जिसे कभी प्रकाश सिंह बादल ने नाखुन तथा मास का रिश्ता कहा था, वह अलग होता नज़र आ रहा है। शिरोमणि अकाली दल ने घोषणा की है कि वह दिल्ली विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे। असलियत यह है कि दोनों अकाली दल तथा भाजपा में मतभेद इतने बढ़ चुके हैं कि दोनों अब इक्ट्ठे नहीं चल सकते इसलिए भाजपा के खिलाफ चुनाव लडऩे से कतराते हुए अकाली दल ने फिलहाल दिल्ली विधानसभा से ही किनारा कर लिया है। इससे पहले हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान भी दोनों दलों के बीच तलखी नज़र आई थी और अब दिल्ली, जहां सिखों की अच्छी-खासी जनसंख्या है, के विधानसभा चुनाव से अकाली दल बाहर हो गया है। यह अकाली दल की कमज़ोरी भी दर्शाता है कि वह दिल्ली में अपना अलग अस्तित्व कायम करने से घबरा रहा है।
भाजपा और अकाली दल का पंजाब में गठबंधन 22 साल पुराना है। दोनों का वोट बैंक अलग है। अकाली दल सिखों का प्रतिनिधित्व करता है और भाजपा हिन्दुओं का। अकाली दल को पंथक वोट मिलता रहा और भाजपा को शहरी। इस गठबंधन ने देश का हित भी बहुत किया क्योंकि इनके कारण पंजाब की साम्प्रदायिक समस्या खत्म हो गई। पंजाब को मिलटैंसी तथा कट्टरवाद से निकालने में भी इस गठबंधन का बड़ा हाथ रहा है। दोनों को राजनीतिक फायदा भी बहुत पहुंचा। तीन बार गठबंधन सत्ता में रहा। अकाली दल के साथ भाजपा का गठबंधन इतना मज़बूत था तथा इससे भाजपा के नेता इतने संतुष्ट थे कि पंजाब में भाजपा को एक प्रकार से बादल परिवार के पास गिरवी रख दिया गया। भाजपा के निर्णय भी बड़े बादल लेते थे। भाजपा में जिस नेता ने अकालियों को आंखें दिखाई उसे बाहर कर दिया गया। एक समय जब पंजाब भाजपा के नेता हिम्मत कर अरुण जेतली से इस प्रस्ताव के साथ मिलने गए की उन्हें अलग चुनाव लडऩे दिया जाए तो जेतली ने नाराज़ हो कर पूछ लिया कि क्या आपकी अलग चुनाव लडऩे की औकात भी है? पर अकाली दल पर निर्भरता के कारण पंजाब भाजपा अंदर से शिथिल होती गई। आज चाहे कुछ भाजपाई 2020 में यहां अपने सीएम का ख्वाब देख रहें हैं पर पंजाब में भाजपा की स्थिति के बारे तो कहा जा सकता है,
कुछ लोग अपनी हिम्मत से
तूफां की जद से बच निकले
कुछ लोग मगर मल्लाहों की
हिम्मत के भरोसे डूब गए
पंजाब में अकाली-भाजपा गठबंधन राष्ट्रीय हित में था लेकिन यहां भाजपा के नेतृत्व भारी भूल कर गया। अकाली दल के साथ गठबंधन करने की जगह उसने बादल परिवार के साथ गठबंधन कर लिया जो वर्तमान तनाव का मुख्य कारण है। जब तक प्रकाश सिंह बादल के हाथ कमान थी सब सही चलता रहा लेकिन जब से यह कमान सुखबीर बादल के पास आई है, अकाली दल लगातार समर्थन खो रहा है। अब ऐसी हालत बन गई है कि भाजपा नेतृत्व यह समझने लगा है कि उस अकाली दल के साथ गठबंधन जिसका नेतृत्व सुखबीर बादल कर रहे हैं, विनाशक साबित होगा। सुखबीर बादल को बोझ समझा जा रहा है जिसे उठाने के लिए भाजपा तैयार नहीं। आखिर पंजाब के पिछले विधानसभा चुनाव में यह गठबंधन तीसरे स्थान पर रहा था। लोकसभा चुनावों में कांग्रेस यहां 13 में से 8 सीटें जीतने में सफल रही। ऐसी सफलता कांग्रेस को कहीं और नहीं मिली थी।
सिख इतिहासकार जीएस ढिल्लों लिखते हैं कि “एक समय सिखों का आंदोलन रहा अकाली दल अब वह पार्टी बन गई है जिस पर एक परिवार का कब्ज़ा है।” यह अकाली दल के प्रति बड़ी शिकायत है कि उन्होंने इस विशाल संगठन को अपने परिवार के इर्द-गिर्द समेट दिया। केन्द्र में भी जब मंत्री बनाने की बारी आई तो सुखदेव सिंह ढींढसा जैसे वरिष्ठ नेता की अनदेखी कर पुत्र वधू हरसिमरत कौर बादल को मंत्री बनवा दिया गया। इसका खामियाज़ा अब भुगतना पड़ रहा है क्योंकि ढींढसा परिवार बागी हो गया है और उनके सफर-ए-अकाली लहर को बादल विरोधियों का समर्थन मिल रहा है। वर्तमान अकाली नेतृत्व के खिलाफ सिखों की शिकायतें बहुत है जिनमें परिवारवाद तो एक है। सिरसा डेरे के प्रमुख को माफी देना, बेअदबी तथा फायरिंग की घटनाएं बहुत गंभीर समझी जा रही है। विशेष तौर पर बेअदबी की घटना को सिख माफ करने को तैयार नहीं। 2017 में दिल्ली सिख गुरुद्वारा कमेटी के चुनाव के दौरान अकाली दल ने प्रकाश सिंह बादल का चित्र प्रचार के लिए इस्तेमाल नहीं किया था। यह स्वीकृति थी कि यह सिक्का बदनाम हो चुका है।
अपने परिवार की हरकतों के बारे सरदार प्रकाश सिंह बादल ने जिस तरह आंखें मूंद रखी उससे पंजाब का भारी अहित हुआ है। अकाली सरकार के दस वर्ष में नशे के कारण पंजाबियों की नसल तबाह हो गई है। यह इतना फैल गया है कि नियंत्रण में नहीं आ रहा। पर बादल परिवार साधन सम्पन्न है। सुखबीर बादल में मेहनत करने की बहुत क्षमता है। वफादार समर्थक भी हैं लेकिन अकाली दल सिखों का भरोसा खो बैठा है जिस कारण भाजपा भी अपने पर तोल रही है। दिल्ली विधानसभा चुनावों में अकाली दल को एक सीट न देकर न केवल उन्हें दुत्कार दिया गया है बल्कि यह संदेश भी दिया गया है कि भाजपा अपनी अलग राह के बारे सोच सकती है। सिख राय को अपनी तरफ मोडऩे के लिए भाजपा के नेतृत्व ने बहुत प्रयास किया है। काली सूची को लगभग खत्म करना, गुरु नानक देव जी के 550वें प्रकाश उत्सव पर देश भर में जश्न मनाना, खुफिया एजेंसियों की चेतावनी के बावजूद करतारपुर कॉरिडर को समय अनुसार पूरा कर केन्द्रीय सरकार सिखों में अपनी पैंठ बनाने की बड़ी कोशिश कर रही है लेकिन अकाली नेतृत्व की बदनामी रास्ते में रुकावट है। अगर भाजपा वर्तमान अकाली नेतृत्व के साथ मिल कर चुनाव लड़ती है तो अधिक सफलता मिलने की संभावना नहीं लेकिन अगर अलग होती है तो क्या कमज़ोर भाजपा अपने बल पर चुनाव लड़ भी सकती है? इसीलिए भाजपा दुविधा में है।
चाहे कई भाजपा नेता उतावले हो रहे हैं पर वह इस स्थिति में नहीं कि सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ सके। संघ भी बहुत समय से पंजाब में भाजपा की अलग हस्ती की वकालत करता आ रहा है। अब अकाली नेतृत्व की बदनामी तथा सीएए पर उनके विपरीत रुख के बाद तलाक की नौबत आ गई लगती है। अकाल तख्त के जत्थेदार का भी कहना है कि देश में अल्पसंख्यक असुरक्षित हैं। भाजपा यहां अपना संगठन तेज़ और मज़बूत करने की तैयारी कर रही है लेकिन मैं नहीं समझता कि इनमें इतना दमखम है कि अकेले अपने बल पर चुनाव लड़ सके। न ही वह नेतृत्व भी है जो लोगों को आकर्षित कर सके। इसीलिए दूसरे विकल्प खोजे जा रहे हैं। सुखदेव सिंह ढींढसा को पद्मभूषण अकारण नहीं दिया गया। भाजपा अकाली दल में नेतृत्व परिवर्तन की कोशिश कर सकती है और समानांतर अकाली दल खड़ा कर सकती है। वर्तमान भाजपा नेतृत्व बादल परिवार के प्रति भावुक नहीं है।
जहां भाजपा दुविधा में है अकाली दल का नेतृत्व अपनी अलग दुविधा में है। जाएं तो जाएं कहां? वह जानते हैं कि नीचे से जमीन खिसक रही है। वह न कांग्रेस का हाथ पकड़ सकते हैं न आप का साथ। वह किसी भी हालत में भाजपा के साथ गठबंधन चाहेंगे क्योंकि केन्द्र में उनकी सरकार है लेकिन भाजपा स्पष्ट तौर पर अनिच्छुक नज़र आ रही है। अब यह देखना है कि भाजपा अपनी ‘अकाली दुविधा’ कैसे हल करती है और अकाली नेतृत्व अपनी ‘भाजपा दुविधा’ का किस तरह समाधान निकालता है? नाखुन और मास की यह लुका-छुपी दिलचस्प रहेगी।
भाजपा की अकाली-दुविधा (BJP and Akalis),