वैसे तो देश में कई ‘एक्सिडैंटल’ अर्थात आकस्मिक प्रधानमंत्री रहें हैं। सबसे प्रमुख नाम इंदिरा गांधी का है। अगर शास्त्रीजी का ताशकंद में देहांत न होता तो देश का राजनीतिक इतिहास ही कुछ और होता। न तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनती और न ही दशकों एक परिवार का शासन रहता। सोनिया गांधी खुद प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनी यह भी रहस्य की बात है क्योंकि वह पहले 1999 में प्रधानमंत्री बनने की महत्वकांक्षा प्रदर्शित कर चुकी थीं पर मुलायम सिंह यादव ने अडिंग़ा दे दिया। शायद इसी अनुभव को याद रखते हुए उन्होंने महत्वकांक्षाविहीन डॉ. मनमोहन सिंह को 2004 में प्रधानमंत्री घोषित कर दिया था। तब सोनिया गांधी की ‘कुर्बानी’ का बहुत प्रचार किया गया लेकिन बाद में स्पष्ट हो गया कि उन्होंने पद जरूर छोड़ा है, सत्ता नहीं। सरकार की लगाम उनके हाथ में थी। डॉ.मनमोहन सिंह केवल आकस्मिक ही नहीं कई मामलों में लाचार प्रधानमंत्री भी थे।
डॉ. मनमोहन सिंह के शासनकाल में पर्दे के पीछे क्या चलता रहा इसके बारे काफी जानकारी 2004 से 2008 तक उनके मीडिया सलाहाकार रहे संजय बारू ने अपनी दिलचस्प किताब ‘द एक्सिडैंटल प्राइम मिनिस्टर’, ‘द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह’, अर्थात ‘आकस्मिक प्रधानमंत्री, मनमोहन सिंह को बनाना और उन्हें खत्म करना’ में दी है। इस किताब पर इसी नाम की फिल्म तैयार है जिसका ट्रेलर बाहर आ चुका है। लेकिन फिल्म को लेकर विवाद खड़ा हो गया है क्योंकि फिल्म में डाक्टर साहिब की अनाकर्षक तस्वीर पेश की गई है। कुछ कांग्रेसी तो देश भर में इस पर पाबंदी लगाने की मांग कर रहे हैं लेकिन बाद में नेतृत्व को समझ आ गई कि वह एनडीए सरकार के समय ‘असहिष्णुता’ की शिकायत नहीं कर सकते अगर वह इस फिल्म पर जबरी पाबंदी की कोशिश करेंगे। अफसोस है कि इस देश में लोगों की भावनाएं बहुत जल्दी आहत हो जाती हैं। फिल्म पदमावत को लेकर भी विवाद हो चुका है। आशा है कि अगर कभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर कोई फिल्म बनाए तो भाजपाई उसके बारे भी उदारता दिखाएंगे।
आम तौर पर खामोश रहने वाले डॉ. मनमोहन सिंह ने अब एक तीखी टिप्पणी की है। अपने विरोधियों विशेष तौर पर नरेन्द्र मोदी के व्यंग्य कि वह ‘मौन सिंह’ थे पर डाक्टर साहिब का जवाब था, “मैं वह प्रधानमंत्री नहीं था जो प्रैस से बात करने से डरता था। मैं नियमित तौर पर प्रैस से मिलता था।“ डाक्टर साहिब की बात बिल्कुल सही है साल में एकाध प्रैस कांफ्रैंस वह जरूर कर लेते थे। विदेश यात्रा से लौटने के वकत भी वह मीडिया से बात करते थे। इस मामले में नरेन्द्र मोदी कमजोर रहे। उन्होंने अपने कार्यकाल में एक भी खुले पत्रकार सम्मेलन को संबोधित नहीं किया। कुछ चुने गए पसंदीदा पत्रकारों को बुला कर पहले तय किए प्रश्नों का जवाब देना बहुत मायने नहीं रखता। हर लोकतंत्र में नेता को प्रैस का सामना कर जवाब देना चाहिए। भारत के सभी प्रधानमंत्री करते रहे हैं। पाकिस्तान जैसे देश में भी इमरान खान मीडिया कर सामना करते रहते हैं। राहुल गांधी भी मीडिया से नियमित मिलते हैं।
डॉक्टर मनमोहन सिंह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में कुछ समानता भी है। दोनों ने शुरू में बहुत संघर्ष किया लेकिन दोनों के रास्ते अलग रहे। मनमोहन सिंह एक बुद्धिजीवी है जिन्होंने कई पदों पर रह कर देश की सेवा की। देश की अर्थ व्यवस्था में जो रफ्तार आई है उसके एक शिल्पकार मनमोहन सिंह भी हैं। नरेन्द्र मोदी की जवानी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में गुजरी। वह प्रचारक रहे और बाद में गुजरात के मुख्यमंत्री बने लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की तरह ही उन्होंने संघ को हावी नहीं होने दिया। आज वह अपने मुकद्दर के मालिक हैं। सही-गलत सब उनका है। कोई यह दावा नहीं कर सकता कि नरेन्द्र मोदी को किसी ने पीछे से आदेश दिया। दुर्भाग्यवश यही बात डॉ. मनमोहन सिंह के बारे नहीं कही जा सकती थी।
डॉक्टर साहिब ने यह जरूर कहा है कि वह मीडिया से मिलने से डरते नहीं थे लेकिन यह भी तो सही है कि वह जनता का सामना करने से डरते थे इसीलिए उन्होंने लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा। राजनीतिक जीवन में उनकी सत्यनिष्ठा की जायज़ प्रशंसा होती है लेकिन उन्हें यह अटपटा नहीं लगा कि एक पंजाबी होकर, अधिक समय दिल्ली में रहते हुए, राज्यसभा में जाने के लिए दूर असम की राह पकड़ी? वहां के वोटर बन गए। उनसे पहले इंदिरा गांधी तथा पीवी नरसिम्हा राव भी आकस्मिक प्रधानमंत्री बने थे लेकिन दोनों जल्द लोकसभा के सदस्य बन गए थे।
उनके सीधा चुनाव न लडऩे से उनका तथा उनके पद का अवमूल्यन हुआ था। यहां सवाल यह भी उठता है कि क्या वह जनता से घबराते थे या गांधी परिवार से? क्या वह समझते थे कि सीधा चुनाव लडऩे से यह प्रभाव जाएगा कि वह अपनी आजाद हस्ती कायम करने की तैयारी कर रहे हैं और गांधी परिवार के प्रभाव से मुक्त होना चाहते हैं? और उनमें गांधी परिवार को चुनौती देने का दम नहीं था? क्या वह समझते थे कि अगर उन्होंने खुद को आजाद स्थापित करने का प्रयास किया तो उनका भी वहीं हश्र होगा जो गांधी परिवार ने उनके संरक्षक पीवी नरसिम्हा राव का किया था?
हमारी राजनीति का यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण अध्याय है जब एक प्रधानमंत्री ने स्वेच्छा से अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया था। 2009 में उन्होंने कुछ हिम्मत भी दिखाई थी लेकिन शीघ्र यह साफ हो गया कि मंत्री वही बनेगा जिसको सोनिया गांधी चाहेंगी। संजय बारू ने अपनी किताब में लिखा है, “कांग्रेस के सांसदों के लिए जिस नेता को खुश रखना था वह सदा सोनिया गांधी थी। मनमोहन सिंह के प्रति वफादारी दिखाने कि उन्हें जरूरत महसूस नहीं हुई। न ही डॉक्टर साहिब ने ऐसी वफादारी की मांग ही की।“ मंत्रिमंडल पर उन्होंने नियंत्रण खो दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर उनका कोई नियंत्रण नहीं रहा। सभी घोटालों से उत्पन्न बदनामी उनके नाम लिखी गई पर सोनिया गांधी पर कोई आंच नहीं आई। अफसोस खुद डॉक्टर साहिब ने प्रधानमंत्री बने रहने के लिए यह व्यवस्था स्वीकार कर ली थी कि अच्छे कामों का श्रेय सोनिया गांधी को जाएगा, बदनामी उनके नाम रहेगी। जैसे-जैसे उनकी सरकार की प्रतिष्ठा गिरी उनकी अपनी प्रतिष्ठा भी गिरती गई।
डॉक्टर मनमोहन सिंह की सरकार के लिए वह कड़वा क्षण था जब सितम्बर 2013 में उनकी अमेरिका यात्रा के ठीक बीच जब वह कुछ ही मिनटों के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति को मिलने जाने वाले थे, राहुल गांधी ने एक पत्रकार सम्मेलन में सरकार के दागी प्रतिनिधियों के बारे अध्यादेश के टुकड़े-टुकड़े कर दिए थे। गांधी परिवार के वारिस की प्रधानमंत्री तथा उनकी सरकार की अवमानना का यह सार्वजनिक प्रदर्शन था। कोई और होता तो यह मांग रखता कि या राहुल गांधी माफी मांगें नहीं तो मैं इस्तीफा दे देता हूं। पर आहत मनमोहन सिंह इस बेइज्जती को चुपचाप पी गए।
डॉक्टर मनमोहन सिंह एक नेक, ईमानदार और शिष्ट इंसान हैं। उन्होंने केवल अमेरिका के साफ परमाणु समझौते के समय अपना दमखम दिखाया था बाकी समय मानहानि तथा अपमान सहते हुए भी कुर्सी से चिपके रहे और यह प्रभाव दिया कि वह राहुल के लिए कुर्सी गर्म रखे हुए है। उन्हीं के शासनकाल के दौरान देश में सबसे अधिक भ्रष्टाचार हुआ था। उनकी राजनीतिक बुज़दिली के कारण उन्होंने अपना तथा देश के प्रधानमंत्री के पद का जितना नुकसान किया उतना किसी और ने नहीं किया। इस फिल्म ने उस दागदार कार्यकाल की याद ताज़ा कर दी। एक उल्लेखनीय वार्तालाप में संजय बारू ने डॉक्टर मनमोहन सिंह को यह कहते उद्धत किया, ”आपको एक बात समझनी चाहिए। मैंने इससे समझौता कर लिया है। सत्ता के दो केन्द्र नहीं हो सकते। उससे अव्यवस्था होती है। मुझे यह स्वीकार करना है कि पार्टी की अध्यक्षा सत्ता की केन्द्र है। सरकार पार्टी को जवाबदेह है।“
यह आजाद भारत में किसी प्रधानमंत्री द्वारा सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्वीकृति है। देश का प्रधानमंत्री संसद और जनता को जवाबदेह है, पार्टी अध्यक्ष के प्रति नहीं। डॉक्टर साहिब ने अपनी हालत यह बना ली थी कि वह कुर्सी पर जरूर थे पर सत्ता किसी और के हाथ में थी।
आकस्मिक और लाचार प्रधानमंत्री (Accidental and Ineffective PM),