किसी ने सही कहा है कि भारत में तूफान खड़ा करना बहुत आसान है। ऐसा ही ये हाल ही में गृहमंत्री अमित शाह द्वारा हिन्दी दिवस पर की गई टिप्पणी के बाद भी हुआ जब द्रमुक के नेता स्टालिन ने कह दिया कि इससे देश की एकता पर असर पड़ेगा। कुछ और भी राजनेता बोलने लगे कि अगर देश में हिन्दी ‘थोपी गई’ तो देश बंट जाएगा। यह भूलते हुए कि वंदे मातरम् के रचयिता बंकिम चंद्र चैटर्जी ने भविष्यवाणी की थी कि एक दिन हिन्दी देश की राष्ट्रभाषा होगी और उसकी सहायता से देश में एकता होगी, ममता बैनर्जी ने भी कह दिया कि हमें मातृभाषा भूलनी नहीं चाहिए।
लेकिन अमित शाह ने इतना आपत्तिजनक कहा क्या कि यह सब भडक़ उठे? अमित शाह ने कहा कि देश को एकता की डोर में बांधने का काम अगर कोई कर सकती है तो यह सबसे अधिक बोले जाने वाली भाषा हिन्दी ही है। उन्होंने यह भी कहा कि देश की विभिन्न भाषाएं और बोलियां हमारी ताकत हैं पर हर किसी को अपनी मातृभाषा के साथ-साथ हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए ताकि विदेशी भाषाओं को जगह न मिले।
जो बात अमित शाह ने कही वह क्या सच नहीं कि देश में सबसे अधिक 53 करोड़ लोगों (2011 की जनगणना के अनुसार) ने हिन्दी को अपनी भाषा स्वीकार किया था? महात्मा गांधी ने भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहना शुरू कर दिया था जबकि गांधी जी पर तो ‘संघी’ होने का आरोप नहीं लग सकता और गांधी जी की मातृभाषा तो गुजराती थी जिस तरह अमित शाह की भी मातृभाषा गुजराती है। अगर दोनों गुजरातियों ने हिन्दी को देश की भाषा बनाने की बात कही है तो इसलिए कि केवल हिन्दी ही ऐसी भाषा हो सकती है जो सारे देश को जोड़ सकती है। अंग्रेजी के मीडिया के चिल्लाने के बाद दक्षिण भारत में हिन्दी का विरोध शुरू हो गया। दक्षिण की अपनी भाषाएं बहुत समृद्ध हैं। तमिल तो सिंगापुर की चार सरकारी भाषाओं में से एक है लेकिन देश में इनका प्रसार अपने-अपने प्रदेश तक ही सीमित है। कर्नाटक या केरल या आंध्र प्रदेश वाले ही तमिल को स्वीकार नहीं करेंगे। सभी प्रादेशिक भाषाओं का विकास होना चाहिए हिन्दी का इन भाषाओं से बैर नहीं है। समस्या अंग्रेजी है। इन भाषाओं की लड़ाई में अंग्रेजी फायदा उठा रही है।
अंग्रेजी के प्रभुत्व के कारण हमने देश के बहुत बड़े वर्ग को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया है। हीन भावना से भर दिया। बहुत प्रतिभावान युवा है जो जिंदगी में इसलिए नहीं बढ़ सकते क्योंकि उन्हें अंग्रेजी का सही ज्ञान नहीं है। उनके परिवारों में अंग्रेजी किसी को आती नहीं तो वह सीखेंगे कैसे? पर यहां तो इंग्लिश में प्रवीणता तय करती है कि आप किसी काम के हो या नहीं? और इंग्लिश है भी बहुत अवैज्ञानिक तथा जटिल भाषा क्योंकि यह ध्वनिप्रधान नहीं है। मिसाल देना चाहता हूं कि सारा देश DATA को डाटा कहता है जबकि इसका सही उच्चारण ‘डेटा’ बताया गया है। DATA डेटा कैसे बन गया? DENGUE को हम डेंगू बोलते हैं लेकिन जो ‘सौफिस्टीकेटेड’ है वह इसे ‘डेंगी’ कहते हैं। अगर आम भारतवासी को यह माजरा समझ न आए तो उसका कसूर नहीं क्योंकि हमारी अपनी सारी भाषाएं ध्वनि पर आधारित हैं। इसका एक और दुष्परिणाम निकला है अंग्रेजी के साथ नकली अंग्रेजियत भी आ गई है। गर्मियों के मौसम में हम छोटे-छोटे बच्चों को नैकटाई डाल कर स्कूल भेज देते हैं। स्कूल वालों का कहना है कि मां-बाप मांग करते हैं कि बच्चे ‘स्मार्ट’ बने। एक और मिसाल देता हूं, अंग्रेजी पढ़ने वालों में कवि वर्डज़वर्थ बहुत लोकप्रिय हैं। पूछा जाए कि आपकी उनकी सबसे मनपसंद कविता कौन सी है तो अधिकतर ‘डैफोडिलज़’ कहेंगे जहां खूबसूरत डैफोडिलज़ फूलों की भावभीनी प्रशस्ति की गई है। पर हमारे यहां तो यह फूल होता नहीं फिर भी हम पढ़-पढ़ कर उल्लास में उछले जा रहे सिर्फ इसलिए कि हमने अंग्रेजों की नकल करनी है। अपने साहित्य से हम दूर हो गए हैं। अंग्रेजी अब भाषाओं का गला घोंट रही है।
अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। उसका इस्तेमाल होना चाहिए पर यहां तो अंग्रेजी हमारा इस्तेमाल कर रही है। हमारे संस्कार खत्म करती जा रही है। Hi संस्कृति फैल रही है! अंग्रेजी माध्यम द्वारा संचालित व्यवस्था के बाहर विशाल प्रतिभाशाली कुंड है जिसके साथ इंग्लिश के प्रभुत्व के कारण न केवल अन्याय बल्कि अत्याचार भी किया जा रहा है। इंग्लिश के प्रभुत्व ने 4-5 करोड़ लोगों को विशेषाधिकार सम्पन्न बना दिया है और बाकी 130 करोड़ बेचारे रह गए हैं। न्यायपालिका, सिविल सर्विस तथा अंग्रेजी मीडिया ने देश के बड़े हिस्से को पिछड़ा रखा है। कितना बड़ा अन्याय है कि लोग न्यायपालिका की भाषा ही नहीं समझ सकते? सरकारी तंत्र देसी भाषाओं का प्रयोग क्यों नहीं कर पा रहा? अब नरेन्द्र मोदी की सरकारी आने के बाद परिवर्तन आ रहा है पर बहुत कुछ करना बाकी है ताकि सभी नागरिकों को बराबर मौका मिले।
दिलचस्प है कि हिन्दी का जो महत्व दक्षिण तथा पूर्व के कुछ नेता समझ नहीं सकें वह बाजार ने समझ लिया है। करोड़ों हिन्दी भाषी लोगों को आकर्षित करने के लिए बाजार अब हिन्दी को अधिक महत्व दे रहा है। एमेज़ॉन ने हाल ही में अपने आवाज पहचानने वाले सहायक यंत्र ‘अलैक्सा’ को हिन्दी में आदेश सुनने के समर्थ बना दिया है। अब वह हिन्दी समझ सकता है और बोल सकता है। हिन्दी में खोज हो रही है। ध्वनि से टाईपिंग हो रही है। सीएनएन का कहना है कि भारतीय भाषाएं वैश्विक तकनीकी कंपनियों के लिए अगला गंतव्य है। 2021 तक भारत में स्थानीय भाषाओं में इंटरनैट का प्रयोग करने वालों की संख्या अंग्रेजी में इंटरनैट प्रयोग करने वालों की संख्या से तीन गुना होगी। इनमें सबसे अधिक तरक्की हिन्दी में हो रही है। इंटरनैट पर हिन्दी का इस्तेमाल करने वालों की संख्या सबसे तेज़ 94 प्रतिशत बढ़ रही है जबकि अंग्रेजी की रफ्तार 19 प्रतिशत है। इसका संदेश क्या है? कि आज के आधुनिक माहौल में हिन्दी किसी से पीछे नहीं। स्मार्टफोन और कम्प्यूटर पर हिन्दी में सामग्री ढूंढने वालों की संख्या दो गुना तेज़ी से बढ़ रही है। यह भी कड़वा सत्य है कि देश की 10 प्रमुख भाषाओं में सिर्फ हिन्दी बोलने वाले ही बढ़े हैं। चार दशकों में हिन्दी बोलने वालों की संख्या 19 प्रतिशत बढ़ी जिस दौरान बाकी प्रमुख भाषा बोलने वालों की संख्या घटी है।
रही बात दक्षिण भारत की आपत्ति की, अगर वह राजनीतिक चश्मा हटा कर देखें तो समझ जाएंगे कि हिन्दी के प्रसार को वह रोक नहीं सकते। चेन्नई में 100 सीबीएसइ स्कूल हैं क्योंकि सरकारी स्कूलों में केवल अंग्रेजी और तमिल ही पढ़ाई जाती है इसलिए लोग सीबीएसइ स्कूलों में बच्चों को प्रवेश दिलवा रहें हैं। पांच सालों मेें तमिलनाडु में सीबीएसइ स्कूलों की गिनती दो गुना बढ़ी है और अब यह 600 के करीब है। वहां लोग अपने नेताओं से अधिक समझदार हैं और जानते हैं कि भविष्य हिन्दी के साथ हैं और वह अपने बच्चों को पिछड़ा नहीं रखना चाहते।
हिन्दी के बारे जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए क्योंकि तब यह राजनीतिक मामला बन जाता है। हिन्दी की स्वीकार्यता खुद बढ़ रही है क्योंकि केवल यह ही सम्पर्क भाषा बन सकती है। समय के साथ सब इसे स्वीकार करेंगे। अंग्रेजी हमारे जनजीवन के अनुरूप नहीं है। दक्षिण भारत में भी बहुत लोग हिन्दी जानते हैं। इस वक्त विरोध करने वाले कमल हसन खुद हिन्दी फिल्मों में काम कर चुके हैं। जयललिता सिमी ग्रेवाल के कार्यक्रम मेें आकर “आ जा सनम मधुर चांदनी में हम” गा चुकीं हैं। गृहमंत्री रहते हुए पी. चिंदबरम ने कहा था कि राज भाषा हिन्दी को पूरे देश में सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित करना है। ‘दिल वाले दुलहनियां ले जाएंगे’ चेन्नई में कई वर्ष तक लगी रही। तमिल फिल्में खुद बहुत लोकप्रिय हैं लेकिन राज और सिमरन की इस हिन्दी फिल्म की वहां लम्बी सफलता क्या बताती है?
बिल्लियों की लड़ाई में अंग्रेजी बंदर (The Monkey in Cats Fight),