विश्व का इतिहास विश्वासघात की घटनाओं से भरा पड़ा है। ईसा से 44 वर्ष पहले जूलियस सीज़र से दगा कर उसके अभिन्न मित्र बू्रटस ने दूसरे सैनिटरज़ के साथ मिल कर उसकी बेहरमी से हत्या कर दी थी। हिटलर ने भी कई वायदे किए और बाद में तोड़ डाले। हमारा अपना इतिहास भी ऐसी धोखे की घटनाओं से भरा हुआ है। पृथ्वीराज चौहान की मिसाल हमारे सामने है। मीर जाफर ने बंगाल की सेना से दगा कर अंग्रेजों के लिए दरवाज़ा खोल दिया और उन्होंने पौने दो साल हम पर राज किया। ऐसे विश्वासघात का अनुभव प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी 1999 में बुरी तरह से हुआ था जब वह फरवरी में बस पर सवार बैंड-बाजे के साथ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से मिलने लाहौर गए थे। पहुंचने पर अटलजी ने कहा था, “मैं अपने देशवासियों की सद्भावना तथा आशा के साथ आया हूं जो पाकिस्तान के साथ स्थाई शांति तथा मधुर संबंध चाहते हैं।“ पर अटलजी को मालूम नहीं था कि पिछले साल के अंतिम सर्द महीनों में पाकिस्तान कारगिल क्षेत्र में भारतीय सीमा में कई किलोमीटर तक घुसपैठ कर चुका था।
हमारी खुफिया नाकामी इतनी थी कि हमें 6 मई 1999 को जाकर पता चला कि इतनी बड़ी घुसपैठ हो गई है। अटलजी अवाक रह गए। उन्होंने नवाज़ शरीफ को फोन कर पूछा “मियां साहिब यह क्या किया?” तो नवाज़ शरीफ का जवाब था कि मुझे कुछ मालूम नहीं यह सब सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ की शरारत है। पर इस्लामाबाद में उस वक्त भारत के राजदूत जी पारथासार्थी ने लिखा है, “शुरू में अवश्य नवाज़ शरीफ की सरकार इस घटनाक्रम के बारे अनभिज्ञ थी लेकिन एक बार जनरल परवेज मुशर्रफ ने उन्हें सेना की कार्रवाई के बारे ब्रीफ किया तो पूरे दिल से पाकिस्तान की सरकार ने उनका समर्थन किया… नवाज़ शरीफ को एक से अधिक बार घटनाक्रम के बारे पाकिस्तान सेना के क्षेत्रीय मुख्यालय स्कार्ड् में ब्रीफ किया गया।“ एक पत्रकार ने तो यह भी लिखा था कि नवाज़ शरीफ को बताया गया कि श्रीनगर-लेह राजमार्ग अब उनके निशाने पर है और “बहुत शीघ्र कश्मीर का मसला हल होने वाला है और इसका सेहरा आप के सर बंधेगा।“ टाईगर हिल श्रीनगर-लेह राजमार्ग के उपर स्थित है इस पर नियंत्रण कर पाकिस्तान हमारे सैनिकों की गतिविधियों पर नज़र रखे थे। वह सियाचिन की सप्लाई को भी अवरुद्ध कर सकते थे।
अगर पाकिस्तान की सेना इतनी आत्मविश्वास से भरी हुई थी तो इसका बड़ा कारण था कि हम इस टकराव के लिए आश्चर्यजनक ढंग से बेतैयार थे। हम तो अटलजी की यात्रा के बाद ‘लाहौर-स्पीरिट’ में तैर रहे थे। हमारी सेना का नेतृत्व भी बिलकुल बेखबर था कि हमारे साथ इतना बड़ा हादसा हो गया है। उस वक्त 15 कोर के जीओसी लै.जनरल कृष्ण पाल ने तो पत्रकारों को 14 मई को बताया था कि ‘समस्या स्थानीय है और स्थानीय स्तर पर इससे निबटा जाएगा।‘ इसी आंकलन का सहारा लेकर रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडीस ने भी घोषणा कर दी कि घुसपैठिए 48 घंटों में खदेड़ दिए जाएंगे। थल सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक जो पोलैंड की यात्रा पर थे को कहा गया कि अपनी यात्रा छोड़ कर वापिस लौटने की जरूरत नहीं। अर्थात समझा गया कि कोई गंभीर मामला नहीं है।
सरकार तथा सेना के नेतृत्व की इस असफलता की बहुत बड़ी कीमत चुकाई गई। कारगिल की चोटियों से पाकिस्तानी सैनिकों को हटाने में हमारे 527 सैनिक शहीद हुए हैं। चोटियों से दुश्मन को हटाने में हमारे सैनिकों ने अविश्वसनीय बहादुरी का परिचय देकर वह काम कर दिखाया जो असंभव नज़र आ रहा था। परमवीर चक्र विजेता शहीद कप्तान विक्रम बत्रा ने टाईगिर हिल पर चढ़ाई करने से पहले एक साथी को कहा था “या तो मैं वहां तिरंगा लहरा कर आऊंगा या मैं तिरंगे में लिपटा आऊंगा।“ विक्रम बत्रा ने तिरंगा भी लहरा दिया और खुद तिरंगे में लिपटे घर लौटे। उनका उन चोटियों पर यह कहना कि ‘दिल मांगे मोर’ आजतक यह कृतज्ञ देश याद करता है।
पाकिस्तान ने समझा था कि क्योंकि वह एक परमाणु ताकत बन चुका है इसलिए भारत सख्ती से जवाब नहीं देगा। जनरल परवेज मुशर्रफ ने अपनी ज़मीन को वापिस लेने की भारत के राजनीतिक तथा सैनिक नेतृत्व के संकल्प को कम आंकने की भारी भूल की थी। न ही उन्होंने हमारे सैनिकों की बहादुरी को सही आंका था कि वह जान की परवाह किए बिना ऊंची चोटियों पर चढ़-चढ़ कर दुश्मन को खदेड़ देंगे। जब अहसास हुआ कि उनका कोह-ए-पायमा आप्रेशन असफल हो गया है तो गेंद नवाज शरीफ के पाले में डाल दी जो भागे-भागे बिल क्लिंटन के दरबार में पहुंच गए। बिल क्लिंटन ने मध्यस्थता की पेशकश की पर अटलजी ने उसे ठुकरा दिया। आखिर में पाकिस्तान को पीछे हटना पड़ा क्योंकि पूरी जंग के लिए तो मुशर्रफ भी तैयार नही था। पहले तो पाकिस्तान ने अपने मृत सैनिकों को वापिस लेने से इंकार कर दिया था। ग्यारह साल के बाद उन्होंने यह स्वीकार किया कि उनके 453 सैनिक मारे गए थे। वह इस मामले को लटका सके क्योंकि अधिकतर मारे गए सैनिक पाकिस्तान की नार्दन लाईट इनफैंट्री के शिया सैनिक थे जिसका संबंध गिलगित बालटीस्तान से था। अगर मारे गए सैनिक पंजाब के सुन्नी मुसलमान होते तो वहां आफत आ जाती।
कारगिल के युद्ध की एक उल्लेखनीय घटना है कि जनरल मलिक के कहने पर वायुसेना का इस्तेमाल किया गया लेकिन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने यह शर्त रख दी कि वायुसेना के जहाज़ नियंत्रण रेखा को पार नहीं करेंगे। वाजपेयी टकराव को बढ़ाना नहीं चाहते थे पर उधर इसका एक बहुत गलत संदेश गया। जैसे डॉ. मनमोहन सिंह के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन ने भी अपनी किताब ‘चौयसॅज़’ में लिखा है, “पाकिस्तान की सेना ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत द्वारा नियंत्रण रेख का सम्मान करने का मतलब है कि भारत पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के कारण दूसरी जगह जवाब नहीं देगा या पूरा युद्ध शुरू नहीं करेगा। इस तरह टकराव सीमित हो जाएगा जिसका फायदा पाकिस्तान को होगा।“ पाकिस्तान यह भी समझने लगा कि उसके परमाणु कवच के कारण वह इतमिनान से भारत पर आतंकवादी हमले कर सकता है।
आखिर पाकिस्तान के अंदर दूर बालाकोट पर हमला कर नरेन्द्र मोदी ने यह गलतफहमी दूर कर दी कि भारत पाकिस्तान के अंदर तक हमला नहीं करेगा। आज पाकिस्तान की हालत वैसे भी खस्ता है इसीलिए बार-बार इमरान खान वार्ता की पेशकश कर रहें हैं। करतारपुर कॉरिडोर खोलना तथा वहां रह रहे कुछ खालिस्तानियों पर नियंत्रण कर भी भारत को संदेश दिया जा रहा है लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि पाकिस्तान की सेना 1971 के अपमान को नहीं भूली। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि पाकिस्तान खतरनाक स्तर पर अस्थिर देश है जो दिवालिया होने के कगार पर हैं और हमने बहुत प्रयास किया और हर बार धोखा मिला। डॉ. मनमोहन सिंह को मुंबई 26/11 का हमला मिला तो नरेन्द्र मोदी को पठानकोट एयरबेस, उरी तथा पुलवामा मिला।
इस वक्त पाकिस्तान बुरा फंसा हुआ है लेकिन जब मौका मिलेगा वह फिर यही करेंगे। इस वक्त घुसपैठ भी कुछ कम है, नियंत्रण रेखा के पार आतंकी कैंपों को बंद कर दिया गया है। दिखावे के लिए हाफिज सईद को गिरफ्तार कर लिया गया है लेकिन असली बात तो यह देखनी है कि कश्मीर में जमीनी स्थिति सुधरती है या नहीं? पाकिस्तान की सेना स्थाई शांति नहीं चाहती क्योंकि उसके अस्तित्व का सवाल है। इसलिए इस विजय दिवस पर जहां अपने शहीदों का नमन जिन्होंने उन चोटियों पर अपने देश के लिए खून बहाया वहां इतिहास और कारगिल के सबक को भी याद रखना है। हमने बार-बार पृथ्वी राज चौहान नहीं बनना और न ही हमने बार-बार लता मंगेश्कर के साथ गाना है कि ‘जो खून गिरा पर्बत पर वह खून था हिन्दोस्तानी’ । यह खून गिरना ही बंद होना चाहिए।
कारगिल: बीस साल बाद (Kargil 29 Years Later),