
पुरानी बात है। लाल कृष्ण आडवाणी के साथ एक मुलाकात के दौरान जब मैंने प्रियंका गांधी के बारे पूछा तो उनका उतर था, “हां, वह एक इलैक्शन जीत सकती है।“ उस उक्त आडवाणीजी देश के गृहमंत्री थे। तब से लेकर अब तक बहुत कुछ बदल चुका है। भाजपा सत्ता में है और नरेन्द्र मोदी में उनके पास एक सशक्त नेता है। कांग्रेस फिर से प्रासंगिक बनने के लिए हाथ-पैर मार रही है। इस दौरान प्रियंका गांधी राजनीति से लगभग दूर ही रहीं और खुद को अमेठी तथा रायबरेली की देखभाल तक ही सीमित रखा। पर्दे के पीछे से वह अपनी मां तथा भाई को जरूर सलाह देती रहीं।
अब चुनाव से पहले प्रियंका के राजनीति में प्रवेश की घोषणा कर दी गई है। क्या वह ‘एक इलैक्शन’ जीत सकती हैं? कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने अपना ब्रह्मास्त्र चल दिया पर उल्लेखनीय है कि ब्रह्मास्त्र एक ही बार चलता है। बताया गया है कि वह सहज हैं, हिन्दी अच्छी बोलती हैं, लोगों के साथ संवाद कायम करना उनके लिए बहुत आसान है। यह बातें सही है लेकिन इसमें यह स्वीकृति भी कहीं छिपी हुई है कि भाई राहुल गांधी के पास इन्हीं विशेषताओं का अभाव है और पार्टी को उभारने के लिए केवल राहुल ही पर्याप्त नहीं। मीडिया भी प्रियंका के प्रति राहुल से अधिक उदार नजर आता है। प्रियंका की यह खास तारीफ की जा रही है कि वह दूसरी इंदिरा गांधी लगती है। तो क्या यह इंदिरा गांधी द्वितीय का प्रवेश है?
नहीं, मैं नहीं मानता कि प्रियंका दूसरी इंदिरा जी है। शक्ल-सूरत, हाव-भाव एक जैसे हैं लेकिन परिस्थितियां बहुत अलग है। जिस कांग्रेस पार्टी की इंदिरा जी नेता थी और जो कांग्रेस पार्टी आज बन चुकी है उसमें भी जमीन-आसमान का अंतर है। इंदिरा गांधी आजादी की लड़ाई की बेटी थी। बहुत बार दोनों मां-बाप जेल में थे। बहुत अकेलापन देखा। उन्हें आभास था की वह जवाहर लाल नेहरू की बेटी है। एमरजैंसी लगा कर उसे हटाने के पीछे भी बड़ा कारण था कि इंदिरा गांधी इस आलोचना से परेशान थी कि जवाहरलाल नेहरू की बेटी ने लोकतंत्र को जेल में डाल दिया। इंदिरा जी के समय की कांग्रेस भी अलग थी। जवाहरलाल नेहरू के देहांत के बाद लाल बहादुर शास्त्री, जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, के. कामराज, जगजीवन राम, चव्हाण जैसे बड़े नेता मौजूद थे। इंदिरा गांधी पर अपने पति फिरोज गांधी का भी कुछ प्रभाव था जबकि प्रियंका गांधी के पति राबर्ट वाड्रा है जिनके विवादास्पद ज़मीनी सौदे सब जानते हैं। कुछ महीने पहले तक देश के हवाई अड्डों पर जिन डेढ़ दर्जन महानुभावों की विशिष्ठ सूची लगी थी जिनकी तलाशी नहीं ली जानी, उनमें राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश, लोकसभा अध्यक्ष आदि के साथ राबर्ट वाड्रा का नाम भी लिखा होता था।
इसकी इजाजत क्यों दी गई? दामाद जी इतने ताकतवर कैसे हो गए? जब एक दिन अचानक राबर्ट वाड्रा ने यह घोषणा कर दी कि वह राजनीति में कदम रखने जा रहे हैं तो अगले ही दिन परेशान प्रियंका ने मीडिया को बता दिया कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला क्योंकि “वह अपने बिजनेस में बिज़ी हैं।“ अर्थात प्रियंका को पति का बोझ उठाना पड़ रहा है ऐसी परेशानी इंदिरा गांधी को कभी नहीं रही। प्रियंका के लिए बड़ी समस्या है कि पार्टी का दायरा भी सिकुड़ चुका है। स्वर्ण सिंह जैसे मंत्री जो इंदिरा गांधी को उपलब्ध थे, वैसे लोग कांग्रेस में अब कहां है? अब तो यह जी हजूरियों की पार्टी बन चुकी है। पीएन हकसर, एलके झा, पीएन धर, शारदा प्रसाद जैसे सलाहकार भी कहां है? असुरक्षित गांधी परिवार ने पार्टी को अपने तीन लोगों के इर्द-गिर्द जमा कर लिया है। यही पार्टी का हाईकमान है। राहुल बहुत मेहनत कर रहे हैं पर संगठन ठप्प है। जो समर्थन मिल रहा है वह मोदी सरकार तथा भाजपा के खिलाफ एंटी इकमबेंसी वोट से मिल रहा है। लोग अपनी नाराजगी दिखा रहे हैं। यह मोदी विरोधी वोट कांग्रेस को वहां मिल रहा है जहां केवल वह ही सामने है जहां मजबूत प्रादेशिक पार्टी मौजूद है वहां कांग्रेस तीसरे या चौथे नंबर पर है।
प्रियंका गांधी के प्रवेश से कांग्रेस के वर्कर में अवश्य जान पड़ी है लेकिन उत्तर प्रदेश, बंगाल, तमिलनाडू जैसे बड़े प्रदेशों में कांग्रेस है कहां? 2009 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को 21 सीटें मिली थीं अगले चुनाव में वह गिर कर 2 रह गई। केवल 7.5 प्रतिशत वोट ही मिल था। 2017 का विधानसभा चुनाव सपा के साथ मिल कर लड़ा गया। अमेठी और रायबरेली की 10 सीटों में से कांग्रेस को केवल 4 सीटें ही मिली जबकि इन दोनों सीटों की प्रभारी प्रियंका ही थी। बाद में अखिलेश यादव ने माना था कि कांग्रेस के साथ गठबंधन ने उन्हें डैमेज किया है।
अब पूर्वी उत्तर प्रदेश प्रियंका गांधी के हवाले कर दिया गया है जहां प्रधानमंत्री का चुनाव क्षेत्र वाराणसी भी है और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गोरखपुर भी है। यहां अभी तक मुख्य मुकाबला भाजपा तथा बसपा-सपा के बीच है। गांधी परिवार की एक कमजोरी और है। वह अपने दो चुनाव क्षेत्रों अमेठी तथा रायबरेली में कुछ बदल नहीं सके। हर बड़ा नेता अपने चुनाव क्षेत्र का कायाकल्प कर सका पर गांधी परिवार ने अमेठी तथा रायबरेली में अधिक प्रयास नहीं किया। लेखक और अर्थशास्त्री रुचिर शर्मा ने 2004 चुनाव के समय की बात अब लिखी है कि अमेठी तो वीआईपी चुनाव क्षेत्र लगता ही नहीं था। वह उत्तर प्रदेश का सामान्य पिछड़ा इलाका लग रहा था। जब प्रियंका गांधी से उन्होंने इसके बारे पूछा तो हैरान करने वाला जवाब था, “क्योंकि मेरे पिता राजीव गांधी प्रधानमंत्री है इसलिए फंड लाना मुश्किल हो रहा है। विपक्षी पार्टियों ने साजिश कर अमेठी को फंड नहीं लेने दिए।“
न ही प्रियंका अभी तक वोट कैचर साबित हुई है। वह लोगों में उस तरह घुल-मिल जाती है जैसा आज तक उनका बड़ा भाई नहीं कर सका लेकिन अभी तक कोई सबूत नहीं कि वह वोट एकत्रित कर सकती हैं। शायद अगर कुछ समय पहले उन्हें मैदान में उतारा जाता तो वह अपना कमाल दिखा पाती। न ही उन्हें पूरे देश में उतारा गया है। अब नई पीढ़ी आगे आ गई है जो आगे की तरफ देख रही है पीछे की तरफ नहीं।
जिस तरह बसपा-सपा ने अपमानजनक तरीके से कांग्रेस से बर्ताव किया है उसका जवाब देने के लिए प्रियंका को बाहर निकाला गया लगता है। कांग्रेस समझ गई कि अगर वह उत्तर प्रदेश से बाहर हो गई तो फिर केन्द्र में कभी उसकी वापिसी नहीं होगी इसीलिए परिवार ने अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया है। यही कारण है कि मायावती तथा ममता बैनर्जी जैसी नेताओं ने प्रियंका के प्रवेश का स्वागत नहीं किया। वह समझ गई है कि कांग्रेस अपने बल पर खड़ा होना चाहती है किसी महागठबंधन या तीसरे-चौथे मोर्चे में उसकी दिलचस्पी नहीं। अब कांग्रेस उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में भी अकेले चुनाव लडऩे जा रही है। अर्थात पार्टी आत्म विश्वास दिखा रही है, पर यह कितना जायज है यह तो समय ही बताएगा।
जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है यहां जाति राजनीति का घालमेल है इसमें प्रियंका गांधी क्या गज़ब करती हैं यह अभी देखना बाकी है। कांग्रेस के साथ इस वक्त कोई वर्ग जुड़ा नहीं। प्रियंका शायद ब्राह्मण वोट आकर्षित कर सकें। जो पार्टी मात्र 44 सीटों तक गिर चुकी है उसे बिना किसी वैकल्पिक विचारधारा या मजबूत संगठन के उठाया नहीं जा सकता। इसलिए यह कहना है कि कांग्रेस के अच्छे दिन लौट रहे हैं समय से पूर्व होगा। फिल्म लगने से पहले ही इसे हिट नहीं कह सकते।
दादी इंदिरा गांधी ने अवश्य एक बार कहा था कि वह प्रियंका में अपना स्वाभाविक उत्तराधिकारी देखती है लेकिन मां सोनिया ने पारिवारिक गद्दी बेटे को संभाल दी। अब बेटी को भी बुलाया गया है। क्या बेटी वह कर सकेगी जो बेटा नहीं कर सका? बहुत मुश्किल चुनौती है। बहुत मेहनत, सोच और समय की जरूरत है केवल दादी के साथ मिलती शक्ल पर्याप्त नहीं होगी। अब्राहम लिंक ने सही कहा था, “आप को खुद बड़े होना है यह महत्व नहीं रखता कि आपके दादा (इस संदर्भ में दादी) कितने ऊंचे थे।“
दादी और प्रियंका गांधी (Grandmother and Priyanka Gandhi),