तुम ही सो गए दास्तां कहते कहते (The Loss of Ashwani Chopra)

अश्विनी नहीं रहे। सब संघर्ष पर विजय पाई लेकिन यह एक ऐसा संघर्ष था जिस से लडऩे में इंसान बेबस महसूस करता है। वह कैंसर से हार गए और यह शायद उनकी एकमात्र हार थी। जिंदगी में बहुत दिलेरी से संघर्ष किया। बहुत बढ़िया विरासत छोड़ गए इसीलिए आज एक शायर के यह शब्द उन्हें सच्ची श्रद्धाजंलि होगी,

जिंदगी में बड़ी शिद्दत से निभाओ अपना किरदार
कि परदा गिरने के बाद भी तालियां बजती रहें

पर्दा अब गिर चुका है लेकिन तालियां बज रही हैं और बजती जाएंगी क्योंकि वह बंदा ही ऐसा था। बहुत प्यारी शख्सियत थी। पत्रकारिता जगत के शूरवीर थे। सच्चे दोस्त थे। बाहर से कईयों को वह सख्त लगते थे लेकिन अंदर से बिलकुल साथ-सुथरे बेकपट थे। जब वह जालंधर में थे तो हमने कभी भी गंभीरता से नहीं लिया था। इतना सब जानते थे कि वह लालाजी के लाडले पोते हैं। अच्छा क्रिकेट भी खेलते हैं। मनमौजी तथा मस्त स्वभाव था लेकिन अचानक जिंदगी ने निष्ठुर करवट ले ली। 1981 में लाला जगतनारायण तथा 1984 में रमेशजी की हत्या हो गई। इन दो शहादतों ने अश्विनी की जिंदगी बदल कर रख दी। जिंदगी कितनी क्रूर हो सकती है इससे उनका जवानी में ही सामना हो गया था। रमेशजी की शहादत के बाद अश्विनी ने पंजाब केसashwaniरी के पहले पृष्ठ पर जो लेख लिखा वह मुझे आज भी याद है। उन्होंने लिखा था कि अब पिता की जिम्मेवारी मैं निभाऊंगा और उसी निडरता से पत्रकारिता की सेवा करुंगा जैसे बाप-दादा करते रहें हैं लेकिन तब भी मन में सवाल उठा था कि क्या यह कर भी पाएंगे? आखिर उस वक्त आयु भी तो मात्र 28 वर्ष ही थी।

याद रखना चाहिए कि उस वक्त पंजाब में आतंकवाद चरम सीमा पर था। उग्रवादी पूरा वंश खत्म करना चाहते थे। अश्विनी को भी लगातार खत्म करने की धमकियां मिलती रहीं लेकिन वह बेखौफ थे। उनका विश्वास तो इन पंक्तियों में था,

जबसे सुना है मरने का नाम जिंदगी है
सर पर कफन लपेटे कातिल को ढूंढते हैं

उन्होंने आतंकवाद का डट कर सामना किया और साथ ही दिल्ली में पंजाब केसरी को स्थापित किया। दिल्ली कोई आम शहर नहीं है। बड़े-बड़े यहां डूब चुकें हैं। यह सत्ता का केन्द्र है और विशाल मीडिया घराने यहां स्थापित हैं। यहां अपने अखबार को खड़ा करना बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसका बड़ा कारण है कि अश्विनी को पत्रकारिता धर्म निभाना आता था। उन्होंने कलम से कभी सौदा नहीं किया। इसी कारण उनके प्रशंसकों की कतारें बढ़ती गईं। जहां प्रशंसक बढ़े वहां दुश्मन भी बढ़ते गए। वह बेबाक थे। बेलाग थे। अपनी बात स्पष्ट कहते थे। कई बार जरूरत से भी अधिक जिस कारण कई लोग उनसे खफा भी रहते थे। वह समझौतावादी नहीं थे और कह सकते थे,

हर एक शख्स मुझ से खफा अजंमन में था
कि मेरे लब पे वो ही था जो मेरे मन में था

राजनीति में भी प्रवेश तब किया जब मित्र अरुण जेतली ने आग्रह किया। दिल्ली से जाकर पहली बार करनाल से चुनाव लडऩा और वहां भी चार लाख वोट ले जीतना कोई मामूली कामयाबी नहीं थी। सफल सांसद थे लेकिन आखिर में समझ आ गई कि राजनीति और पत्रकारिता का मेल नहीं है। सांसद रहते हुए भी कई बार पार्टी के विरुद्ध लिख जाते थे और आखिर में पत्रकारिता के लिए राजनीति छोड़ दी क्योंकि वह पार्टी के अनुशासन में बंधने को तैयार नहीं थे। पार्टी वाले कुछ नाराज़ भी रहे लेकिन वह भी समझ गए कि इस बंदे को बंधन में बांधना संभव नहीं।

मेरी दोस्ती अश्विनी से उस वक्त हुई जब फरवरी 1999 में हम दोनों प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा के दौरान मीडिया पार्टी में वहां गए थे। तब मैंने पहली बार उनकी सारी कहानी सुनी थी और तब मुझे समझ आई कि जिस व्यक्ति को हम कभी हलके में लेते थे वह वास्तव में फौलाद का बना हुआ है। तब ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वह किसी और की शर्तों पर जिंदगी जीने को तैयार नहीं हैं। पत्रकारिता उनके लिए किसी जनून से कम नहीं थी। लाहौर में भी एक गोष्ठी में उन्होंने पाकिस्तानियों को खरी-खरी सुना दी थी। सब दंग रह गए थे। हमारी दोस्ती बढ़ती गई। फोन पर कई बार लम्बी बेबाक बातचीत होती थी। कांग्रेस-भाजपा सब में उनके मित्र थे। जिसका वह दोस्त बन गए उसका साथ कभी नहीं छोड़ा। मुझे व्यक्तिगत अनुभव है। एक दिन मैंने फोन किया कि मैं दिल्ली में आपके अखबार के लिए लिखना चाहता हूं। उनका तत्काल जवाब आज तक मुझे याद है, “भेजो  जी।” कुछ लोगों ने उन तक यह बात भी पहुंचाई कि इसे मौका क्यों दे रहे हो, लेकिन अश्विनी अश्विनी था, अडिग। इसीलिए जहां परिवार के लिए यह असहनीय बिछोड़ा है, मैं समझता हूं कि मैंने अपना बहुत प्यारा मित्र और हितैशी खो दिया।

अश्विनी जहां तक पहुंच सका उसमें बहुत बड़ा हाथ उनकी पत्नी किरण का है। कहते हैं कि हर सफल आदमी के पीछे एक महिला होती है। छोटी बहन किरण इस कहावत को बिलकुल चरित्रार्थ करतीं है। अश्विनी ने जो भी कामयाबी हासिल की उसमें किरण का बराबर का हिस्सा है। किरण ने कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया। शुरू में तो चुनौतियों की भरमार थी। दिल्ली तो किसी को गंभीरता से लेती ही नहीं। वहां के समाज में जगह बनाने में किरण का बहुत बड़ा हाथ है। वह वास्तव में अश्विनी की पूरक थी। किरण ने समाज सेवा में गज़ब का काम किया। वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब किरण का व्यक्तिगत योगदान है। वह उन लोगों का सहारा बनी जिन्हें सब छोड़ गए थे, अकेले रह रहे बुजुर्गों की जिंदगी में किरण वास्तव में आशा की किरण बन कर आई हैं। यह मिशन जारी रहना चाहिए।

लेकिन अचानक जिंदगी ने फिर एक निर्दयी करवट ली। अब फिर घोर परीक्षा का समय आ गया है। अश्विनी को कैंसर हो गया। किरण और बच्चों ने बहुत सेवा की लेकिन पौने दो वर्ष संघर्ष करने के बाद अश्विनी शोकाकुल परिवार को छोड़ गए। किरण का संसार उजड़ गया लेकिन वह उनके लिए बहुत शानदार विरासत भी छोड़ गए। मुझे पूर्ण विश्वास है कि बहन किरण, आदित्य, अर्जुन तथा आकाश में अश्विनी वह संस्कार भर गए कि वह इस विरासत को इसी शानदार तरीके से आगे लेकर जाएंगे। एक भावुक लेख में बड़े सुपुत्र आदित्य ने लिखा है, च्च् आज मुझे अपने कंधों पर बहुत भार महसूस हो रहा है… पिता जी की अनुपस्थिति में पत्रकारिता जगत में जो शून्य पैदा हुआ उसकी भरपाई मैं कैसे करुंगा, यह मेरे लिए दायित्व भी है और चुनौती भी।ज्ज् इस शोकाकुल समय में प्रिय आदित्य का असहाय महसूस करना स्वाभाविक है लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि उनके पिता केवल विरासत ही नहीं बहुत सद्भावना भी छोड़ गए हैं। बहुत लोग हैं जिनकी जिंदगियों को उन्होंने छुआ है यह सब लोग आज आपके साथ खड़े हैं और आपकी कामयाबी की दुआ कर रहें हैं।

परिवार की इस दुख की घड़ी में हम सब शामिल हैं। पिछले साल एक पारिवारिक कार्यक्रम में उन्हें उनके निवास स्थान पर हम मिले थे। बाद में वह कार तक छोडऩे आए। यह मेरी अंतिम मुलाकात थी लेकिन अहसास है कि चाहे पर्दा गिर गया पर तालियां बजती रहेंगी। अपने प्यारे, अज़ीज, दबंग, दिलेर, उदार, संवेदनशील मित्र को मेरी श्रद्धाजंलि इन पंक्तियों के साथ,
ज़माना बड़े शौक से सुन रहा था
तुम ही सो गए दास्तां कहते कहते

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.