं सकी, उन्हें भी एमरजैंसी हटा कर चुनाव करवाने पड़े।