
पिछले कुछ दिन कांग्रेस के लिए अच्छे रहे। मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में उसकी सरकारें स्थापित हो गई हैं। पहले ही दिन मध्यप्रदेश के नए मुख्यमंत्री कमलनाथ ने दो लाख रुपए तक का किसान कर्जा माफ करने की घोषणा कर एक चुनावी वादा आंशिक पूरा कर दिया। यह रकम 30-35 हजार करोड़ रुपए बनती है जबकि प्रदेश का वार्षिक बजट 18000 करोड़ रुपए है। कमलनाथ जी कौन सी जादूगरी दिखाएंगे यह देखना होगा?
जिस दिन नए मुख्यमंत्रियों को शपथ दिलवाई गई उसी दिन दिल्ली हाईकोर्ट का निर्णय आ गया और 1984 के सिख विरोधी दंगों से संबंधित मामले में कांग्रेस के बड़े नेता सज्जन कुमार को ताउम्र जेल की सजा दी गई। यह दंगे सदैव देश के माथे पर कलंक रहेंगे। बराबर का कलंक यह है कि 34 साल बड़े दोषियों को सजा नहीं दी गई। एचएस फुलका तथा दूसरे जिन लोगों ने 34 साल यह लड़ाई लड़ी बधाई और धन्यवाद के पात्र हैं, उन्होंने सिखों की ही नहीं देश की लड़ाई लड़ी है। कांग्रेस पार्टी के लिए रंग में भंग हो गया। कई बार अतीत पीछा नहीं छोड़ता। अभी मामला खत्म नहीं हुआ क्योंकि ताज़ा नए मुख्यमंत्री कमलनाथ का नाम उछलना शुरू हो गया है।
दूसरी तरफ इन चुनाव परिणामों से भाजपा तथा उसका नेतृत्व सन्न है। भाजपा के दो बड़े नेता, नरेन्द्र मोदी तथा अमित शाह ने उदारता से अपनी हार भी स्वीकार नहीं की। इन तीन प्रदेशों में भाजपा 177 सीटें हार गई है जबकि कांग्रेस ने 158 सीटें जीती है। भाजपा के लिए यह भी बुरी खबर है कि यह प्रभाव फैल गया है कि नरेन्द्र मोदी को हराया जा सकता है। यह तीन प्रदेश लोकसभा को 65 सांसद भेजते हैं इनमें से पिछली बार 62 भाजपा के सांसद थे। अगर भाजपा ने फिर इसी तरह से सत्ता में आना है तो उसे जिसे हिन्दी हार्टलैंड कहा जाता है उसमें अपना वर्चस्व कायम रखना है। यह मुश्किल काम नज़र आता है।
यह भी साफ है कि राम मंदिर के सपने से भाजपा की समस्या दूर होने नहीं वाली। अगर सरकार अध्यादेश लाती भी है, तो भी वोट में बहुत फायदा नहीं होगा। हां इतना अवश्य होगा कि मोदी सरकार की कारगुजारी से उदासीन संघ और उसकी संस्थाओं के कार्यकर्त्ता सक्रिय हो जाएंगे नहीं तो उनके घर में बैठे रहने की संभावना है। हालत है कि भाजपा की पराजय से उसके समर्थक भी नाखुश नहीं वह भी समझते हैं कि इन्हें एक झटका चाहिए था और जरूरी था कि भाजपा की सर्वशक्तिमान जोड़ी को आसमान से जमीन पर उतारा जाए। प्रशंसक भी कह रहे हैं कि अहंकार बहुत हो गया था। आदित्यनाथ योगी को बाकी देश के लोग पर लादना बताता है कि भाजपा का नेतृत्व किस प्रकार लोगों से कट गया था। इसलिए जनता ने अपनी ‘मन की बात’ स्पष्ट कर दी।
कांग्रेस जिसे लोगों ने खारिज कर दिया था, उसकी वापिसी हो रही है पर नेतृत्व को यह आभास होगा कि यह वोट इतना कांग्रेस के पक्ष में नहीं था जितना भाजपा के विरोध में था। कांग्रेस की जगह कोई और पार्टी होती तो भी लोग अपनी भड़ास निकालने के लिए उसे वोट दे देते। 2019 के चुनाव में टक्कर नरेन्द्र मोदी से होगी इसलिए कांग्रेस को अधिक आश्वस्त नहीं होना चाहिए और इसीलिए मैं कह रहा हूं कि पिक्चर अभी बाकी है!
एक, जिस तरह तीनों प्रदेशों में कांग्रेस ने मुख्यमंत्री का चयन किया है वह कई सवाल छोड़ गया है। पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है और पिछली पराजय से कोई सबक नहीं सीखा गया। जो निर्णय लिए गए वह केवल सोनिया गांधी,राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने मिल कर लिए बाकी वरिष्ठ नेता हाशिए पर थे। उनका इस्तेमाल केवल मैसेंजर की तरह ही किया गया। संसदीय बोर्ड अगर है तो उसकी बैठक नहीं हुई। क्या देश की दूसरी बड़ी पार्टी के फैसले अब गांधी परिवार के डाइनिंग टेबल पर होंगे?
दो, मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्या सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलट को प्रदेश की बागडोर क्यों नहीं सौंपी गई? कांग्रेस तो दावा करती रही कि वह युवाओं की पार्टी है लेकिन जब मौका आया तो फिर नेतृत्व उन घीसे-पिटे पुराने लोगों को सौंप दिया गया। राजस्थान में विशेष तौर पर सचिन पायलट ने बहुत मेहनत की थी। विपरीत परिस्थिति में पार्टी को जीवित रखा लेकिन जब पार्टी जीत गई तो जिम्मेवारी उन अशोक गहलोत को सौंप दी गई जिनके कारण पार्टी पिछला चुनाव हारी थी।
सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस के लिए युवा सशक्तिकरण भी एक जुमला ही है जिनका इस्तेमाल केवल वोट एकत्रित करने के लिए किया जाता है? जहां शून्य अनुभव वाले 47 वर्ष के राहुल गांधी को तो पार्टी सौंपी जा सकती है क्योंकि “पीढ़ी परिवर्तन की जरूरत है” पर जब मुख्यमंत्री का चुनाव होना है तो “युवा जोश के उपर अनुभव” को प्राथमिकता दी जाती है? इस देश की आधी जनसंख्या 25 वर्ष से कम है उनके लिए कांग्रेस का क्या संदेश है? कि अनुभवहीन राहुल को तो गलतियों से सीखने का अधिकार है पर बाकी युवा नेताओं पर भरोसा नहीं किया जा सकता? क्या पायलट या सिंधिया केवल आंख मारने या जप्फी डालने के लिए ही है? लेकिन क्या इसका असली कारण यह तो नहीं कि कांग्रेस के बॉस असुरक्षित महसूस कर रहें हैं कि यह प्रतिभाशाली युवा तुर्क आगे चल कर कहीं उन्हें चुनौती न दे दे? इस परिवार की रिवायत है कि उसने कभी ऐसे लोगों को बढ़ावा नहीं दिया जो चुनौती बन सके। वीपी सिंह या पीवी नरसिम्हा राव जैसे लोगों की बगावत से सबक ग्रहण किया गया है इसलिए जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री के पद से इंकार किया तो सबसे वरिष्ठ और अनुभवी प्रणब मुखर्जी को नहीं बल्कि आधारहीन डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया।
तीन, राहुल गांधी का भ्रष्टाचार वाला मुद्दा भी उनसे छीन लिया गया है। वह लाख ‘चोर’ – ‘चोर’ करते रहे पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि राफेल की खरीद में कोई गड़बड़ नहीं हुई। किसी को व्यवसायिक लाभ पहुंचाने का कोई सबूत नहीं है। अब राहुल गांधी कह रहे हैं कि वह भ्रष्टाचार सिद्ध कर के रहेंगे लेकिन इसके लिए कोई समय सीमा है क्या? तीन महीने? छ: महीने? साल? आखिर किसी दिन तो आरोप साबित करने पड़ेंगे और अगर नहीं होते तो क्या वह संवेदनशील रक्षा मामले पर देश को गुमराह करने की माफी मांगेंगे?
चार, इस वक्त राहुल गांधी विपक्ष के बड़े नेता बन उभरे हैं लेकिन अभी सबको वह स्वीकार नहीं। चेन्नई में स्टालिन ने उन्हें भावी प्रधानमंत्री घोषित कर दिया पर उपस्थित बाकी किसी नेता ने इसका अनुमोदन नहीं किया। ममता बैनर्जी खुद दावेदार हैं। तेलंगाना में भारी विजय के बाद केसीआर अब ‘राष्ट्रीय भूमिका’ के लिए तैयारी कर रहे हैं। अनिच्छुक मायावती ने मध्यप्रदेश तथा राजस्थान में कांग्रेस को समर्थन दे उनकी सरकारें तो बनवा दी लेकिन दोनों जगह शपथ ग्रहण समारोह से उनकी अनुपस्थिति भी संदेश है कि बहन जी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पैर जमाने के लिए जगह नहीं देने जा रही। न ही ममता बैनर्जी या अखिलेश यादव ही वहां उपस्थित थे।
पांच, कांग्रेस के लिए असली चुनौती है कि मुकाबला अब सीधा होगा और नरेन्द्र मोदी बहुत जबरदस्त प्रतिद्वंद्वी हैं। अगला बड़ा चुनाव भारत के प्रधानमंत्री के चुनाव के लिए होगा। अंतराष्ट्रीय विशेषज्ञ मिलन वैष्णव लिखते हैं, “2019 में भाजपा को हराना आसान नहीं होगा। जहां वह इसे राष्ट्रपति के चुनाव जैसा बनाने में सफल होते हैं वहां भाजपा सर्वोच्च रहेगी।“ न्यूयार्क की मीडिया कंपनी ब्लूमबर्ग का कहना है कि “पीएम मोदी की छवि अभी भी एक मेहनती, भ्रष्ट न किए जा सकने वाले चाय वाले के पुत्र की है जो भारत को अधिक शक्तिशाली और गौरवान्वित करना चाहता है। यह स्थाई प्रभाव भाजपा का तुरुप का पत्ता है।“
राहुल गांधी के सामने बहुत अवरोध हैं लेकिन उन्होंने कांग्रेस की पिछली शिकस्त से सही व्यक्तिगत सबक सीखा है। जीत के बाद उन्होंने पूरी विनम्रता दिखाई यहां तक कि तीनों पूर्व भाजपा मुख्यमंत्रियों की प्रशंसा की और उनके काम को आगे लेकर चलने का संकल्प प्रकट किया। राहुल ने फिर एक बार कहा कि वह भाजपा को हराना चाहते हैं पर ‘भाजपा मुक्त’ भारत उनका निशाना नहीं। बहुत देर के बाद देश की गला काट राजनीति में किसी नेता से ऐसी विनम्रता दिखाई है। राहुल ने एक बात और कही। उनका कहना था कि उन्होंने मोदीजी से सीखा है कि क्या नहीं करना चाहिए लेकिन असली बात तो यह है कि क्या मोदीजी ने भी मोदीजी से सीखा है कि क्या नहीं करना चाहिए? इसी पर निर्भर करेगा कि फिल्म हिट होती है या फ्लॉप!
पिक्चर अभी बाकी है दोस्त! (The Picture is Not Finished Yet),