इस देश की चाल बहुत बेढंगी हो रही है। यहां तो अब कोई मुसलमान विद्वान संस्कृत नहीं पढ़ा सकेगा। दिल्ली के जेएनयू पर नकाबपोश गुंडों ने जो हमला किया वह संस्था के बलात्कार से कम नहीं है। कैम्पस के अंदर ‘गोली मारो सालों को’ के नारे लगे और बाहर पुलिस तमाशबीन बनी रही। क्या शिक्षा को उजाडऩा है? क्या एक ही तरह की विचारधारा अब यहां स्वीकार्य होगी? देश के प्रतिष्ठित आईआईटी कानपुर में इस बात की जांच हो रही है कि क्या फैज अहमद फैज की प्रसिद्ध नज़म ‘हम देखेंगे’ में हिन्दू विरोधी टिप्पणी की गई है? वहां के कुछ छात्रों ने यह नज़म पढ़ी थी जो फैज ने पाकिस्तान के तानाशाह ज़िया उल हक के खिलाफ लिखी थी और इसे साड़ी डाल इकबाल बानो ने गाया था। इसके द्वारा उन्होंने लोकतंत्र का समर्थन किया था और पाकिस्तान में बढ़ते अन्याय का विरोध किया था। पर कुछ लोगों ने आईआईटी कानपुर में इस पर आपत्ति कर दी क्योंकि बुत शब्द का इस्तेमाल हुआ है जबकि शायर का अभिप्राय सत्ताधीशों से था। यह कविता जुल्म-ओ-सितम तथा ताज और तख्त के खिलाफ बुलंद आवाज़ है। इस पूरी नज़म में कहीं भी हिन्दू-मुस्लिम बात तक नहीं कही गई पर जैसे आजकल अक्सर यहां हो रहा है, हिन्दू धर्म के कुछ ठेकेदार उठते हैं और बवाल खड़ा कर देते हैं। इन जाहिलों ने यह भी नहीं सोचा कि अगर फैज की नज़म हिन्दू विरोधी होती तो ज़िया को उस पर आपत्ति क्यों होती? और यह भी नहीं सोचा कि अब वह उस ज़िया उल हक के साथ खड़े हैं जिसने भारत के खिलाफ आतंकवाद की बुनियाद रखी थी।
क्या अब यहां शायरी पर भी प्रतिबंध लगेगा? अफसोस है कि इस देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरा बैठाने की कोशिश की जा रही है। अगर आपकी बात पसंद नहीं तो आपको राष्ट्र विरोधी करार दिया जाएगा और अगर अधिक शिकायत हुई तो पाकिस्तान जाने के लिए कहा जाएगा। यह संतोष की बात होनी चाहिए कि विभिन्न धर्मों में आस्था रखने वाले युवा शांतमय तरीके से अपनी बात कह रहें हैं। उन्होंने राजनेताओं को अपने संघर्ष के नजदीक फटकने नहीं दिया। कई संगीत के द्वारा तो कई कविता के द्वारा अपनी बात कह रहे हैं। एक हिन्दू युवा की कविता ‘कागज़ नहीं दिखाएंगे’ वायरल हो चुकी है। एक और हिन्दू कवि ने लिखा है, “पुरखों की कब्रें, स्कूल की यादें, इश्क के वादे: कुछ देखोगे, सुनोगे या सिर्फ कागज़ात पूछोगे?” इस कविता को एक युवा मुसलमान ने आवाज दी है। उनकी बात से कई असहमत होंगे लेकिन उन्हें अपनी बात कहने से रोका क्यों जाए? असहमति और विरोध, जब तक वह हिंसक न हो, तो लोकतंत्र के मूल सिद्धांत हैं। ठीक है देश का विभाजन दो राष्ट्रों के सिद्धांत पर हुआ था लेकिन यह 70 वर्ष पुरानी बात हो गई। उसके बाद दो पीढ़ियां जवान हो चुकी हैं लेकिन हम हर बार विभाजन का रोना लेकर बैठ जाते हैं। मेरा अपना परिवार पाकिस्तान से बिल्कुल उजड़ का आया था। एक-एक ईंट इकट्ठी कर जिंदगी फिर से खड़ी की गई लेकिन नफरत नहीं सिखाई गई। जो गुज़र गया वह गुज़र गया। आज कष्ट होता है कि नफरत की दीवार खड़ी की जा रही है जिसकी आगे चल कर बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है इसीलिए शायर के यह शब्द याद आते हैं,
मेरे आशियां का तो गम न कर
कि वह जलता है तो जला करे,
लेकिन इन हवाओं को रोकिए
यह सवाल चमन का है
दुख है कि इसी नफरत की हवा का शिकार क्रिकेटर इरफान पठान भी हो गए। जब उन्होंने जामिया के छात्रों के समर्थन में ट्वीट किया तो उन्हें बुरी तरफ लताड़ा गया। इरफान का जवाब है “क्या जामिया के बच्चे हमारे नहीं हैं? क्या आईआईएम के बच्चे हमारे बच्चे नहीं हैं? क्या उत्तर-पूर्व के बच्चे हमारे बच्चे नहीं हैं? क्या कश्मीर तथा गुजरात के बच्चे हमारे बच्चे नहीं हैं?…. वह भविष्य है जो देश को आगे लेकर जाएंगे।“ इसमें गलत क्या है? जिन्हें याद नहीं उन्हें बताना चाहता हूं कि 2004 में पाकिस्तान के खिलाफ भारत की जीत के मुख्य खिलाड़ी इरफान पठान ही थे। 2006 में कराची के टैस्ट मैच में पहले ओवर में इरफान पठान ने हैट्रिक ली थी। 2004 में लाहौर के एक कालेज में जब एक छात्रा ने गुस्से में उनसे पूछा कि मुसलमान होने के बावजूद वह भारत के लिए क्यों खेलते हैं तो इरफान पठान ने जवाब दिया कि “मैं इंडियन हूं इसलिए मैं इंडिया के लिए खेलता हूं…. मैं खुद को खुशनसीब मानता हूं कि मैं इंडिया को रिप्रज़ैंट कर रहा हूं।“ आज भी इरफान पठान का गर्व से कहना है कि “माईनौरिटी(अल्पसंख्यक) उसे कहा जाता है जो नंबरों में कम हो। हम इंडियन हैं हम तो पूरी दुनिया में मैजोरिटी (बहुसंख्या) है। जयहिन्द!”
यह नई मुस्लिम पीढ़ी है जो गर्व के साथ कह रही है कि वह इंडियन है। उन्हें अपनी पहचान छिपाने की जरूरत नहीं। हुसैन हादरी की नज़म सुनने वाली है, “मेरा इक महीना रमज़ान भी है, मैंने किया तो गंगा स्नान भी है… मैं जितना मुसलमान हूं भाई, मैं उतना हिन्दोस्तानी हूं। मैं हिन्दोस्तानी मुसलमान हूं।“ उसने यह भी कहा कि “मुझ में गीता का सार है… मंदिर की चौखट भी मेरी है।“ इस सांझ को सलाम करना चाहिए। जामिया मिलिया के छात्रों ने जन गण मन के साथ 2020 का स्वागत किया और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाए। जितने भी सीएए या एनआरसी के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं वह केवल तिरंगा के साथ हो रहे हैं। दिल्ली की ऐतिहासिक जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर हज़ारों मुसलमान प्रदर्शन कर रहे थे। उनके हाथ में तिरंगा था, संविधान था, गांधी तथा अम्बेदकर के चित्र थे। वह भी जन गण मन गा रहे थे और ‘हिन्दोस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगा रहे थे।
पर इन युवाओं को भी समझना चाहिए कि पड़ोसी देशों के उत्पीड़ितों को आश्रय मिलना चाहिए लेकिन सरकार को भी इस युवा उभार को समझने की जरूरत है। अगर युवा गलत दिशा में चल उठा और हताशा में रैडिकल बन गया तो बहुत नुकसान होगा। जिन्होंने हिंसा का इस्तेमाल किया उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए लेकिन बदला लेने की जो बात मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कही है वह दुर्भाग्यपूर्ण है। ‘बदला’ शब्द बहुत दुर्भावना व्यक्त करता है। इस शब्द से हिंसा की बदबू आती है। इस सारे विवाद तथा तनाव के बीच कानपुर से ही बढ़िया समाचार मिला है। वहां के बकरगंज के मुस्लिम परिवार की बेटी ज़ीनत का निकाह हुसनन फारुखी से तय किया गया। जिस दिन बारात आनी थी उस दिन शहर में कर्फ्यू लगा था कई जगह हिंसा भी थी। समारोह पर अनिश्चितता के बादल थे तब पड़ोसी हिन्दू परिवारों के 50 युवाओं रक्षक दल बन बारात को घेर कर उसे सकुशल समारोह स्थल तक लेकर आए और वहां तब तक बने रहे जब तक कि विदाई नहीं हो गई। आज ज़ीनत बार-बार अपने इन भाईयों का धन्यवाद कर रही है।
यह भाईचारा अब खतरे में है पर इसे कायम रखना है। मेरे पिताश्री वीरेन्द्र जी भगत सिंह के साथी थे। जिस दिन भगत सिंह को 23 मार्च, 1931 को लाहौर में फांसी दी गई, वीरेन्द्र जी और उनका एक साथी उसी सैंट्रल जेल की एक कोठरी में बंद थे। भगत सिंह ने उन दोनों के लिए अपनी कंघी तथा अपना पैन एक नाई के हाथ भेजा था। यह साथी कौन था? उनका नाम अहसन इलाही था जिन्होंने बढ़-चढ़ कर आजादी के आंदोलन में हिस्सा लिया था। आज सोचता हूं कि जैसा देश का माहौल खराब हो रहा है अहसान इलाही जैसे लोगों की संतान क्या सोच रही होगी? और इरफान पठान भी क्या सोचते होंगे कि उन्हें भी स्पष्टीकरण देना पड़ रहा है। और जो इस तनाव में वोट गिन रहें हैं उन्हें भी सोचना चाहिए कि इतिहास उनके बारे क्या सोचेगा?
लेकिन इन हवाओं को रोकिए (Stop This Madness),