12 दिन जिन्होंने देश बदल डाला (12 Days That Changed India)

ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री हैरल्ड विलसन ने कहा था कि राजनीति में एक सप्ताह का समय बहुत होता है। उनके अनुसार   “एक अकेले सप्ताह के बीच राजनेताओं या राजनीतिक वर्ग का भाग्य जबरदस्त तरीके से बदल सकता है।“ भारत के संदर्भ में कहा जा सकता है कि यहां 12 दिनों ने देश को बदल डाला और साथ ही राजनेताओं तथा राजनीतिक पार्टियों की किस्मत भी बदल डाली। 14 फरवरी को पुलवामा के हमले में हमारे 40 जवान शहीद हो गए। 26 फरवरी को हमारे 12 मिराज 2000 विमानों ने पाकिस्तान की सीमा पार कर बालाकोट पर बमबारी कर दी और चुनाव का सारा नज़ारा ही बदल गया।

कुछ ही सप्ताह पहले तक नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा कुछ असुरक्षित नज़र आ रहे थे। सर्वेक्षण भी बता रहे थे कि वह बहुमत से काफी नीचे रह जाएंगे चाहे भाजपा फिर भी सबसे बड़ी पार्टी होगी। भाजपा तीन प्रमुख हिन्दी प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ हार कर हटी थी। लग रहा था कि मोदी लहर ठंडी पड़ रही है। नौकरियां न पैदा करना तथा कृषि का संकट हल न करने को लेकर सरकार बैकफुट पर थी। नोटबंदी में मोदी के निर्णय को लेकर उनकी आलोचना हो रही थी। राफेल को लेकर राहुल गांधी जगह-जगह खूब हमला कर रहे थे चाहे पैसे खाने का कोई सबूत वह पेश नहीं कर सके। लेकिन पुलवामा तथा एयर स्ट्राईक ने सब कुछ बदल दिया।

शुरू में राहुल गांधी ने समझदारी दिखाते हुए सरकार तथा एयरफोर्स का समर्थन किया पर राजनीतिक मजबूरी अधिक देर चुप नहीं रहने देती। कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने पुलवामा हमले को  ‘दुर्घटना’ कह दिया। कपिल सिब्बल का कहना था कि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया कह रहा है कि कोई आतंकी हमले में नहीं मारा गया तथा नवजोत सिंह सिद्धू ने फिर बहकते हुए कह दिया कि क्या आप वहां पेड़ गिराने गए थे? ऐसे फालतू बयान दे कर इन नेताओं ने न केवल भारतीय वायुसेना की ही अवमानना की है बल्कि राजनीतिक तौर पर अपने पांव पर भी कुलहाड़ा चला दिया और राष्ट्र्रवाद तथा राष्ट्रीय सुरक्षा पर पहल नरेन्द्र मोदी को सौंप दी जो कह रहें हैं कि मैंने तो सेना को खुली छूट दे दी थी जबकि मुंबई पर 26/11 के हमले के समय यूपीए सरकार के हाथ-पैर फूल गए थे।

पुलवामा के हमले तथा उसके बाद देश में उठे आक्रोश की लहर से बालाकोट पर हमले से नरेन्द्र मोदी को भारी समर्थन मिला है। कूटनीति में ड्रामा नहीं होता जबकि हवाई हमले प्रभावशाली होते हैं। मोदी सिद्ध कर गए कि जोखिम उठाने का उन में दम है। भाजपा कह रही है कि ऐसे राष्ट्रीय संकट में देश को निर्णायक नेता चाहिए जो केवल नरेन्द्र मोदी ही है। वैसे भी इतिहास गवाह है कि ऐसी बड़ी घटना के बाद लोग सरकार के साथ ही रहते हैं। भाजपा ने अपनी नई राजनीतिक कथा तैयार कर ली है कि उनके पास एक धड़ल्लेदार और  “मांसल” नेता है जिस पर भरोसा किया जा सकता है और खुद भाजपा वह पार्टी है जो घोर राष्ट्रवादी है और जो भारत के हित के लिए संघर्ष करने को तैयार है। उनके शासनकाल में भारत शक्तिशाली बना है और उनमें पड़ोसी को सबक सिखाने की क्षमता है।

एयर स्ट्राईक के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था,  “देश सुरक्षित हाथों में है।“ अब प्रचार के माध्यम से मोदी की छवि उस नेता की बनाई जाएगी जिसने पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए एयरफोर्स की स्ट्राईक करने से परहेज नहीं किया। यह छवि विपक्ष को परेशान कर रही है। मजबूत सरकार बनाम अराजकता का नारा भाजपा दे रही है। मोदी से नफरत के कारण कई विपक्षी नेता यह प्रभाव दे गए हैं कि उन्हें इमरान खान अधिक पसंद हैं और उन्हें अपने वायुसेना प्रमुख से अधिक विदेशी मीडिया पर भरोसा है जबकि ब्रिटिश न्यूज एजंसी रॉयटर कह रही है कि उनके बार-बार आग्रह के बावजूद उन्हें बालाकोट के जेहादी कैंप को देखने से रोका जा रहा है। अगर कुछ नुकसान नहीं हुआ तो यह रुकावट क्यों?

विपक्ष की यही समस्या नहीं है। चुनाव से एक महीना पहले विपक्षी खेमे में कोई स्पष्टता नहीं है। 27 फरवरी को 21 विपक्षी पार्टियों के नेता मिले थे लेकिन अभी भी वहां घालमेल है। वह सब नरेन्द्र मोदी को पसंद नहीं करते और उन्हें हटाना चाहते हैं लेकिन यह होगा कैसे इस पर वह कोई चानन डालने को तैयार नहीं। कौन नेता होगा? आर्थिक नीति क्या होगी? राजनीतिक नीति क्या होगी? अभियान कौन चलाएगा? यह बात चली कि विपक्ष अपना सांझा न्यूनतम कार्यक्रम जनता के आगे पेश करे लेकिन इस पर भी सहमति नहीं बनी। कई विपक्षी नेता हैं जैसे ममता बैनर्जी, मायावती, चंद्र बाबू नायूडू जिनकी महत्वकांक्षा तो है लेकिन हित अपने-अपने प्रदेश से जुड़े हैं उनका राष्ट्रीय नजरिया नहीं है। इनका सारा जोर मोदी को गालियां निकालने में लग रहा है। वह अभी तक यह नहीं बता सके कि मोदी और भाजपा को हटाने के बाद आगे क्या? देश उनकी खातिर अंधेरे में छलांग क्यों लगाए? विपक्ष की जो हालत है उस पर तो कहा जा सकता है कि

छत डालने पर ही उन्हें आया ख्याल

कि नींव तो मकान की डाली नहीं!

इस सारे विपक्षी घपले के ठीक बीच खड़ी है कांग्रेस पार्टी तथा उसके नेता राहुल गांधी। राहुल गांधी की लोकप्रियता आगे से बढ़ी है लेकिन वह अभी तक यह तय नहीं कर सके कि उनकी पार्टी की भावी भूमिका क्या हो? क्या उन्हें नरेन्द्र मोदी को हराने पर जोर देना चाहिए या अपनी पार्टी को भविष्य के लिए मज़बूत करने पर देना चाहिए?  इस विरोधाभास ने राहुल गांधी के नेतृत्व को ठप्प कर रख दिया है। उन्हें नरेन्द्र मोदी को हटाने के लिए प्रादेशिक पार्टियों से समझौता करना होगा। महागठबंधन बनाना होगा और एक प्रकार से 543 सीटों पर स्थानीय स्तर पर भाजपा से सीधी टक्कर लेनी होगी लेकिन कांग्रेस पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली जैसे प्रदेशों में अलग लड़ रही है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल तो एक तरह से याचना कर चुके हैं लेकिन कांग्रेस आप के साथ मिलकर चुनाव लडऩे को तैयार नहीं। ममता बैनर्जी, फारुख अब्दुल्ला, चंद्र बाबू नायडू चाहते हैं कि कांग्रेस अपनी महत्वकांक्षा को एक तरफ रख मोदी को हराने के लिए प्रादेशिक पार्टियों के साथ समझौता करे लेकिन कांग्रेस जानती है कि अगर उसने इनके लिए दरवाज़ा खोला तो यह घुस जाएंगे और उनका वही हश्र होगा जो उत्तर प्रदेश में हुआ है। इसलिए राहुल गांधी इंतजार करने को तैयार लगते हैं। यह इंतजार लम्बी हो सकती है।

मायावती ने कह दिया है कि वह किसी भी प्रदेश में कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करेंगी। दूसरी तरफ कड़वा घूंट पीकर भी भाजपा ने महाराष्ट्र में शिवसेना तथा पंजाब में अकाली दल के साथ गठबंधन कर लिया है। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक तथा कुछ छोटी पार्टियों के साथ समझौता कर लिया गया। जरूरत पडऩे पर बीजू जनता दल तथा वाईएसआर कांग्रेस पार्टी समर्थन दे सकते हैं। मुलायम सिंह यादव तो कह ही चुकें हैं कि वह नरेन्द्र मोदी को अगला प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं। विपक्ष में भ्रांति तथा अराजकता नज़र आती है। वायदे न पूरे होने के कारण लोग नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व से असंतुष्ट हो सकते हैं लेकिन राहुल गांधी समेत सामने विपक्षी नेताओं की जो कतार है वह बहुत कम आकर्षक नज़र आती है। ममता बैनर्जी तथा मायावती जैसे नेता राहुल गांधी को विपक्ष का नेता स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। राहुल गांधी द्वारा मसूद अजहर को  ‘जी’ कहने से देश भौचक्का है। राहुल अभी भी परिपक्व नहीं हुए और आवेश में कुछ भी कह सकते हैं। वह उन्हें गंभीरता से लेना मुश्किल कर रहें हैं।

1996,1997, 1998,1999 तथा 2004 में केन्द्रीय सरकार प्रादेशिक सरकारों की एक प्रकार से कैदी थी। देश इस स्थिति को स्वीकार क्यों करे? पर अभी चुनाव शुरू होने में चार सप्ताह का समय रहता है और इस दौरान स्थिति बदल भी सकती है और जैसे कहा गया राजनीति में एक सप्ताह भी बहुत समय होता है। बेरोजगारी तथा खेती का संकट जैसे मुद्दे अप्रासंगिक नहीं हुए। स्थानीय मुद्दों को भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता लेकिन इस वक्त तो नरेन्द्र मोदी की बढ़त है क्योंकि सामने अव्यवस्था, अनिश्चितता और घपला है।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.