तीसरी बार सीएम की शपथ लेते समय दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि “दिल्ली ने देश में नई राजनीति को जन्म दिया है… इससे अब देश बदलेगा।” अर्थात अपने शपथ ग्रहण समारोह से ही अरविंद केजरीवाल स्पष्ट कर रहे थे कि अब उनकी नज़रें राष्ट्रीय राजनीति पर है। दिल्ली में उन्हें तथा उनकी पार्टी को प्रभावशाली जीत मिली है। संदेश गया है कि मोदी-शाह अजय नहीं है। कांग्रेस के उतार से भी देश की राजनीति में शून्य सा पैदा हो रहा है। भाजपा की उग्र राजनीति और ‘गोली मारो’ भाषणों के बाद भाजपा के अपने समर्थक भी समझते हैं कि संतुलन कायम करने की बहुत जरूरत है। अगर दिल्ली में आप को इतनी बड़ी जीत मिली है तो इसका बड़ा कारण है कि भाजपा का अपना समर्थक भी बिदक गया और उसने केजरीवाल में भरोसा व्यक्त कर दिया। नकारात्मक अभियान बैक फायर कर गया, जो बात कुछ-कुछ अमित शाह ने भी स्वीकार की है। गुजरात की तरह दिल्ली ‘हिन्दुत्व की लैबोरटरी’ बनने को तैयार नहीं है। दिल्ली के सिखों ने भाजपा के खिलाफ आप को वोट दिया है जबकि सीएए सिखों को प्रभावित नहीं करता। भाजपा के नेतृत्व के लिए दिल्ली के परिणाम में यह संदेश भी छिपा है कि जिस तरफ वह देश को धकेलना चाहते हैं उस तरफ देश जाने को तैयार नहीं। लोग प्रतिरोध कर रहे हैं। भारत और भारत का लोकतंत्र सामंजस्य से चलता है।
तो क्या अरविंद केजरीवाल तथा उनकी पार्टी विपक्ष की राजनीति का केन्द्र बन सकते हैं? क्या देश ‘नई राजनीति’ का उदय देख रहा है?
अरविंद केजरीवाल को अब एक प्रकार से विकास पुरुष समझा जाता है। दिल्ली का राजस्व दोगुना कर दिया गया है और बजट पांच साल लगातार सरपल्स रखा गया है और बहुत कुछ फ्री किया गया जबकि हर दूसरी सरकार घाटे में चल रही है। केजरीवाल महत्वकांक्षी है यह भी सब जानते हैं। 2014 के चुनाव में उन्होंने देश भर में अपने उम्मीदवार खड़े किए थे पर बड़ी मार पड़ी थी। उन्होंने खुद वाराणसी में नरेन्द्र मोदी को टक्कर देने की कोशिश की थी लेकिन लगभग पौने चार लाख वोट से पीछे रह गए थे। विपक्ष में उनसे सीनियर नेता, जैसे मायावती, शरद पवार, ममता बैनर्जी, चंद्र बाबू नायूड आदि मौजूद हैं वह क्यों इस नए प्रतिद्वंद्वी के लिए जगह बनाएंगे? आप के पास भी अरविंद केजरीवाल के सिवाय और कोई प्रभावी नेता नहीं है पर वह भी ममता बैनर्जी या मायावती या केसीआर आदि की तरह पार्टी सुप्रीमो बन बैठे हैं। उनका एकछत्र शासन है। पार्टी में जो भी उन्हें चुनौती दे सकता था, योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, धर्मवीर गांधी आदि व बाहर कर दिए जा चुके हैं। नवजोत सिंह सिद्धू को भी आप में इसीलिए जगह नहीं मिली थी क्योंकि केजरीवाल जानते हैं कि सिद्धू को संभालना मुश्किल होता है। पार्टी में अपने प्रतिद्वंद्वियों के प्रति केजरीवाल पूरी तरह से निष्ठुर रहें है।
इसके बावजूद पलड़ा कुछ उनकी तरफ झुका है। देश भर में उनके काम की उसी तरह प्रशंसा की जा रही है जैसे कभी गुजरात में नरेन्द्र मोदी के काम की होती थी। कई मुख्यमंत्री अब ‘दिल्ली मॉडल’ को समझने में लगे हैं। केजरीवाल भी बदले है और वह अधिक परिपक्वता प्रदर्शित कर रहें हैं। स्वभाव का मंचलापन नियंत्रण में है। उन्होंने ‘सॉफ्ट हिन्दुत्व’ अपना लिया है और संदेश दे रहे हैं कि भाजपा के पास हिन्दू धर्म का कॉपीराईट नहीं है। हनुमान मंदिर जाकर तथा हनुमान चालीसा का गान कर वह हिन्दू चेहरा प्रस्तुत कर रहे हैं जो किसी के विरोध में नहीं है। वह हिन्दू हैं लेकिन मुस्लिम विरोधी नहीं। हिन्दू चेहरा प्रस्तुत करते हुए भी वह भाजपा के उग्र हिन्दुत्व से खुद को अलग रखे हुए हैं। वह जानते हैं कि विपक्ष में नेता की जगह खुली है क्योंकि राहुल गांधी को ठोस नेता नहीं समझा जाता इसलिए अपनी स्वीकार्यता बढ़ा रहें हैं।
एक प्रदेश है जहां आप को सफलता मिल सकती है। पंजाब में लोग कांग्रेस तथा अकाली दल के ‘फ्रैंडली मैच’ से खफा है। दोनों पार्टियों पर सामन्तवादी लोग हावी है। पंजाब में अपेक्षित विकास नहीं हुआ और न ही ड्रग्स,रेत-बजरी, केबल, ट्रांसपोर्ट माफिया आदि पर लगाम लगाने का वादा ही पूरा हुआ है। अजीब स्थिति बनी हुई है कि बादल परिवार की बसें तो दिल्ली के आईजीआई हवाई अड्डे में प्रवेश कर सकती हैं पर सरकारी पंजाब रोडवेज को अनुमति नहीं है। न ही सरकार बेअदबी के दोषियों को सज़ा ही दिलवा सकी है। शासन विरोधी भावना अब स्पष्ट नज़र आ रही है। महंगी बिजली के मामले में सरकार बुरी तरह से घिरी हुई है विशेष तौर पर जब दिल्ली की सस्ती बिजली से तुलना होती है। पार्टी के अंदर भी असंतोष फूट रहा है। अकाली दल अपनी जगह फंसा हुआ है। बेअदबी की शर्मनाक घटना तथा परिवारवाद के कारण वह लोगों में बदनाम हो चुका है। ऐसी स्थिति में लोग आप की तरफ झुक सकते हैं। भगवंत मान ने तो कह ही दिया कि पंजाब ‘नैकस्ट’ है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने भी स्वीकार किया है कि लोग आप को दूसरा मौका दे सकते हैं। जब पहला मौका मिला था तब अरविंद केजरीवाल की दो गलतियों के कारण आप खेल से बाहर हो गई थी। एक, केजरीवाल चुनाव के दौरान एक मिलिटैंट के घर रुक गए थे। पंजाब की फिजा एक दम आप के खिलाफ हो गई थी। दूसरा वह पंजाब में सबल नेतृत्व खड़ा नहीं कर सके। नवजोत सिंह सिद्धू के बारे अब फिर चर्चा है। उनके सोशल मीडिया पेज फिर तेज़ हो गए हैं। एक में लिखा है, “कुछ ही देर की खामोशी है, अब कानो में शोर आएगा, तुम्हारा तो सिर्फ वक्त है, अब सिद्धू का दौर आएगा।” पर मुझे इस बात की बहुत शंका है कि आप में सिद्धू का ‘दौर’ आएगा क्योंकि अरविंद केजरीवाल में भी वहीं कमजोरी है जो हर राजनीतिक नेता में होती है, वह किसी प्रतिद्वंद्वी को उभरने नहीं देंगे। लेकिन अगर पंजाब में जगह बनानी है तो मज़बूत लोकप्रिय चेहरा प्रस्तुत करना होगा।
इस बीच भाजपा-अकाली रिश्ते भी अनिश्चित, पर दिलचस्प मोड़ पर हैं। दिल्ली के चुनाव में भाजपा ने अकाली दल से किनारा कर लिया और अकाली दल ने सिख वोट को आप के पक्ष में भुगता कर बदला ले लिया। अकाली दल दिल्ली में भाजपा की दुर्गति से प्रसन्न है क्योंकि प्रदेश भाजपा के कुछ नेता संबंध तोडऩे के लिए बहुत उतावले हो रहे थे। भाजपा समझती है कि अकाली दल बोझ बन रहा है पर ऐसी हसीयत उनकी नहीं है कि अकेले चुनाव लड़ सके। अब यहां पुनर्विचार होगा। इस बीच रिटायरमैंट से निकल कर प्रकाश सिंह बादल ने कहा है, “यह सुनिश्चित किया जाए कि देश को संविधान में दर्ज धर्म निरपेक्षता व लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुसार चलाया जाए। देश का माहौल ऐसा होना चाहिए कि अल्पसंख्यक सुरक्षित और सम्मानित महसूस करें।” बहुत समय से शांत बैठे बादल साहिब की यह टिप्पणी भाजपा की दिशा के प्रति असहमति ही नहीं बल्कि एक चेतावनी भी समझी जा रही है।
दिल्ली के चुनाव के बाद आप को नए सिरे से इज्जत से देखा जा रहा है। युवा तथा महिलाएं विशेष तौर पर आप की तरफ खींचे जा रहे हैं। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि वह आगे दिल्ली में कैसा काम करते हैं? प्रदूषण कम करना और यमुना को निर्मल करना बहुत बड़ी चुनौती है। दिल्ली को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का शहर बनाना है। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से आशीर्वाद मांगा है लेकिन राजनीति में कोई किसी पर मेहरबानी नहीं करता। इस बात की आशा नहीं करनी चाहिए कि नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी केजरीवाल तथा आप के उत्थान का रास्ता साफ करते जाएंगे। अरविंद केजरीवाल शायद वहां तक न पहुंच सके जहां तक वह जाना चाहते हैं लेकिन यह मानना पड़ेगा कि राजनीति के उनके ब्रांड ने परम्परागत राजनीति को बदल दिया है। शायद सदा के लिए।
क्या देश 'नई राजनीति' का उदय देख रहा है? (Are we seeing rise of 'New Politics',