
दिल्ली के इतिहास का सबसे भद्दा चुनाव खत्म हुआ। अरविंद केजरीवाल तथा उनकी आप को प्रचंड बहुमत मिल गया है। दिल्ली वालों ने ‘गोली मारो’ राजनीति को वोट की गोली मार दी। नफरत की राजनीति को रद्द कर दिया। भाजपा का प्रदर्शन फीका रहा जबकि कांग्रेस यह प्रभाव दे रही है कि वह जिंदा रहने को तैयार नहीं। दिल्ली के ठीक बीच स्थित गार्गी कालेज में छात्राओं के साथ कुछ गुंडों ने जो अभ्रद व्यवहार किया है उसकी जितनी भी निंदा की जाए वह कम है। ऐसी-ऐसी हरकतें की गई कि लिखा भी नहीं जा सकता और जैसा हर बार हो रहा है, पुलिस यहां भी तमाशबीन खड़ी रही। जब नेता राजनीति पर जरूरत से अधिक केन्द्रित हो जाएं तो प्रशासन अपना काम करना छोड़ देता है और सब उपर के इशारे का इंतज़ार करते हैं। यह भी प्रभाव मिलता है कि कुछ गुंडा तत्व छात्र-छात्राओं को निशाना बना रहे हैं। दिल्ली के एक के बाद एक कैंपस पर हमला हो रहा है। यह कौन करा रहा है?
दिल्ली के चुनाव परिणाम के पांच संदेश हैं। एक, यह अरविंद केजरीवाल तथा उनके काम की शानदार जीत है। दिल्ली पर अब उनकी पूरी पकड़ है। 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली, महिलाओं को मैट्रो तथा बस की मुफ्त यात्रा, बर्जुगों को तीर्थ यात्रा, अच्छे स्कूल तैयार करने से केजरीवाल ने अपना आधार मज़बूत किया है। भाजपा शाहीन बाग, बिरयानी, पाकिस्तान आदि की फिज़ूल चर्चा करती रही केजरीवाल कामकाज़ पर ही केन्द्रित रहे। वह खुद भी बदले हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री की आलोचना करना छोड़ दिया बहस के लिए भी अमित शाह को आमंत्रित किया नरेन्द्र मोदी को नहीं। दूसरी तरफ भाजपा के नेताओं ने उन्हें गालियां निकाली ‘टैररिस्ट’ तक कह दिया जिसका जवाब केजरीवाल ने यह कह कर दिया कि “मैं दिल्ली की जनता पर छोड़ता हूं कि मैं उनका बेटा, भाई हूं या टैैररिस्ट।” हमारे लोग नम्रता का आदर करते हैं। उन्होंने जवाब दे दिया। न ही केजरीवाल शाहीन बाग के चक्कर में पड़े। वह समझ गए कि लोगों को उनके दैनिक जीवन की चिंता है, धार्मिक धु्रवीकरण के प्रयास से वह सहमत नहीं।
दूसरा, भाजपा का अभियान पूरी तरह से बांटने वाला था। यहां तक कहा गया कि चुनाव भारत और पाकिस्तान के बीच है। भविष्य की बात करने की जगह भाजपा के नेता गढ़े मुर्दे उखाड़ते रहे। कई नेताओं ने बेहूदा बयान दे कर लोगों को भयभीत करने की कोशिश की। एक सियाने ने तो यह कह दिया कि “मुगल शासन लौट सकता है।” क्या अकल को गुडबॉय कह दिया गया है? शाहीन बाग के मुद्दे को बहुत उछाला गया लेकिन दिल्ली वालों को यह नहीं बताया कि भाजपा की सरकार बनने की स्थिति में वह क्या आशा कर सकते हैं? सारा प्रचार नकारात्मक था जिसकी सीमा होती है। दिल्ली एक ‘मिनी-इंडिया’ है, विविध, जागरूक, उदार, तर्कसंगत और स्मार्ट। कैसे समझ लिया कि योगी आदित्यनाथ जैसा नेता उन्हें प्रभावित कर सकता है? योगीजी आधुनिक भारत के प्रतिनिधि नहीं हो सकते।
अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने बहुत जोर लगाया। उन्होंने खुद 35 जबकि जेपी नड्डा ने 63 रैलियों को संबोधित किया। ग्यारह मुख्यमंत्री और 240 सांसद प्रचार अभियान में उतारे गए। अमित शाह ने तो खुद पैम्फलेट तक बांटे। सीएए का मामला बहुत उछाला गया लेकिन दिल्ली ने नकार दिया। केजरीवाल के विपरीत भाजपा के नेता घमंड प्रदर्शित कर रहे थे कि जैसे शासन करने का उन्हीं का अधिकार है। दिल्ली में पार्टी के पास कोई प्रभावशाली सीएम चेहरा न होना भी बड़ी कमज़ोरी थी। केजरीवाल का दरवाज़ा सब खटखटा सकते हैं भाजपा उनका विकल्प प्रस्तुत नहीं कर सकी। कई प्रदेशों में भाजपा के लिए यह बड़ी समस्या है कि उनके पास प्रमाणिक और विश्वसनीय लोकल चेहरे नहीं है। भाजपा को अपनी पटरी बदलनी चाहिए और मंथन करना चाहिए कि लोगों ने इस तरह क्यों नकार दिया? दिल्ली में वह पांच चुनाव लगातार हार चुकी है।
तीसरा बड़ा कारण आर्थिक है। अर्थ व्यवस्था दुरुस्त होने को नहीं आ रही जिसकी कीमत केन्द्र में सत्तारुढ़ पार्टी को अदा करनी पड़ रही है। नोटबंदी से बहुत परिवार उजड़े हैं। जीएसटी के कारण व्यापारी वर्ग जो कभी भाजपा का भक्त रहा है, नाराज़ है क्योंकि धंधा करने में उनकी मुश्किलें बढ़ गई हैं। युवा भी इसीलिए नाराज़ है क्योंकि रोज़गार नहीं बढ़ रहा। निर्मलाजी कोशिश तो कर रही हैं लेकिन मांग नहीं बढ़ रही जिससे अर्थ व्यवस्था का पहिया गति नहीं पकड़ रहा। भाजपा के नेता तो अब विकास की बात ही नहीं करते। सारा ज़ोर उन बातों पर है जिनका रोजमर्रा की जिंदगी से कोई संबंध नहीं।
चौथा, कांग्रेस तमाम हो गई। कहा नहीं जा सकता कि पार्टी गहरी निंद्रा में है या जान-बूझ कर आप की मदद करने के लिए निष्क्रिय है, पर परिणाम तो वही शून्य है। जिस राजधानी में शीला दीक्षित ने 15 साल डट कर शासन किया था वहां कांग्रेस ने सुसाईड कर लिया है। आखिरी दिनों में राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा ने बेमन प्रचार किया था लेकिन सब को संदेश था कि पार्टी यहां बड़ा खिलाड़ी नहीं है। उनके अधिकतर उम्मीदवारों की जमानतें ज़ब्त हो गई। बेहतर है कि नेतृत्व का मुद्दा एक तरफ किया जाए। राहुल ‘डंडा’ गांधी को एक तरफ हो जाना चाहिए और बहन प्रियंका को कमान सौंप देनी चाहिए। वह अधिक सक्रिय है और लोगों के साथ आसानी से रिश्ता जोड़ लेती है।
पांचवां, यह प्रादेशिक चुनाव है इसका राष्ट्रीय राजनीति या नरेन्द्र मोदी की स्थिति पर असर नहीं पड़ेगा। शायद उन्हें भी दिल्ली के परिणाम का आभास था इसलिए उन्होंने भी केवल दो सभाओं को ही संबोधित किया। राष्ट्रीय स्तर पर उनकी लोकप्रियता बरकरार है लेकिन लोकल अब मोदी के नाम पर वोट नहीं पड़ रहे। अगर एक के बाद एक प्रदेश भाजपा हारती गई और अर्थ व्यवस्था में जान नहीं पड़ी तो इसका उन पर भी असर पड़ेगा। इस परिणाम का असर बिहार तथा पश्चिम बंगाल के चुनाव पर भी पड़ सकता है। नरेन्द्र मोदी को अपनी पार्टी के उग्रवादियों को लगाम लगानी चाहिए जिनके कारण पार्टी की नकारात्मक छवि बन रही है। आरएसएस को भी चिंतित होना चाहिए। सीएए-एनआरसी को लेकर जो शंकाएं हैं उनका शांति और सद्भाव से जवाब मिलना चाहिए। दिल्ली में मुस्लिम वोट केवल 14 प्रतिशत है जिसका मतलब है कि आप को सभी वर्गों का मत मिला है। विशेष तौर पर युवाओं की नाराज़गी को समझना चाहिए। युवा हिन्दुओं का भारी मत भी आप को मिला है। युवाओं को इस वक्त कोई आशा नज़र नहीं आ रही। धारा 370, राममंदिर, पाकिस्तान, सीएए आदि बड़े लोगों को प्रभावित करते हैं, युवाओं को नहीं जिनकी चिंता रोज़गार है।
बहुत दिलचस्प है कि देश में पिछले कुछ महीनों में संविधान खरीदने वालों की संख्या पांच गुणा बढ़ गई है। अर्थात सब अपना संविधान और अपने अधिकार समझने में लगे हैं। जागरूकता बढ़ रही है। आखिर में यह चुनाव केजरीवाल के विकास के एजेंडे तथा भाजपा की विभाजित करने वाली राजनीति के बीच था। दिल्ली की जनता का बहुत सकारात्मक संदेश हैै लेकिन शाहीन बाग खाली होना चाहिए जैसा संकेत सुप्रीम कोर्ट ने भी दे दिया है इससे बहुत लोगों को तकलीफ हो रही हैै। अरविंद केजरीवाल को उनकी छप्पडफ़ाड़ जीत पर बहुत-बहुत बधाई आशा है अब वह दिल्ली का कायाकल्प करेंगे। यह लोकतंत्र के लिए बड़ा दिन है। कुछ बिरयानी (वैज) हो जाए!
नकारात्मक को दिल्ली ने नकार दिया (Dilli Negates The Negative),