सोनिया गांधी अपने पति राजीव गांधी के राजनीति में प्रवेश और बाद में प्रधानमंत्री बनने के जबरदस्त विरुद्ध थी। इंदिरा गांधी ने खुशवंत सिंह को बताया था कि “राजीव की राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है। सोनिया ने धमकी दी है कि अगर वह राजनीति में कदम रखेंगे तो वह तलाक दे देंगी।” लेकिन पहले संजय गांधी की हवाई दुर्घटना में मौत और फिर खुद इंदिरा गांधी की हत्या ने सब कुछ बदल डाला। जिस वक्त अभी इंदिरा गांधी का गोलियों से छलनी शव हस्पताल में ही था, दूसरे कमरे में सोनिया गांधी अपने पति से “शेरनी की तरह” , यह शब्द उनके अपने हैं, लड़ रही थीं कि वह प्रधानमंत्री न बने। बाद में उन्होंने कहा था, “राजीव के राजनीति में प्रवेश का मेरा विरोध शायद स्वार्थ था लेकिन मैं समझती थी कि वह उन्हें भी खत्म कर देंगे… और मैं सही निकली, ऐसा ही हुआ।” राहुल गांधी ने भी बताया था कि जब वह राजनीति में कदम रखने लगे तो मां ने बताया था कि “यह ज़हर का प्याला है।”
लेकिन इसी अनिच्छुक महिला को बाद में राजनीति इस तरह पसंद आई जिस तरह एक मच्छली को पानी पसंद आता है यहां तक कि 1999 में वह प्रधानमंत्री बनने को भी तैयार थी पर अंतिम समय में मुलायम सिंह यादव जिनके पास 32 सांसद थे, ने अडिंग़ा दे दिया था। इसके लिए उन्होंने मुलायम सिंह यादव को कभी माफ नहीं किया लेकिन इस अस्थाई धक्के से सोनिया गांधी हारी नहीं। राजीव गांधी की हत्या के तत्काल बाद उन्होंने कांगे्रेस की बागडोर संभालने से इंकार कर दिया था पर सात साल बाद जिस वक्त कांग्रेस लडखड़़ा रही थी वह पार्टी को संभालने के लिए तैयार हो गई। भाजपा में जान पड़ रही थी, तीसरा मोर्चा कांग्रेस को हाशिए पर धकेल रहा था और कांग्रेस जन सीताराम केसरी के फीके नेतृत्व से निरुत्साहित थे इसलिए तख्ता पलटते हुए सोनिया गांधी 1998 में पार्टी अध्यक्ष बन गई और चीखते-चिल्लाते केसरी को बाहर निकाल दिया गया। और जिस महिला ने अपने पति के राजनीति में प्रवेश का जबरदस्त विरोध किया था वह कांग्रेस की सबसे लम्बी अवधि तक बने रहने वाली अध्यक्ष बन गई। इस बीच नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनने दिया गया कि वह गांधी परिवार के ताबेदार रहेंगे लेकिन अनुभवी ब्राह्मण राव ने अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर लिया। राव समझते थे कि एक शताब्दी से पुरानी राजनीतिक संस्था को नेहरु-गांधी परिवार से अलग अपने अस्तित्व के बारे सोचना चाहिए।
अपने इन आजाद विचारों के लिए उन्हें सोनिया गांधी के लगातार विरोध का सामना करना पड़ा। यह सब डॉ. मनमोहन सिंह ने खूब समझ लिया इसलिए उन्होंने अपनी सरकार सोनिया गांधी की सलाह से चलाई यहां तक कि एक बार स्वीकार किया कि सत्ता का एक ही केन्द्र हो सकता है, और वह कांग्रेस की अध्यक्ष थीं। डाक्टर साहिब ने अपनी भीरुता से देश के प्रधानमंत्री के पद का अव्मूल्यन कर दिया पर जैसे संजय बारु ने अपनी किताब में भी लिखा है, “शायद डॉ. सिंह इसलिए घबराए हुए थे क्योंकि उन्होंने नरसिम्हा राव का हश्र देखा था।” डॉ. मनमोहन सिंह के प्रति कोई भी वफादार नहीं था। सभी की वफादारी कांग्रेस अध्यक्ष के प्रति थी। वह विरासत की उत्तराधिकारी थी और वह सत्ता पर कब्ज़ा छोडऩे को तैयार नहीं थी और न ही वह पार्टी के अंदर किसी को अपने बराबर स्वीकार करने को तैयार थीं।
यह सब मैं इसलिए लिख रहा हूं कि सोनिया गांधी में जो परिवर्तन आया वह उल्लेखनीय था। वह अनिच्छुक से राजनीति की कुशल खिलाड़ी बन गई। यह इस महिला की योग्यता और राजनीतिक क्षमता भी साबित करती है कि इटली से आकर, भारत को अपना घर बना कर वह ऐसी स्थिति में पहुंच गई कि दस साल वह हम पर हकूमत कर सकीं। क्या यह सत्ता का लालच था या परिवार की विरासत संभालने की मजबूरी, या दोनों? यह तो विवाद का विषय है लेकिन इतिहास तो लिखेगा कि इस महिला ने उस वक्त कांग्रेस को डूबने से बचाया था और दस साल शासन किया। उन्होंने एक बार कहा था कि जब कांग्रेस लडखड़़ा रही थी तो जब भी घर में टंगे राजीव गांधी के चित्र के आगे से वह निकलती तो उन्हें अपराध बोध होता। राजनीति में आने का यह उनका स्पष्टीकरण था, लेकिन यह भी साफ है कि बाद में कथित ‘ज़हर का प्याला’ उन्हें कड़वा नहीं लगा।
निश्चित तौर पर वह चाहती थी कि परिवार की विरासत कायम रहे लेकिन सब कुछ इच्छा पर ही निर्भर नहीं करता। एक भारतीय मां की ही तरह वह परिवार की विरासत बेटे को सौंपना चाहती थी चाहे बेटी अधिक प्रतिभाशाली है। राहुल बुरी तरह असफल रहे। वह भी राजनीति में बहुत दिलचस्पी नहीं रखते पांच साल उन्होंने संसद में एक प्रश्न भी नहीं पूछा। इस्तीफा देते हुए राहुल गांधी यह भी घोषणा कर गए कि उनके परिवार का कोई सदस्य अध्यक्ष नहीं बनेगा लेकिन बिल्ली के गले में घंटी बांधने को कोई तैयार नहीं था। सब जानते हैं कि सोनिया गांधी पार्टी अध्यक्ष का पद परिवार के बाहर नहीं जाने देगी इसलिए अढ़ाई महीने के बाद जिस दौरान पार्टी की हालत ‘हैडलॅस चिकन’ जैसी थी, अर्थात कोई भी संभालने वाला नहीं था, सोनिया गांधी ने फिर पार्टी अध्यक्ष के तौर पर वापिसी कर ली है। चाहे कहा गया है कि वह ‘अंतरिम’ अध्यक्ष होगी लेकिन जैसी पार्टी बन चुकी है सब जानते हैं कि सोनिया तब तक अध्यक्ष रहेंगी जब तक वह चाहेंगी। दिलचस्प है कि जिस कांग्रेस कार्य समिति ने उन्हें अध्यक्ष बनाया वह खुद सोनिया गांधी द्वारा मनोनित है। तो क्या सोनिया गांधी कांग्रेस में एक बार फिर जान फूंक सकेंगी? इस वक्त तो मामला बहुत कठिन लगता है।
देश परिवारवाद को रद्द कर चुका है। न केवल गांधी परिवार बल्कि लालू प्रसाद, मायावती, मुलायम सिंह यादव, शरद पवार, देवेगौडा आदि के परिवार पर निर्भर राजनीति को भी भारी धक्का पहुंचा है। वैसे भी वंशागत राजनीति तो राजसी प्रवृत्ति है, लोकतांत्रिक नहीं। यह भी अफसोस की बात है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी यह प्रभाव दे रही है कि गांधी परिवार के बाहर उन्हें कोई अध्यक्ष नहीं मिलता और नेतृत्व केवल तीन गांधी, सोनिया, राहुल और प्रियंका के पास ही रहेगा। प्रभाव है कि वह जितनी चाहे मेहनत कर ले अमरेन्द्र सिंह या मल्लिकार्जुन खडग़े या सचिन पायलट या ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि कभी भी बड़ी कुर्सी के अधिकारी नहीं बन सकते। राहुल गांधी ने कहा था कि कोई गांधी उनका उत्तराधिकारी नहीं होगा पर मां ने ही उनके वादे का भी मज़ाक उड़ा दिया। देश जवान हो रहा है लेकिन पार्टी में जो नेता जमे बैठे वह नए नेतृत्व के लिए जगह बनाने के लिए तैयार नहीं। पार्टी का उद्धार कैसे होगा?
दूसरा, पार्टी की कोई विचारधारा नहीं रही। जिस तरह अनुच्छेद 370 हटाए जाने का विरोध किया गया उससे तो पार्टी ने खुद को मुख्यधारा से काट लिया है। कई कांग्रेसी नेता इस मामले को लेकर सरकार का समर्थन कर चुके हैं। ऐसी ही गलती शाहबानो के मामले में भी की गई। बालाकोट के मामले में की गई। तीन तलाक के मामले में की गई। तब भी पार्टी लोकराय के विरुद्ध खड़ी थी जिस पर पाकिस्तानी शायर मुनीर नियाज़ी के यह शब्द याद आ जाते हैं,
कुछ शहर दे लोक वी ज़ालिम सन
कुछ सानू मरन दा शौक वी सी
कांग्रेस के बड़े नेता धारा 370 हटाए जाने का उस वक्त विरोध कर रहे हैं जब आगे हरियाणा, महाराष्ट्र तथा झारखंड का चुनाव है और सारा वर्णन राष्ट्रीय सुरक्षा तथा कश्मीर के इर्दगिर्द घूम रहे हैं। स्पष्ट विचारधारा का अभाव पार्टी को भावनात्मक मुद्दों का सामना करने के मामले में कमज़ोर बना देता है। जयपाल रेड्डी ने सोनिया गांधी के बारे कहा था, “जिंदगी के विश्वविद्यालय के सर्वश्रेष्ठ स्नातकों में से एक।” यह बात सही लगती है क्योंकि वह जिंदगी की कई परिक्षाओं में से अच्छी तरह उत्तीर्ण रहीं हैं। ऐसी चुनौतियों का सामना किया तो किसी इंसान को तोड़ कर रख देती। पर यह क्रूर राजनीति है। गांधी परिवार कांग्रेस की मजबूरी हो सकती है देश की मजबूरी नहीं। और मुकाबला मोदी-शाह की भाजपा से है।
सोनिया गांधी की वापिसी (Return of Sonia Gandhi),