उत्तर, पूर्व और पश्चिम में विजयी नरेन्द्र मोदी का बेड़ा पंजाब में आकर रुक गया। पंजाब की 13 सीटों में से कांग्रेस 8 जीतने में सफल रही जबकि अकाली-भाजपा को 4 सीटें तथा आप भगवंत मान की एकमात्र सीट पर सफल रही। आंकड़े सारी कहानी कहते हैं। मोदी लहर के बीच भी पंजाब में कांग्रेस का मत प्रतिशत 1.62 प्रतिशत बढ़ गया। 2014 के चुनाव में कांग्रेस को 33.19 प्रतिशत वोट मिला था। 2017 के विधानसभा चुनाव में 38.50 प्रतिशत और इस बार 40.12 प्रतिशत चाहे इस बार शहरी हिन्दू का झुकाव भाजपा की तरफ अधिक था और दोआबा का दलित बसपा की तरफ झुक गया था। अगर पिछले लोकसभा चुनाव से तुलना की जाए तो कांग्रेस को लगभग 7 प्रतिशत अधिक वोट मिला है और अगर विधानसभा चुनाव क्षेत्रों पर नज़र दौड़ाई जाए तो कांग्रेस को 69 में बढ़त मिली है जबकि बहुमत का आंकड़ा 58 है। कांग्रेस के इस प्रभावशाली प्रदर्शन के तीन कारण नजर आ रहे हैं:
(1) अमरेन्द्र सिंह: अमरेन्द्र सिंह अभी भी पंजाब के कप्तान हैं। नरेन्द्र मोदी की इस आंधी में अपना किला सुरक्षित रखना मामूली उपलब्धि नहीं है। अब वह कांग्रेस में एकमात्र नेता हैं जो अपने बल पर पार्टी को जीत दिलवा सकते हैं। पुलवामा तथा बालाकोट के बाद अमरेन्द्र सिंह पहले वरिष्ठ कांग्रेस नेता थे जिन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ सख्त स्टैंड की वकालत की थी। जब नवजोत सिंह सिद्धू पाकिस्तान में जनरल बाजवा को जप्फी डाल रहे थे तब भी अमरेन्द्र सिंह ने उनकी आलोचना की थी। दूसरी तरफ अमरेन्द्र सिंह वह कांग्रेसी नेता हैं जिनकी आलोचना भाजपा नहीं कर सकी। एक राष्ट्रवादी देशभक्त सिख की उनकी छवि से खिलवाड़ करने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता।
न ही उन्होंने कांग्रेस के हाईकमान की मोदी पर घटिया हमले करने की नीति को ही अपनाया। उन्होंने भाजपा की आलोचना की लेकिन एक परिपक्व और वरिष्ठ नेता की तरह उनके मुंह से नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक अपशब्द नहीं निकला। पंजाब में “चौकीदार चोर है” जैसे नारे नहीं लगे। कांग्रेस में नवजोत सिंह सिद्धू जैसे नेता बालाकोट में मारे गए आतंकवादियों के बारे सवाल उठाते रहे लेकिन अमरेन्द्र सिंह का कहना था, “चाहे एक मरा या 100, संदेश तो साफ पहुंच गया है कि देश अपने सैनिकों तथा नागरिकों की हत्या की सजा दिए बिना नहीं रहेगा।“ बालाकोट के बाद अमरेन्द्र सिंह एक प्रकार से पंजाब के नरेन्द्र मोदी बन गए इसलिए हैरानी है कि शहरी सीटों पर कांग्रेस को बराबर समर्थन नहीं मिला। इसका बड़ा कारण है कि हिन्दू वोटर का झुकाव मोदी की तरफ था तथा दूसरा, यहां शहरों की हालत ठीक नहीं। हमारे शहर गंदे और भीड़ भरे हैं और अभी तक सरकार दो सालों में कुछ सुधार नहीं कर सकी लेकिन ग्रामीण सिखों का कांग्रेस को भारी समर्थन मिला। श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी तथा फायरिंग का मामला लगातार उठा कर अमरेन्द्र सिंह अकाली दल तथा बादल परिवार को बैकफुट पर करने में सफल रहे। सिख वैसे भी अल्पसंख्यक है इसीलिए भाजपा के आक्रामक राष्ट्रवाद को पसंद नहीं करते इसके बावजूद कि मोदी सरकार के समय 1984 के दंगों के बारे गंभीरता से दोषियों को सजा देने का प्रयास किया गया है। अब सिट की बेअदबी मामले में 2000 पन्नों की चार्जशीट अदालत में दाखिल कर दी गई है। इससे अकाली दल तथा बादल परिवार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
(2) अकाली दल से बेरुखी: कांग्रेस की जीत में अकाली दल तथा बादल परिवार के प्रति लोगों, विशेष तौर पर सिखों, की नाराज़गी का बड़ा हाथ है। पिछले चार साल से पंजाब की सिख राजनीति बेअदबी की इस घटना के इर्द-गिर्द घूम रही है। जब घटना घटी तो अकाली दल-भाजपा सत्ता में थे। 2017 के विधानसभा चुनाव में इन्हें इसीलिए लोगों ने नकार दिया और उनका सबसे खराब प्रदर्शन रहा। इस लोकसभा चुनाव में भी अकाली दल का प्रदर्शन कमज़ोर रहा और वह अपने द्वारा लड़ी 10 में से केवल 2 सीटें जहां सुखबीर बादल तथा उनकी पत्नी हरसिमरत कौर बादल उम्मीदवार थे, ही जीत सके। आप के पतन के कारण इस चुनाव में अकाली-भाजपा का वोट प्रतिशत 2014 के मुकाबले 2 प्रतिशत बढ़ा है लेकिन अकाली दल को केवल 24 विधानसभा क्षेत्रों में ही बढ़त मिली। सिख मतदाता अकाली नेतृत्व को बेअदबी के मामले में माफ करने को तैयार नहीं लगते।
दो सीटें जीतने तथा मत प्रतिशत में मामूली वृद्धि को अकाली दल अपनी जीत बता रहा है लेकिन जो 8 सीटें वह हारे हैं उनके बारे वह खामोश हैं। वह तो परम्परागत तरन तारन तथा खडूर साहिब की पंथक सीटें भी हार गए हैं। खडूर साहिब की सभी 9 विधानसभा क्षेत्रों में अकाली दल पिछड़ गया। पिछले दो वर्षों में अकाली दल में फूट बढ़ी है। पुराने नेता बेज़ार हैं और सहयोग नहीं दे रहे हैं।
(3) कमजोर पंजाब भाजपा : मोदी लहर के कारण भाजपा का प्रदर्शन पहले से बेहतर रहा है। वह 3 सीटें लड़े थे और 2 जीतने में सफल रहे। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा केवल 3 सीटें जीत सकी थी लेकिन इस बार वह 12 विधानसभा क्षेत्रों में आगे है लेकिन अगर देखा जाए कि पंजाब की कुल 117 सीटें हैं तो नज़र आता है कि भाजपा ने यहां कितना सफर और तय करना है। भाजपा की तो उस अमृतसर शहर में दुर्दशा हो गई जहां से उसके प्रदेश अध्यक्ष आते हैं। अरुण जेतली के बाद शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी अमृतसर में बुरी तरह से चुनाव हार गए। अब राष्ट्रीय स्तर पर जीत को लेकर प्रदेश भाजपा के नेता उत्साही हैं और कई नेता अपने पर मार रहे हैं। कोई कह रहा है कि अकाली दल से 50 प्रतिशत सीटों की मांग करेंगे तो कोई कहता है कि अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ा जाए पर विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं नरेन्द्र मोदी के नाम पर नहीं। अकेले चुनाव लडऩे का दम पंजाब भाजपा में है कहां, जो बात एक बार अरुण जेतली ने इन्हें कठोरता से समझाई थी।
पंजाब भाजपा की त्रासदी है कि इसमें हाईकमान ने कभी भी अपने पैरों पर खड़े नहीं होने दिया। उन्हें एक प्रकार से अकाली दल के पास गिरवी छोड़ दिया गया। जो नेता उभरने लगे थे उन्हें अकाली नेतृत्व के कहने पर अपने लोगों ने ही दबा दिया। लेकिन असली मामला और है। भाजपा के नेतृत्व ने अकाली दल से गठबंधन करने की जगह एक परिवार अर्थात बादल परिवार से गठबंधन कर लिया जिसकी कीमत अब चुकानी पड़ रही है। इस परिवार की बदनामी से अकाली दल को भी धक्का पहुंचा है और भाजपा को भी। लेकिन इस बात की संभावना मैं नहीं देखता कि अकाली दल के साथ भी वही होगा जो हरियाणा में चौटाला-भाजपा के बीच हुआ था, अर्थात संबंध विच्छेद। भाजपा अकाली दल को साथ रखेगी।
बहरहाल इस वक्त तो अमरेन्द्र सिंह की बल्ले-बल्ले है लेकिन आगे बहुत सी चुनौतियां हैं। मेरा अभिप्राय नवजोत सिंह सिद्धू से नहीं। अमरेन्द्र सिंह का वह स्तर है कि सिद्धू उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। बाकी पार्टियों से भटकने के बाद सिद्धू के पास भी विकल्प सीमित है। उनका कहना था कि क्योंकि सीएम का उन पर भरोसा नहीं इसलिए वह कैबिनेट की बैठक में नहीं जा रहे लेकिन लोकतंत्र का तो तकाज़ा है कि अगर सीएम का भरोसा आप खो बैठे हो तो आपको इस्तीफा दे देना चाहिए। पर अमरेन्द्र सिंह को देखना चाहिए कि लोग संतुष्ट नहीं हैं। गवरनैंस में बहुत कुछ करना बाकी है। खजाना खाली है। प्रतिभाशाली युवा विदेश भाग रहे हैं, पानी का सतह लगातार नीचे जा रहा है। बिजली की सबसिडी का फायदा वह भी उठा रहें हैं जिनके पास एक से अधिक कनैक्शन हैं। नशे पर नियंत्रण नहीं हुआ, स्कॉलरशिप के मामले में घपले से एससी/एसटी नारज़ है, किसान असंतुष्ट है और शहर बेहाल है। अगर कांग्रेस ने आने वाले स्थानीय चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करना है तो इन समस्याओं का जल्द समाधान निकालना होगा। बसपा में जान पड़ रही है। यह अलग चुनौती हो सकती है।
पंजाब क्यों अपवाद रहा (Why was Punjab an Exception),