इंदिरा गांधी के बारे एक किस्सा याद आता है। जुलाई 1977 जब इंदिराजी सत्ता से बाहर थीं तो बिहार के बेलछी गांव में 9 दलितों की सवर्ण जाति के जमीनदारों ने निर्मम हत्या कर दी थी। लोगों ने उनके खिलाफ वोट दिया था और छः महीने पहले बिहार में कांग्रेस का सफाया हो कर हटा था लेकिन इंदिरा गांधी पीछे हटने वाली नहीं थी। वह पटना पहुंच गई और वहां से कार द्वारा बिहार शरीफ पहुंची। वह बेलछी जाना चाहती थी। तब तक शाम हो चुकी थी। मौसम बेहद खराब था और उन्हें कहा गया कि रात को इस क्षेत्र में जाना सही नहीं है। यह भी समझाया गया कि बाढ़ के कारण आगे रास्ता कच्चा तथा पानी से भरा हुआ है लेकिन वह अपने फैसले पर अडिंग थीं। जीप और ट्रैक्टर लाए गए पर वह भी फंस गए फिर उनके लिए हाथी बुलाया गया। उस बीयाबान अंधेरी रात में हाथी ‘मोती’ पर सवार हो तीन घंटे के बाद इंदिरा गांधी बेलछी पहुंची और देश और दुनिया की सुर्खियों में छा गई।
इसी के बाद इंदिरा गांधी की वापिसी का सिलसिला शुरू हो गया। उनकी इस हिम्मत तथा दबंगपन के बारे सोचता हूं तो कहने को दिल चाहता है
मिले है साहिल तो उन्हेें ही मिले हैं
सफीने जो मौजों से बढ़-बढ़ का खेले!
अब ज़रा तुलना प्रियंका वाड्रा गांधी से कीजिए। कई सप्ताह लोगों को अनिश्चय में रखने के बाद प्रियंका ने घोषणा कर दी कि वह वाराणसी से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ेंगी। अर्थात खुद ही उत्तर प्रदेश में पार्टी का गुब्बारा पंक्चर कर डाला। इसका बाकी देश में भी पार्टी की संभावनाओं पर बुरा असर पड़ेगा कि नेतृत्व मैदान में डटने और जोखिम भरे रास्ते पर जाने को तैयार नहीं है। मौजों से तो क्या खेलना प्रियंका तो पानी में पैर भी गीले नहीं करना चाहती।
प्रियंका गांधी के संदर्भ में उनकी इंदिरा गांधी से मिलती शकल चर्चा का विषय रहती है। कई लोग उन्हें दूसरी इंदिरा गांधी भी कहते हैं। जब प्रियंका वाड्रा गांधी को कांग्रेस ने पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी नियुक्त किया तो प्रभाव यह था कि गांधी परिवार खोई जमीन हासिल करने के लिए सब कुछ दाव पर लगाने को तैयार है। इसी बीच बार-बार वाराणसी का वर्णन भी आया। प्रियंका खुद वाराणसी से प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने का विषय उछालती रहीं। अपनी चुनावी रैलियों में लोगों से पूछती रहीं कि ‘क्या मुझे वाराणसी से चुनाव लड़ना चाहिए?’ जब रायबरेली से उनके चुनाव लड़ने का सवाल उठता तो प्रियंका का जवाब होता ‘क्यों नहीं वाराणसी?’ फिर कह दिया कि अगर पार्टी इज़ाजत देगी तो वह वाराणसी से चुनाव लडं़ेगी लेकिन तब सवाल उठा कि ‘पार्टी’ है क्या? आखिर पार्टी में निर्णय कौन और कैसे लिए जाते हैं? जब निर्णय सोनिया गांधी, राहुल गांधी तथा प्रियंका गांधी वाड्रा ही लेते हैं तो ‘पार्टी’ का यह मुखौटा क्यों? फिर प्रियंका का कहना था कि राहुल तय करेंगे कि मैं चुनाव लड़ूं या न लड़ूं पर राहुल का कहना था कि प्रियंका खुद तय करेगी कि वह चुनाव लड़ेगी या नहीं।
काफी समय भाई-बहन लोगों को इस तरह उल्लू बनाते रहे। अंत में प्रियंका का कहना था कि पार्टी ने उन्हें चुनाव लड़ने की इज़ाजत नहीं दी। फिर वही ‘पार्टी’ के कंधे पर रख बंदूक दाग दी। अगर चुनाव नहीं लड़ना था तो पहले लोगों को गुमराह क्यों किया गया? चर्चा क्यों शुरू की? प्रियंका के चुनाव लड़ने या न लड़ने पर राहुल का यह लापरवाह बयान भी था,” मैं आपको सस्पैंस में रखूंगा। सस्पैंस बुरी बात नहीं। मैं न पुष्टि करता हूं न इंकार करता हैं”। लेकिन उन्हें भी समझना चाहिए कि जनता को भ्रांति में रखने की कीमत चुकानी पड़ती है।
प्रियंका को पार्टी का ब्रह्मास्त्र कहा गया था पर अब सबको मालूम हो गया कि ब्रह्मास्त्र बेकार है। प्रियंका ने शायद उस वक्त मन बदल लिया जब महागठबंधन ने फैसला किया कि उन्हें समर्थन नहीं देंगे और वह अपना उम्मीदवार खड़ा करेंगे। वह विपक्षी पार्टियों की संयुक्त उम्मीदवार बनना चाहती थी जब यह नहीं हुआ तो पार्टी ने यू-टर्न ले लिया और उन अजय राय को उम्मीदवार घोषित कर दिया जो पिछले चुनाव में वाराणसी से तीसरे नंबर पर आए थे। प्रियंका ने मौका खो दिया। ठीक है वाराणसी से नरेन्द्र मोदी को हराना उनके बस की बात नहीं है लेकिन अगर वह मोदी की जीत का अंतर ही कम कर देती और अच्छी टक्कर दे पाती तो भी उनकी जय-जय हो जाती और उत्तर प्रदेश में पार्टी 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए मज़बूती से कदम रख सकती। अब प्रियंका को गंभीरता से लेना मुश्किल है क्योंकि प्रभाव यह मिलता है कि राजनीति को बच्चों की गेम बना दिया गया। अगर बुरी तरह हार भी जाती तो भी देश को संदेश जाता कि गांधी परिवार अब मुकाबले के लिए डट गया है। कई बार जीतना ही जरूरी नहीं होता चुनौती देना भी मज़बूत संदेश देता है।
31 जनवरी, 2019 को लेख में मैंने लिखा था, “नहीं, मैं नहीं मानता कि प्रियंका दूसरी इंदिराजी है… बहुत मुश्किल चुनौती है। बहुत मेहनत, सोच और समय की जरूरत है। केवल दादी के साथ मिलती शकल पर्याप्त नहीं होगी।” इसके साथ मैं दिलेरी भी जोड़ना चाहता हूं क्योंकि राजनीति में सफल रहने के लिए दिलेरी भी बहुत चाहिए जो इंदिरा गांधी के पास पर्याप्त मात्रा में थी। यह दिलेरी प्रियंका गांधी में नज़र नहीं आती। केवल रोड शो करना या कार के वाईपर की तरह हाथ हिलाना या लोगों पर फूलमालाएं फैंकना ही पर्याप्त नहीं। लोग यह भी देखते हैं कि क्या आप के पास राजनीति चुनौती का सामना करने का साहस भी है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन ने राजनीति के बारे सही कहा था, “कि अगर आप ताप नहीं सह सकते तो रसोईघर से बाहर हो जाओ।”
अपने लेख में मैंने लिखा था कि इंदिरा गांधी और प्रियंका वाड्रा गांधी की परिस्थितियां बिल्कुल अलग हैं,“जिस कांग्रेस पार्टी की इंदिराजी नेता थी और जो कांग्रेस आज बन चुकी है उसमें ज़मीन-आसमान का अंतर है। इंदिरा गांधी आजादी की लड़ाई की बेटी थी।” लेकिन अब गांधी परिवार एक प्रकार से शाही परिवार बन चुका है। परिवार इतना असुरक्षित है कि सारी पार्टी को तीन लोगों के इर्द-गिर्द समेट दिया है। कांग्रेस को फिर से खड़ा करना और प्रासंगिक बनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ेगा। राहुल गांधी यह करते नज़र आ रहे हैं पर प्रियंका तो फोटो-औप के सिवाय कुछ अधिक नहीं कर सकी। उनके लिए राजनीति का ताप सहना मुश्किल लगता है। इंदिरा गांधी ने आजादी का संघर्ष देखा था। मां-बाप दोनों को जेल जाते देखा था। जवाहरलाल जी तो कुल 3259 दिन जेल में रहे थे। इंदिराजी ने यह भी देखा था कि जब देश आजादी का जश्न मना रहा था तो हिन्दू-मुस्लिम दंगों से त्रस्त राष्ट्रपिता गांधी कोलकाता के हैदरी मंजिल मकान में अनशन पर बैठ गए थे। उन्हें कहा गया कि वहां उनकी जान खतरे में है लेकिन उनका अनशन 73 घंटे चला और उन्होंने तब ही तोड़ा जब दोनों तरफ के दंगाईओं ने अपने-अपने हथियारों के साथ उनके सामने समर्पण कर दिया। तब माऊंटबैटन ने कहा था कि पंजाब में हमारी पूरी सेना स्थिति को नियंत्रण नहीं कर सकी जबकि बंगाल में ‘एक व्यक्ति की सेना ने सब नियंत्रण कर लिया।’
इंदिरा गांधी इन परिस्थितियों के बीच बड़ी हुई थी। इसी ने उनमें संघर्ष करने का भाव भर दिया था। उन्होंने अवश्य एक बार कहा था कि वह प्रियंका में अपना स्वाभाविक उत्तराधिकारी देखती है लेकिन वाराणसी में उनकी कमजोरी बता गई है कि प्रियंका में वह बात नहीं है, दादी की तरह मौके को झपटने की उनमें क्षमता नहीं है। वह किसी मोती की सवारी करने को तैयार नहीं।
नहीं, प्रियंका इंदिरा गांधी नहीं है (No, Priyanka is no Indira Gandhi),