लोगों ने संतुलन कायम कर दिया। इन पांच राज्यों के परिणाम का अगर कोई संदेश है तो यह कि भारत की जनता को अपना विपक्ष चाहिए। वह एक पार्टी के भरोसे नहीं रहना चाहती क्योंकि बहुत संभावना है कि तब तानाशाही रवैया हावी हो जाता है जो हमने नोटबंदी के समय देखा भी जब लोगों की तकलीफों की चिंता किए बिना और बिना बहुत तैयारी किए कठोर आर्थिक कदम लोगों के गले उतारने की कोशिश की गई। सोचा नहीं कि इसका आम आदमी की जिंदगी पर कितना भयावह असर हो सकता है। 2014 में भाजपा के पास केवल 4 प्रदेश थे इन चुनावों से पहले 20 थे। 2014 के बाद हुए प्रादेशिक चुनावों में कांग्रेस केवल पंजाब और पुड्डेचेरी ही जीत सकी थी। इसी से नेतृत्व में अधिक आत्मविश्वास आ गया और अमित शाह ने घोषणा कर दी कि वह ‘कांग्रेस-मुक्त’ भारत लाने जा रहे हैं। नहीं, ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को शायद अंदाजा हो गया था इसीलिए इन पांच चुनावों में उन्होंने महज 32 रैलियां ही की थी जबकि केवल गुजरात चुनाव में उन्होंने 34 रैलियां की थी और रोड शो भी किया था। इस बार रोड शो भी नहीं हुआ।
यह चुनाव विशेष तौर पर मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ के परिणाम विशेष महत्व रखतें हैं क्योंकि यहां भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर थी। यह तीन प्रदेश 65 सांसद लोकसभा भेजते हैं यहां पिछली बार भाजपा ने 62 सीटें जीती थी। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा उनके अपने चुनाव क्षेत्र गोरखपुर तथा साथ ही फूलपुर के लोकसभा उप चुनाव हार गई थी। पार्टी गुजरात मुश्किल से जीती और कर्नाटक में कांग्रेस-जनता दल सैक्यूलर गठबंधन से हार गई। 2014 के बाद 30 लोकसभा से सीटों पर उपचुनाव हुए इनमें से 16 सीटें भाजपा के पास थी लेकिन पार्टी केवल 6 सीटें ही जीत सकी। लोगों का संदेश साफ था। इन नतीजों के पांच मुख्य नतीजे निकलते हैं:-
एक, कांग्रेस देश में खत्म नहीं हुई जैसा एक समय लग रहा था। उलटा कांग्रेस की वापिसी हो रही है। वह भाजपा के बाद दूसरी बड़ी पार्टी है चाहे तेलंगाना में उन्हें भी टीआरएस से बुरी मार मिली है। कांग्रेस अब भाजपा का विकल्प बन उभर सकती है और यह दावा कर सकेगी कि भाजपा के विरुद्ध किसी अखिल भारतीय गठबंधन की वह स्वाभाविक धुरी है। संसद अधिवेशन में कांग्रेस के तीखे तेवर नजर आ सकते हैं लेकिन संगठन अभी भी कमज़ोर है।
दो, कांग्रेस के अंदर राहुल गांधी का नेतृत्व पक्का हो गया है। उन्हीं ने आगे आकर नरेन्द्र मोदी से सीधी टक्कर ली और राफेल का मुद्दा उठा कर मोदी ब्रांड की चमक कम करने की कोशिश की। इससे पहले उनका ‘सूट-बूट की सरकार’ का कटाक्ष भी काफी प्रभावी रहा था। राहुल गांधी में अपनी दादी इंदिरा गांधी वाला आकर्षण नहीं है। वह उतनी आसानी से लोगों के साथ रिश्ता कायम नहीं कर सकते लेकिन उनमें मेहनत करने का जज्बा है और वह धुन के पक्के नज़र आते हैं। जीतने के लिए दृढ़ संकल्प नज़र आता है।
राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने बड़ा सैद्धांतिक परिवर्तन किया है और जिसे नरम हिन्दुत्व कहा जाता है अपना लिया। पार्टी की निरन्तर हार के बाद समझ लिया गया कि बहुसंख्यक हिन्दू नाराज़ हैं इसलिए राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस का नया डिसाइन बनाया गया। इसीलिए ‘जनेऊधारी राहुल’, कैलाश मानसरोवर यात्रा तथा उनका मंदिर-मंदिर भटकना। यह केवल श्रद्धा का मामला ही नहीं था यह सोची-समझी रणनीति का परिणाम है। बैरन मेघनाद देसाई ने दिलचस्पी टिप्पणी की है कि “जब मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की कोशिश कर रहे थे राहुल ने नेहरू-मुक्त कांग्रेस की स्थापना कर दी।“ अर्थात नेहरू की सैक्यूलर नीति को त्याग दिया गया। राहुल गांधी ने तो नरेन्द्र मोदी के हिन्दू होने पर ही सवाल खड़ा कर दिया। उन्होंने अनावश्यक अपना गौत्र भी कौल दत्तात्रेय बताया है। एक आधे पारसी पिता तथा ईसाई माता की संतान कैसे ब्राह्मण हो गई यह मेरी समझ से बाहर है लेकिन राहुल तो मोदी के साथ बड़ा हिन्दू सिद्ध करने की रेस में हैं।
तीन, भाजपा को धक्का पहुंचा है लेकिन पार्टी फिर भी खड़ी है। मध्यप्रदेश में विशेष तौर पर 15 साल शासन करने के बाद शिवराज सिंह चौहान का प्रदर्शन अच्छा रहा। पर आम चुनाव से छ: महीने पहले मोदी ब्रैंड को झटका पहुंचा है। लेकिन याद रखना चाहिए कि चाहे भाजपा को धक्का जरूर पहुंचा है विधानसभा चुनाव राष्ट्रीय रुझान की सही भविष्यवाणी नहीं है। 2003 के चुनावों में कांग्रेस मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ हार गई थी लेकिन अगले साल ही अपनी सरकार बनाने में कामयाब हो गई। 2008 में फिर कांग्रेस मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ हार गई लेकिन राजस्थान जीत गई और 2009 में फिर दिल्ली में सरकार बनाने में कामयाब हो गई।
चार, अर्थात यह चुनाव 2019 के सूचकांक बिलकुल नहीं हैं क्योंकि तब सीधी टक्कर नरेन्द्र मोदी के साथ होगी। अगर भाजपा तथा कांग्रेस को छोड़ कर तीसरी पार्टियों का महागठबंधन बना तो तिकोनी टक्कर में कुछ भी हो सकता है। महागठबंधन में ममता बैनर्जी, शरद पवार, चंद्र बाबू नायडू तथा के. चंद्रशेखर राव जैसे नेता हैं जो कांग्रेस या राहुल का नेतृत्व शायद ही स्वीकार करे। 21 पार्टियों के इकट्ठ से मायावती तथा अखिलेश यादव की गैरमौजूदगी कई सवाल खड़े करती है। और यह भी याद रखना चाहिए कि मोदी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई मामला नहीं जैसा मनमोहन सिंह सरकार के पतन का कारण बना। राफेल का मामला है लेकिन अभी कोई सबूत नहीं है जो इसे सत्तारुढ़ लोगों के बैंक खातों से जोड़ता हो। और नरेन्द्र मोदी में टक्कर लेने की अपार क्षमता है।
पांच, इस सबके बावजूद सत्तारुढ़ दल को समझना चाहिए कि लोग खुश नहीं हैं। वायदे पूरे नहीं हुए। गवरनैंस में सुधार नहीं हुआ। रुपए की कीमत में गिरावट तथा सही नौकरियां पैदा करने में असफलता, सीबीआई तथा आरबीआई जैसे संस्थाओं की असंतोषजनक हालत से छवि में खरोंच लगी है कि वह सरकार तथा अर्थव्यवस्था के कुशल मैनेजर हैं। विशेष तौर पर ग्रामीण क्षेत्र में सुधार नहीं हुआ। देश की आबादी का 50 प्रतिशत से अधिक खेती पर निर्भर है लेकिन वह जीडीपी का केवल 14 प्रतिशत ही पैदा करते हैं। खेत छोटे हो रहे हैं और खेती लाभदायक नहीं रही। जाट, पाटीदार तथा मराठा जैसी ज़मीनदार जमात अगर आरक्षण की मांग कर रही है तो इसलिए कि खेती लाभदायक नहीं रही और नौकरियां नहीं है। कृषि में ठहराव आ गया है। यही कारण है कि किसान बार-बार दिल्ली और मुंबई की सडक़ों पर प्रदर्शन कर रहे हैं। 2014-18 में कृषि का विकास केवल 2.4 प्रतिशत प्रति वर्ष हुआ है जबकि उससे पहले चार वर्षों में यह 5.2 प्रतिशत प्रति वर्ष था। 2014-16 के बीच 36420 किसानों ने आत्महत्या की थी। आमदनी दोगुनी करने का वादा पूरा होता नज़र नहीं आता।
अगले छ: महीने अनिश्चितता भरे होंगे। पिछली बार भाजपा केवल 31 प्रतिशत वोट पर जीती थी अर्थात अगर इस बार विपक्ष इकट्ठा हो जाता है तो बनवास हो सकता है लेकिन यह होगा नहीं। भाजपा की भी यह कमजोरी है कि हिन्दुत्व का मुद्दा प्रभावी नहीं रहा। राम मंदिर बनने या न बनने से वोट पर असर नहीं पड़ेगा क्योंकि लोग अपनी रोजमर्रा समस्याओं पर केन्द्रित हैं। योगी आदित्यनाथ को प्रचार में उतारने का कोई फायदा नहीं क्योंकि उत्तर प्रदेश की हालत बदत्तर है और लोग देख रहे हैं कि जब बुलंदशहर में एक पुलिस अफसर की भीड़ ने हत्या कर दी तो योगी ने पहले तो अधिक परवाह नहीं की फिर इसे ‘दुर्घटना’ करार दिया। सोमवार को दिल्ली की सडक़ों पर बजरंग दल के भड़के लोग नारे लगा रहे थे “एक धक्का और दो जामा मस्जिद तोड़ दो।“ यह शर्मनाक है कि इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। हमने देश के विकास के लिए वोट दिया था, इसे सीरिया बनाने के लिए नहीं।
भारत, न ‘कांग्रेस मुक्त’ न ‘भाजपा मुक्त’ (India Neither Congress Mukt nor BJP Mukt),