
यह इस दशक का मेरा अंतिम कालम है। आभास है कि दशक के अंतिम दिन देश को बुरी तरह बांट गए और भाजपा को भारी धक्का दे गए। झारखंड पांचवां राज्य है जो भाजपा के हाथ से खिसका है। दो साल पहले भाजपा का देश के 71 प्रतिशत हिस्से पर कब्ज़ा था जो अब मात्र 35 प्रतिशत रह गया है। भाजपा के पास 300 सांसद हैं, एक प्रभावशाली नेतृत्व है लेकिन कहीं जनता के साथ संवाद टूट रहा है। बेरोजगारी पिछले 45 वर्षों में सबसे अधिक है और अमित शाह आसमान से ऊंचा राम मंदिर बनाने की बात कर रहें हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि झारखंड वह प्रदेश है जहां सबसे अधिक मॉब लिंचिंग हुई है। विकास की दर गिरने से चारों तरफ हताशा है जिसका फायदा विपक्ष को हो रहा है। नरेन्द्र मोदी को जनता ने केवल हिन्दुत्व के कारण ही वोट नहीं दिया बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने अर्थ व्यवस्था जो यूपीए के भ्रष्टाचार के कारण बाधित हो गई थी, को फिर से गति देने का वादा किया था। यह वादा पूरा नहीं हो रहा इसलिए लोगों की नाराजगी बढ़ी है।
नागरिक संशोधन कानून तथा एनआरसी के कारण देश बुरी तरह से उत्तेजित है। हमने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ा चला दिया है। जामिया मिलिया से शुरू हुआ आंदोलन एक समय 14 राज्यों के 50 से अधिक कैम्पस में फैल गया था। आईआईटी तथा आईआईएम जैसे संस्थानों के छात्र जो कभी सडक़ों पर भी नहीं उतरे, भी प्रदर्शन कर रहे थे। पहली बार राजधानी में इंटरनैट बंद करना पड़ा। 1984 के बाद पहली बार इतना व्यापक कानून और व्यवस्था का मामला खड़ा हुआ है। भाजपा के अपने सहयोगी तथा समर्थक सरकार से दूरी बना रहें हैं।
जो पड़ोस के देशों के उत्पीड़ित हैं उन्हें भारत में आश्रय मिलना चाहिए। हम सदियों से ऐसा करते आ रहें हैं। सरकार का यह कथन बिल्कुल सही है कि यह कानून किसी भारतीय मुसलमान के खिलाफ नहीं है। यह कानून नागरिकता देने का है, छीनने का नहीं लेकिन समस्या मुसलमानों को बाहर रखने से शुरू हुई जिसके कारण पहले मुसलमानों में बेचैनी शुरू हुई जो अब देशव्यापी आंदोलन में बदल चुकी है। यह भी मालूम नहीं कि भारत की नागरिकता मांगने वाले है कितने? और हम कैसे तय करेंगे कि कितने धार्मिक उत्पीडऩ के कारण यहां आए हैं रोजगार के लिए नहीं? बांग्लादेश से तो अधिकतर रोजगार के लिए यहां आए हैं। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जहां नागरिकता कानून के अनुसार मिलनी चाहिए मजहब देख कर नहीं। यह एक उदारवादी लोकतांत्रिक भारत की मूल अवधारणा के विरुद्ध है। एक समय हम गरीब थे, पिछड़े थे लेकिन दुनिया में सर ऊंचा कर चलते थे कि हम उदार धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र हैं। हमारी यह विशिष्टता खतरे में पड़ गई है। सरकार ने वहां बखेड़ा खड़ा कर दिया जहां पहले नहीं था। ऐसा आभास मिलता है कि सरकार जबरदस्ती अपना एजेंडा लोगों के गले में ठूस रही है। उसके बाद जो हुआ उसके बारे तो कहा जा सकता है कि
आता है रहनुमाओं की नीयत में फतूर
उठता है साहिलों में वह तूफां न पूछिए
यह तूफान अभी तक थमा नहीं। लगता है कि सरकार ने जमीन से अपना रिश्ता तोड़ लिया है। लाखों नागरिकों को सडक़ों पर उतरने के लिए मजबूर होना पड़ा और करोड़ों इस घटनाक्रम से विचलित हैं। क्या यह छवि एक आधुनिक भारत की होनी चाहिए कि वह अपने में ही उलझ गया है? फाईनैनशल टाईम्स के संपादक ने इसे ‘काला नया नागरिक कानून’ कहा है। कई गैर भाजपा मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि वह अपने-अपने प्रदेशों में सीएए लागू नहीं करेंगे जबकि वह कानूनन वह इसका अमल रोक नहीं सकते। लेकिन अगर टकराव हुआ तो संघीय ढांचे का बचेगा क्या? हर जगह जबरदस्ती नहीं हो सकती। नागरिकता जैसे मामले पर राष्ट्रीय सहमति की जरूरत है, संसद में बहुमत काफी नहीं। न जाने क्यों भाजपा का नेतृत्व समझ बैठा है कि खुद को जबरदस्त सिद्ध करने के लिए उन्हें कुछ न कुछ नाटकीय करना है चाहे वह नोटबंदी हो या सीएए। झारखंड के नतीजे बता गए कि लोग सरकार की ऐसी स्कीमों के बारे क्या सोचते हैं।
सीएए के साथ एनआरसी को जोड़ दिया और देश में विस्फोट हो गया। मुसलमान समझने लगे कि इन दोनों को मिल कर उनकी नागरिकता पर छापा मारा जाएगा। जिन्होने तीन तलाक, धारा 370, राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का विरोध नहीं किया वह सीएए और एनआरसी पर भडक़ उठे। एक सप्ताह के दंगे-फसाद, जिसमें कई पुलिस वाले भी घायल हुए और 30 के करीब लोग मारे गए, के बाद प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि “पहले यह तो देख लीजिए एनआरसी पर कुछ हुआ भी क्या… मेरी सरकार आने के बाद…. कहीं पर भी एनआरसी शब्द पर कोई चर्चा नहीं हुई है।” लेकिन खुद गृहमंत्री अमित शाह संसद में कह चुके हैं कि ‘मान कर चलिए एनआरसी आ रहा है’। झारखंड की चुनावी रैलियों में भी गृहमंत्री कह चुकें हैं कि “2024 के चुनाव से पहले सारे देश में एनआरसी लागू होगा और घुसपैठिए को निकाल दिया जाएगा।”
अजब स्थिति है कि प्रधानमंत्री कुछ कह रहे हैं और मंत्री कुछ और। यह भी महत्वपूर्ण है कि नागरिकता संशोधन विधेयक पर बहस के समय प्रधानमंत्री गायब रहे और सारी जिम्मेवारी गृहमंत्री ने निभाई। प्रधानमंत्री ने कहा है कि चर्चा नहीं हुई पर यह नहीं कहा कि इसे लागू नहीं किया जाएगा। इसका अर्थ है कि सरकार ने अभी इसे रद्द नहीं किया जिससे बेचैनी कायम रहेगी। गरीबों, दलितों और पिछड़ों के पास तो अपने दस्तावेज़ ही नहीं है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने कहा कि अगर यह लागू किया गया तो आधा छत्तीसगढ़ नागरिकता से वंचित हो जाएगा। और जिनके पास अपना आधार कार्ड है उन्हें इस परेशानी में क्यों डाला जा रहा है? 73 वर्ष की आयु में मेरे पास अपना आधार कार्ड, पैन, स्कूल प्रमाणपत्र, पासपोर्ट, ड्राईविंग लाईसैंस सब है। क्या एक दिन मुझे किसी सरकारी बाबू के आगे लाईन में खड़ा होना पड़ेगा कि सर, प्लीज़ यह प्रमाणपत्र दे दो कि मैं भारत का नागरिक हूं? 1600 करोड़ रुपया खर्च कर असम में यह प्रक्रिया बुरी तरह से असफल रही है और अब सारे देश पर थोपी जाएगी? जिस व्यवस्था ने नोटबंदी को फेल का दिया था क्या इन्हीं लोगों पर सही नागरिकता साबित करने का भरोसा किया जा सकता है?
अमित शाह का दबंग कहना है कि ‘हम समस्याएं खत्म करने के लिए आए हैं।’ बड़ी अच्छी बात है लेकिन आपने तो उलट बड़ी समस्या खड़ी कर दी। लोगों ने तो भ्रष्टाचार खत्म करने, आर्थिक सुधारों के लिए तथा मजबूत नेतृत्व के लिए वोट दिया था उन्होंने सीएए-एनसीआर के लिए वोट नहीं दिया था। पूर्व नौसेना अध्यक्ष एडमिरल अरुण प्रकाश ने सही कहा है कि “यह घोर निराशा का विषय है कि हमारे साधन, ध्यान तथा ऊर्जा उन मामलों पर खर्च हो रहे जो महत्वपूर्ण नहीं है।” हमारा सारा ध्यान हमारी अर्थ व्यवस्था पर लगाना चाहिए जो पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रहमणियम के अनुसार आईसीयू में जा रही है लेकिन हम उस तरफ धकेेले जा रहें हैं जिससे द्वेष, नफरत, हिंसा और बेचैनी पैदा हो रही है। इस विचार को पीछे डाल देना चाहिए और सारा ध्यान अर्थ व्यवस्था को सुधारने तथा विकास पर केन्द्रित होना चाहिए।
इसका और बड़ा नुकसान हुआ है। विदेशों में भारत की छवि बहुत खराब बन रही है। पश्चिम का लिबरेल प्रैस हमारे खिलाफ हो गया है। हार्वर्ड तथा केम्बरिज विश्वविद्यालयों में हमारे खिलाफ प्रदर्शन हो चुकें हैं। सबसे चिंता की बात है कि इस विवादस्पद प्रक्रिया के कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि पर आंच आ रही है। उनके दोबारा सत्ता में आने के छ: महीने के बाद देश बुरी तरह से उलझ गया है। चारों तरफ अशांति है। यह कांग्रेस या ममला बैनर्जी का ही मामला नहीं, असली बात है कि ‘हम भारत के लोग’ विचलित हैं, निराश हैं, हताश हैं और फैज अहमद फैज से उधार लेकर कह रहें हैं,
ये दाग-दाग उजाला ये शबगजीदा सहर
वो इंतजार था जिसका ये वह सहर तो नहीं।