कांग्रेस पार्टी का संकट गहरा होता जा रहा है। डूबते जहाज़ को छोड़ कर कप्तान एक तरफ बैठ गए हैं। एक महीने की जद्दोजहद के बाद भी अभी तक पार्टी की कार्यकारिणी यह फैसला नहीं कर सकी कि नया कप्तान कौन होगा? पर सब देख रहें हैं कि जहाज़ में लगातार पानी भर रहा है। नया अध्यक्ष वह कार्यकारिणी चुनेगी जिसके सदस्य खुद चुन कर नहीं आए और वह अपनी जगह पर केवल इसलिए है क्योंकि वह परिवार के वफादार हैं। कई तो पंचायत का चुनाव जीतने की भी हैसियत नहीं रखते। वह तो ऐसा अध्यक्ष चुन ही नहीं सकते जिसे गांधी परिवार पसंद न करता हो। राहुल गांधी अपने इस्तीफे पर अड़े हुए हैं इससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी है कि केवल दिखावा नहीं हो रहा। अपनी जवाबदेही स्वीकार करते हुए उन्होंने यह भी शिकायत की कि दूसरे अपनी जवाबदेही स्वीकार नहीं कर रहें। अपनी खुली चिट्ठी में राहुल गांधी ने लिखा है कि “अनेक लोग 2019 की असफलता के लिए जिम्मेवार हैं।”
यह ‘अनेक’ लोग कौन हैं? उन्होंने अपने कार्यकर्त्ताओं को यह भी बताया कि कई बार “प्रधानमंत्री, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा वह संस्थाएं जिस पर उन्होंने कब्ज़ा कर लिया” का सामना करने के लिए “मैं अकेला ही था।” जहां तक ‘मैं अकेला ही था’ कि बात है, तो क्या यह जिम्मेवारी उनकी नहीं जिन्होंने पार्टी का आधार विस्तृत करने की जगह इसे एक परिवार के इर्द-गिर्द समेट दिया? प्रदेशों में जाकर काम करने की जगह यह लोग दिल्ली में सत्ता के इर्द-गिर्द मक्खियों की तरह भिन भिनाते रहे और अब क्योंकि सत्ता नहीं रही इसलिए कोमा में हैं।
सवाल उठता है कि जिम्मेवारी लेते हुए कांग्रेस कार्यकारिणी ने इस्तीफा क्यों नहीं दे दिया? नई कार्यकारिणी का चुनाव क्यों नहीं करवाया जाता? वास्तव में पार्टी में यह परम्परा ही नहीं रही। पंजाब केसरी के सम्पादक अश्विनी कुमार ने सही लिखा है कि “काश! राहुल गांधी को पहले अमेठी का जिलाअध्यक्ष बनाया जाता और वह पार्टी के अग्रिम संगठनों में या युवा कांग्रेस में काम करते।” लेकिन उन्हें उपर से थोप दिया गया जिसे देखते हुए प्रदेशों में भी कांग्रेस में वह लोग हावी हो गए जिनकी एकमात्र योग्यता उनकी पारिवारिक रेखा थी। इनसे यह आशा कि वास्तव में सत्ता को त्याग देंगे तो खुद को भ्रम में रखना है।
लेकिन कांग्रेस के लिए यह संकट एक मौका हो सकता है। नई शुरूआत करनी चाहिए। अध्यक्ष की नामजदगी की परम्परा से भी छुटकारा पाना चाहिए। यह सही है कि इस वक्त गांधी परिवार वह गोंद है जो पार्टी को जोड़ती है लेकिन जरूरत से अधिक निर्भरता ने पार्टी की आंतरिक ऊर्जा को खत्म कर दिया है और पार्टी में योग्यता को पुरस्कृत करने की परम्परा नहीं रही। जी हजूरिए भर गए हैं।
अगर कांग्रेस ने फिर से खड़ा होना है तो पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र कायम करना होगा। किसी और चाकर को पार्टी का अध्यक्ष नहीं बनाया जाना चाहिए ताकि परिवार का नियंत्रण रहे। पिछले कुछ दशकों में कांग्रेस के दो अध्यक्ष रहे हैं जो गांधी परिवार से नहीं थे, पीवी परसिम्हा राव तथा सीताराम केसरी। नरसिम्हा राव को तो उनके देहांत के बाद भी माफ नहीं किया गया जबकि सीताराम केसरी को एक तरह से घसीट कर बाहर निकाला गया। अब नए अध्यक्ष के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए। अमरेन्द्र सिंह का सुझाव बढिय़ा है कि किसी युवा को पार्टी अध्यक्ष बनाया जाए लेकिन क्या कथित आलाकमान ऐसे युवा नेता को पसंद करेगा जो अधिक आकर्षक हो और जनता में अपनी जगह बनाने की क्षमता रखता हो? बार-बार सचिन पायलट का नाम लिया जाता है जिन्होंने अपने दम पर राजस्थान में पार्टी को जीवित रखा लेकिन क्या उन्हें स्वीकार किया जाएगा यह जानते हुए कि उनमें राजेश पायलट का डीएनए है?
कांग्रेस के लिए अपना घर सही करने का समय बहुत कम है क्योंकि कर्नाटक में चूहे छलांग लगाना शुरू हो गए हैं। भाजपा को वहां दलबदलुओं के सहारे सरकार बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और नए चुनाव करवाने चाहिए। बाकी विपक्ष की हालत भी बहुत अच्छी नहीं। उड़ीसा में बीजेडी, तमिलनाडु मेें द्रमुक, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस पार्टी, तेलंगाना में टीआरएस को छोड़ दे तो बाकी देश में नरेन्द्र मोदी की जीत ने विपक्ष को चित्त कर दिया है। कांग्रेस की नकल करते हुए ममता बैनर्जी तथा मायावती ने अपने-अपने भतीजों को अपना उत्तराधिकारी बना दिया है। अर्थात इनके पुनरुत्थान की कोई संभावना नहीं। ममता बैनर्जी तो चुनाव में भाजपा के उत्थान से इतनी परेशान है कि अपना संतुलन खो रही है। चीखती-चिल्लाती दीदी उस प्रदेश की बहुत बुरी प्रतिनिधि नज़र आती है जिसने देश को इतने दार्शनिक, महापुरुष, लेखक, कवि और कलाकार दिया है। सपा के साथ रिश्ता तोड़ कर और उसका ठीकरा अखिलेश यादव पर फोड़ कर मायावती ने फिर साबित कर दिया है कि वह बिलकुल भरोसेमंद नहीं है। भविष्य में उन्हें साथी ढूंढने की तकलीफ होगी जिसका असर अगले विधानसभा चुनावों में नज़र आएगा। बिहार में लालू प्रसाद जेल में हैं और बीमार हैं और दोनों बेटे आपस में लड़ रहें। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल तथा रिश्तेदार धमेन्द्र यादव तथा अक्षय यादव चुनाव हार गए हैं। कनार्टक में पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा अपना चुनाव हार गए। चंद्र बाबू नायडू समझ रहे थे कि वह किंग मेकर बनेंगे लेकिन अब तो वह अपनी पार्टी को इकट्ठा रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। राज्यसभा के उनके चार सांसद भाजपा में शामिल हो चुके हैं।
अर्थात आज केवल कांग्रेस ही नहीं बाकी विपक्ष भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। उन्हें समझना चाहिए कि ‘नामदारों’ के दिन लद गए हैं। पर देश के लिए यह चिंता की बात है कि विपक्ष यहां इतना कमज़ोर हो रहा है लेकिन मोदी-शाह जोड़ी से तो आशा नहीं की जा सकती कि वह विपक्ष का रास्ता आसान करेंगे। इसके लिए विपक्ष को अपना घर सही करना होगा। लेकिन भावी राजनीति केवल इसी पर ही निर्भर नहीं करेगी यह इस पर भी निर्भर करेगी कि भाजपा की केन्द्रीय सरकार तथा प्रादेशिक सरकारें जिस तरह काम करती हैं। इस वक्त तक सत्तारुढ़ पार्टी ने गज़ब की ऊर्जा और राजनीतिक सोच दिखाई है। अगर यही सिलसिला चलता रहा तो विपक्ष के लिए खुद को खड़ा करना और भी मुश्किल होगा। कांग्रेस तब ही उपर आएगी अगर भाजपा नीचे जाएगी जिसकी इस वक्त संभावना नज़र नहीं आ रही। कांग्रेस में वह सोच भी नज़र नहीं आ रही जो उसे ताज़गी दे।
सरकार के लिए अर्थ व्यवस्था की सेहत चिंता का विषय है। प्रधानमंत्री पांच वर्ष में 5 ट्रिलियन डॉलर जो 343327500000000 रुपए बनते हैं, की अर्थ व्यवस्था की बात कह रहे हैं। क्या हम पांच वर्षों में वहां पहुंच सकेंगे? शायद नहीं क्योंकि उसके लिए जो रफ्तार चाहिए वह अभी अर्थ व्यवस्था में नहीं है। अगर देश 8 प्रतिशत की दर से विकास करे तो 2024 तक यह हो सकते हैं लेकिन पिछले साल हमारी दर 6.8 प्रतिशत थी। इस साल यह 7 प्रतिशत के नजदीक होने वाली है। गवर्नेस में सुधार की भी बहुत जरूरत है पर यह केवल केन्द्रीय सरकार पर निर्भर नहीं करता। जमीन पर सही शासन तो प्रादेशिक सरकारों ने देना है। लेकिन मैं प्रधानमंत्री और उनकी सरकार को यह श्रेय जरूर देना चाहता हूं कि वह लक्ष्य ऊंचा रखते हैं और उसे पाने के लिए संघर्ष करते हैं। जरूरी नहीं कि लक्ष्य पूरा हासिल हो जाए पर अगर सोच महत्वाकांक्षी नहीं होगी तो हम तरक्की कैसे करेंगे? इसलिए इस 5 ट्रिलियन डॉलर के सपने के बारे मेरा कहना है,
कुछ नहीं तो कम से कम
ख्वाब-ए-सहर देखा तो है
जिस तरफ देखा न था अब तक,
उस तरफ देखा तो है!