देश और विदेश में उन लोगों को घोर निराशा हुई होगी जो हमारा फ़ातिहा तैयार कर इंतज़ार में थें। भारत इस चीनी वायरस से तमाम होने नही जा रहा। अभी तक यहाँ क़रीब 20000 संक्रमित हुए हैं और 600 की मौत हुई है। यह आँकड़े बढ़ रहें है पर अमेरिका में संक्रमित संख्या 800000 है और मरने वालों की संख्या 45000 है। योरूप के कई प्रमुख देश बुरी तरह फँसे हुए हैं लेकिन भारत ने स्थिति पर नियंत्रण रखा हुआ है। इसका बड़ा कारण है कि अपनी परिस्थिति को समझते हुए सरकार ने जल्द और तेज़ क़दम उठाए चाहे वह अप्रिय हैं। वह नीतिगत घपला नज़र नही आया जो आजकल अमेरिका में देखने को मिल रहा है। इसलिए जो सज्जन बहुत उत्सुकता से हमारे आँकड़े देख रहे थे उन्हें ग़ालिब से माफ़ी माँगते हुए मेरा कहना है,
थी ख़बर गरम कि इंडिया के उड़ेंगे पुर्ज़े
देखने हम भी गए थे प तमाशा न हुआ
हमारे अस्पतालों में मरीज़ों का सैलाब नही आर हा जैसा योरूप में हो रहा है। देश भर में लॉकडाउन कर सरकार ने बहुत जोखिम भरा क़दम उठाया है। विदेशी मीडिया हमारी बर्बादी की भविष्यवाणी करता रहा। आज़ादी के समय से ही यह हो रहा है। HIV से भी यहाँ लाखों मौतों की भविष्यवाणी की गई थी। बीबीसी ने मुम्बई के अनाम अस्पताल में अज्ञात डाक्टरों के हवाले से ख़बर दी कि बहुत लोग जो श्वास की बीमारी से मर रहें हैं को कोविड का मरीज़ नही बताया जा रहा। यह बकवास है। भारत में ऐसी ख़बरें छिप नही सकती, यह चीन नही है।
अधिकतर पश्चिमी मीडिया भारत के प्रति अगर बैरी नही तो नकारात्मक अवश्य है। ब्रिटिश प्रेस विशेष तौर पर समझौता नही कर सका कि हम उनके बिना तरक़्क़ी कर रहें है लेकिन उनकी अपनी इतनी दुर्गति है कि प्राइम मिनिस्टर जॉनसन ही आईसीयू में पहुँच गए थे। हमारी जनसंख्या अमेरिका से चार गुना अधिक है लेकिन संक्रमित और हताहत के उनके आँकड़े हमसे कई गुना अधिक हैं। हमारे लॉकडाउन के कुछ दिनों में ही न्यूयार्क टाईम्स को इसमें कमजोरियां नज़र आने लगी थीं। यहाँ तक कहा गया कि “दुर्बल अर्थ व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी” । यह सही है कि बाक़ी देशों की तरह हमारी अर्थ व्यवस्था को बड़ा झटका लगेगा लेकिन हम ध्वस्त होने नही जा रहे और इसी ‘दुर्बल अर्थ व्यवस्था’ से आप दवाईयां मँगवा रहे हो। न्यूयार्क टाईम्स के अपने शहर न्यूयार्क में 10000 से अधिक मौतें हुई है। अस्पताल लबालब भरे हुए हैं। वहाँ तो लोगों को दफ़नाने के लिए जगह नही रही इसलिए सामूहिक क़ब्रों के लिए खाई में खुदाई चल रही है।
भारत से बुरी ख़बरों की कमी कुछ के लिए असुविधाजनक है पर थैंक यू, हम अपना घर सम्भालने में सक्षम है। अगर सलाह चाहिए तो बताइयेगा। ठीक है लॉकडाउन बिना कष्ट के नही रहा। विशेष तौर पर प्रवासी मज़दूरों की जो हालत हुई है वह बहुत कष्ट देती है। नौकरी रही नही, पैसे ख़त्म हो गए और वह कई सौ किलोमीटर दूर अपने गाँव के लिए निकल पड़े। रास्ते में उन्हें रोक दिया गया और अब वह कैम्पों में फँसे हुए हैं लेकिन 22000 कैम्पों में उन्हें भोजन दिया जा रहा है। यह बहुत बड़ी संख्या है पर उनकी जो हालत है उसका स्थाई समाधान ढूँढना पड़ेगा। समस्या एकदम खड़ी हो गई। सामूहिक पलायन के लिए सरकार बिलकुल बेतैयार थी लेकिन इस से सबक़ सीखते हुए भविष्य के लिए आपातकालीन कार्य योजना तैयार रखनी होगी ताकि प्रवासी जहाँ हैं वहाँ रहें पर उनका और उनके परिवार का समुचित ध्यान रखा जाए। यह सुझाव आया है कि जैसे ग्रामीण क्षेत्र के लिए मनरेगा है उसी तरह शहरी क्षेत्र के अव्यवस्थित श्रमिकों के लिए कोई सेफ़्टी बैंड तैयार किया जाए। भारत में लोग इधर से उधर आते जाते रहतें है। इस समस्या सेनिबटने के लिए विशेष कार्य दल का गठन होना चाहिए।
एक विवाद खड़ा हुआ है कि यूपी सरकार ने राजस्थान में कोटा से अपने विद्यार्थी बसों में वापिस मँगवा लिए हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इस पर घोर आपत्ति है कि लॉकडाउन का उल्लंघन हुआ है और दूसरा, प्रवासी मजदूरों के लिए बसें क्यों नही भेजी गईं। उनकी शिकायत अनुचित नही है लेकिन सवाल दूसरा है कि कब तक बिहार, यूपी, उड़ीसा आदि प्रदेशों से लोग देश भर में भटकते रहेंगे ? उनकी जो दयनीय हालत है इसके लिए उनकी प्रदेश सरकारें भी ज़िम्मेदार हैं जो आज़ादी के 70 वर्ष के बाद भी रोज़गार उपलब्ध नही करवा सकीं। नीतीश कुमार 15 साल से मुख्यमंत्री हैं। इन वर्षों में बिहार की हालत में परिवर्तन क्यों नही आया और करोड़ों बिहारी प्रदेश से बाहर रोज़गार के लिए भटक क्यों रहे है ? केरल ने चीनी वायरस पर नियंत्रण कर लिया है,उत्तर भारत के प्रदेश क्यों नही कर सके?
अर्थ व्यवस्था का पहिया चलाने के लिए सरकार सावधानी पूर्ण क़दम उठा रही है। कुछ क्षेत्र को खोला जा रहा है। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि लॉकडाउन का बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा और जीडीपी में चिन्ताजनक गिरावट आएगी जिसका आगे चल कर रोज़गार पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। प्रधानमंत्री मोदी के लिए यह धर्म संकट है। उन्हें ‘जान’ भी बचानी है ‘ज़हान’ भी। अगर एकदम लॉकडाउन खोल दिया तो बीमारी बेक़ाबू हो जाएगी और भारत जैसे देश में जहाँ जनसंख्या का इतना घनत्व हैतबाही मच जाएगी लेकिन अगर नही खोलते तो अर्थ व्यवस्था के मंदी में जाने की सम्भावना बन सकती है।
अभी तक प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह से इस विपदा से निबटें हैं वह सराहनीय हैं। उन्होंने अपनी सरकार को तैयार तो किया ही उन्होंने समाज को भी प्रेरित किया है। बार बार वह मुख्यमंत्रियों से परामर्श कर रहें हैं, विशेषज्ञों से सलाह माँग रहे हैं, उद्योगपतियों से बात कर रहे हैं। उन्होंने धार्मिक नेताओं से और यहाँ तक कि पहली बार मीडिया से भी सहयोग मांगां है। जनता के साथ बार बार संवाद कर उन्हें सावधान भी किया और उन्हें ज़िम्मेवारी का अहसास भी करवाया। वह जानते है हमारे लोग पाबन्दी आसानी से नही मानते निजी आज़ादी का ज़रूरत से अधिक शौक़ है। स्वास्थ्य कर्मियों पर हमले हो रहे है, जगह जगह जाहिलो कि तरह लोग अभी भी थूकते है, एक पुलिस वाले का हाथ कट चुका है,बहुत लोग सोशल-डिसटेंसिंग को मज़ाक़ समझते हैं। कई इसे साम्प्रदायिक रंगत दे रहें हैं। विशेष तौर पर जो वीआईपी जमात है,वह बाज़ नही आ रही जो कुमारस्वामी के बेटे की शादी से पता चलता है। इसलिए पीएम बार बार समझा रहें हैं। पिछले सम्बोधन में उन्होनें पांच बार हाथ जोड़ कर लोगों को समझाने की कोशिश की थी।
नरेन्द्र मोदी ने अपनी शैली बदल ली है और अपनी सरकार की छवि नरम कर रहें है। शायद इसीलिए अमित शाह अधिक नज़र नही आते। नरेन्द्र मोदी ख़ुद भी आक्रामक नही रहे और परिवार के मुखिया कि तरह बात कर रहें हैं पर वह जानते है कि अगर सख़्ती न होती तो तबाही मच जाती इसलिए चाहे वचन नरम है पर क़दम सख़्त है। वह यह भी जानते है कि अगर सख़्त क़दम न उठाए जाते तो सब से अधिक जानी नुक़सान ग़रीबों का होता। हमारी स्वास्थ्य सेवाएँ ऐसी नही कि लाखों करोड़ों मरीज़ों को सम्भाल सकें। वह यह प्रदर्शित कर चुके है कि कड़वे मगर जरूरी क़दम उठाने की उनमें क्षमता है। अब तो मार्क टली जैसे उनके आलोचक भी स्वीकार कर रहें हैं कि ‘उनके संवाद ने करोड़ों भारतवासियों को लॉकडाउन मानने के लिए तैयार किया’ और ‘इस वायरस को फैलने से रोकने का यह एकमात्र तरीक़ा है’।
लॉकडाउन से करोड़ों रोज़गार ख़तरे में हैं। अगर MSME अर्थात छोटे और मध्यम युनिट नही खुलते तो बेरोज़गारी बढ़ेगी और सरकार के राजस्व को भारी नुक़सान होगा। समाज को बेचैनी से बचाने के लिए भी अर्थ व्यवस्था को खोलना पड़ेगा और उसके परिणाम भुगतने पड़ेंगे। वायरस फिर फैल सकता है। नरेन्द्र मोदी के लिए यह धर्म संकट है। लॉकडाउन कब पूरी तरह से खोलना है ? क्या मौजूदा जाने बचानी है या भविष्य की चिन्ता करनी है? लेखक गुरुचरण दास ने महाभारत के प्रसंग से जवाब देने का असफल प्रयास किया है। धृतराष्ट्र को विदुर की सलाह थी कि एक गाँव को बचाने के लिए एक व्यक्ति की क़ुर्बांनी दे देनी चाहिए पर ख़ुद गुरुचरण दास इस दुविधा बारे स्पष्ट नही है। वह लिखते हैं, “अगर आप बीमारी से 100 जाने बचा लेते हो मगर बेरोज़गारी से 200 जाने गवाँ देते हो तो आप को वह चुनना चाहिए जहाँ कम नुक़सान हो। लेकिन जब मैंने ख़ुद से यह सवाल पूछा कि क्या मैं अपने बेटे को वायरस से मरने दूँगा तो मेरा निर्णय स्पष्ट था कि मैं भविष्य की जानो की जगह वर्तमान को बचाने की कोशिश करूँगा”।
यह नरेन्द्र मोदी का धर्म संकट भी है और अग्नि परीक्षा भी। वर्तमान और भविष्य के बीच संतुलन कैसे बनाना है? इस बीमारी से वह देश को अगर अपेक्षाकृत कम हानि से निकालने में सफल रहे तो नरेन्द्र मोदी की इतिहास में जगह जवाहरलाल नेहरू जिन्होंने आज़ादी के बाद देश को सम्भाला,या इंदिरा गांधी जिन्होंने बांग्लादेश बनवाया,के समानांतर पहुँच जाएगी। भावनात्मक मुद्दे अब पीछे पड़ गए हैं, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे मुददे भारत की दिशा तय करेंगे। नरेन्द्र मोदी किस तरह जान तथा ज़िन्दगी बचाने में सफल या असफल रहतें है ,यह प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी विरासत को परिभाषित करेंगा।
नरेन्द्र मोदी की अग्नि परीक्षा (Agni-Pariksha of Narendra Modi),