फ़िल्म ‘मौसम’ का संजीव कुमार और शर्मीला टैगोर पर फ़िल्माया गुलज़ार द्वारा लिखित ख़ूबसूरत गाना है, ‘दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन’। हर आदमी चाहता है कि उसके पास कुछ अतिरिक्त समय हो जिसका जैसे वह चाहे इस्तेमाल कर सके पर जब लॉकडाउन के कारण छप्पड़ फाड़ कर फ़ुर्सत के दिन ज़बरदस्ती मिले तो मानवता विचलित हो उठी। दोस्तियां दूरियों में बदल गईं। इंसान इंसान से ख़तरा महसूस करने लगा। जो अजनबी है वह चुनौती बन गया। दुकानें बंद,सड़के वीरान, पार्क सुनसान हो गए। कर्फ़्यू के कारण एक समय चारो तरफ़ सन्नाटा था।मरीज़ों के या मृतकों के आँकड़े ज़रा सा बढ़तें तो अखबारेंचिल्ला उठती,‘हड़कम्प मच गया’, ‘भूचाल आ गया’। कई टीवी चैनल अपनी जगह दहशत बढ़ाने में योगदान दे रहें हैं। सिंगापुर के मनोवैज्ञानिक सिमकांग ने लिखा है कि इंसान “अपनी दिनचर्या, सामान्य जीवन की धारणा, आज़ादी, एक दूसरे से सम्पर्क” को खो कर परेशान हो उठा है। कई बिलकुल रूखे हो गए। पंजाब के एक गाँव के घर के बाहर लिख कर लगाया गया है, ‘साडे घर न आया जी। फ़ोन ते ही गल कर लैना जी’।
सरकार के पास चारा कोई नही था पर ज़बरदस्ती घरों में बंद रहने की अलग कीमत है। समाज में अविश्वास है। बेचैनी बढ़ी है। लाखों का रोज़गार चला गया। कई भूखें हैं।बहुत उद्योगपति वेतन नही दे रहे। अनिद्रा, उदासी, निराशा, डर, भविष्य के प्रति व्याकुलता, सब बढ़ गए हैं। बड़ी मुसीबत यह है कि मालूम नही कि कब तक यह अलगाव सहना पड़ेगा? इस वक़्त तो नोट पकड़ते भी घबराहट होती है। गाँवों के चौपाल सुनसान है। मुहल्ले में ताश खेलने वाले जमा नही होते। धार्मिक समागम संक्रमण के बड़े अड्डे बन रहें हैं जैसे तबलीगी जमात के मामले से पता चलता है। मुसीबत के समय लोग सहारे के लिए धर्म स्थल भागते थे लेकिन अब तो किसी भी इकट्ठ में जाना मुसीबत को आमन्त्रित करने के बराबर है।
इंसान बदला है। ‘दूसरे’ का भय है। ज़िन्दगी की जो छोटी छोटी ख़ुशियाँ थीं,परिवार के साथ घूमना, सिनेमा जाना, बिना घबराहट के काम करना,बच्चों का बाहर खेलना,वह जो सब हमारे दैनिक जीवन का यकीनी हिस्सा था,वह ख़तरे में पड़ गया हैं। अनिश्चितता का माहौल है। इस चीनी वायरस ने जिस में हम विश्वास रखते थे,उसे सवालिया बना दिया है। अब तो आगे की सोच ही नही सकते। भविष्य की कोई पलैनिंग नही हो सकती। सरकार ने भी ‘सोशल डिसटेंसिंग’ पर ज़ोर दे कर सोसाइटी अर्थात समाज को ही ख़तरनाक बना दिया जबकि ज़रूरत ‘फिसिकल डिसटेंसिंग’ अर्थात शारीरिक दूरी बनाने की है।
यह वायरस बहुत कुछ समझा गया। आप का प्रभाव या पैसा कोई सुरक्षा कवच नही है। ब्रिटेन के प्रधान मंत्री बोरिस जॉनसन उन डाक्टरों का धन्यवाद करते नही थकते जिन्होंने उन्हें मरने से बचाया है। रूस के प्रधानमंत्री भी संक्रमित हैं। वह मिसाइलें, वह लड़ाकू विमान, वह बाडी गार्ड और बुलेट प्रूफ़ गाड़ियाँ सब फ़िज़ूल निकले।वायरस ने सब को बराबर बना दिया। ऊंच नीच, ग़रीब अमीर, हिन्दू मुस्लिम, भिन्न जात बिरादरी सब एक ही डोलती किश्ती में सवार हैं। सब को बराबर जान प्यारी है। समाज में जड़ता इतनी बढ़ गई है कि कई जगह तो करोना के मरीज़ के संस्कार पर घर वाले भी नही पहुँचते।
ब्राजील के भौतिक शास्त्री मारसीलो गलेसर ने लिखा है, “यह मानवता के इतिहास में मोड़ है…हमारे सामने एक दुष्मन है जो धर्म, जात,नसल,लिंग, या राजनीति को देख कर अपने शिकार नही चुनता। उसे सीमाओं या नक़्शे की चिन्ता नही। महत्व यह है कि हम सब उसके भावी मेज़बान हैं”। इसी से बड़ा धक्का लगा है कि कोई भी सुरक्षित नही है। हमें जिसे ‘न्यू नौरमल’ कहा जाता है, उसके लिए तैयार रहना है। ज़िन्दगी की चाल पुराने वाली नही रहेगी। जैसे आप काम करते थे, जैसे आप ख़रीददारी करते थे, जैसे आप यात्रा करते थे, जैसे आप पढ़ते-लिखते थे, मिलते जुलते थे, सब बदल जाएगा। ब्रैडेंड कपड़ों का नही साधारण कपड़े के मास्क का महत्व अधिक है। अब तो शमशान में भी सैनेटाइज़र नज़र आने लगे हैं! लोग देश के बाहर या अन्दर यात्रा करने से घबराएँगे। धर्मेन्द्र अपने फ़ार्म हाउस में सब्ज़ियों उगा रहें हैं, सुरजीत पातर ने लिखा है कि वह किचन में दलिया बनाना सीख रहे हैं,जूही चावला माली बनी हुई हैं, मलायका अरोड़ा लड्डू बना रही है। यह विशेषाधिकार सम्पन्न लोग है लेकिन आम आदमी के लिए ज़िन्दगी के आगे सवालिया निशान लगा है। गुलज़ार का भी अब कहना है, ‘मुद्दत से आरज़ू थी फुरसत की, मिली तो इस शर्त से कि किसी से न मिलो…ज़िन्दगी महँगी और दौलत सस्ती हो गई!’
वर्क-फ़्रॉम-होम शुरू हो रहा है। दफ़्तर आने की ज़रूरत नही घर पर बैठ लैप टॉप या कम्प्यूटर पर काम कर लो। अब तो पंडितजी का आशीर्वाद आनलाइन मिलता है और दक्षिणा भी आनलाइन जाती है! टासीएस ने अपने 90 प्रतिशत कर्मचारियों से कहा है कि वह घर बैठ कर काम करें। अधिकतर कम्पनियाँ कह रही है कि 33 या 40 प्रतिशत कर्मचारी ही किसी दिन काम पर आएँ। लेकिन ऐसा कितने दिन? लोग क्या घरों में बंद हो कर रह जाएँगे ? तैयार हो कर बाहर निकलने की ज़रूरत नही रहेगी? आपस में मिलने की ज़रूरत नही रहेगी? राजस्थान हाईकोर्ट की वीडियो द्वारा सुनवाई में एक वक़ील बनियान में पेश हो गया। समाजिक शिष्टाचार सब ख़त्म हो जाएगा? और क्या हर कोई घर में बिना ख़लल से काम कर सकता है? आख़िर बच्चों के शोर या प्रेशर कुकर की सीटी को रोका नही जा सकता। इस से और समस्या खड़ी हुई है। क्योंकि पति पत्नी दोनों घर में है इसलिए कई बार तनाव पैदा हो रहा है। हेल्प लाइन पर महिलाओं द्वारा घरेलू हिंसा की शिकायतें बढ़ रही है। एक एनजीओ के सर्वेक्षण के अनुसार बड़ी संख्या में बुज़ुर्ग भी शिकायत कर रहें हैं कि क्योंकि अब सारा वक़्त सभी परिवार सदस्य घर पर रहतें हैं इसलिए बच्चे और बच्चों के बच्चे उनके साथ पहले की तुलना बुरा व्यवहार कर रहें हैं।
अर्थात जिसे ‘पर्सनल स्पेस’ कहते है,उसके कम हो जाने के बाद नई पारिवारिक समस्याएँ पैदा हो रही है। बच्चों को आन लाइन पढ़ाया जारहा है। घर से क्लास लग रही है। यह तो अच्छी बात है कि विद्यार्थी को व्यस्त रखा जा रहा है लेकिन आन लाइन शिक्षा कभी भी स्कूल या टीचर का विकल्प नही हो सकती यह केवल अस्थाई प्रबन्ध ही हो सकता है। बच्चों को सारा वक़्त लैपटॉप पर नही छोड़ा जा सकता, इसके बहुत दुष्परिणाम निकलेंगे। वह जानकारी भी उनकी पकड़ में आजाएगी जो नही आनी चाहिए। इस स्थिति से पेरंटस चिन्तित हैं। बच्चों का बाहर निकलना, दोस्तों से मिलना, खेलकूदना, टीचर से पढ़ना, किसी हालत में बंद नही होनी चाहिए नही तो उनका विकास रूक जाएगा।
एक न एक दिन इस बीमारी का अंत हो जाएगा। साइंस इसे अजय नही छोड़ेगी लेकिन तब तक यह इंसान और समाज दोनों को बदल जाएगी। फ़ासला दवा बनता जा रहा है। यह भी समझ आ रही है कि बैंक में कितना भी पैसा हो या लाईफ़ स्टाइल कितना भी शानदार हो यह निश्चित नही कि आप बच जाओगे। आप तब ही बचोगे अगर आप दूरियाँ बना कर रहोगे। अब सेहत को प्राथमिकता दी जाएगी। सरकारें भी हैल्थ पर अधिक ख़र्च करेंगी।आज शालीन स्वास्थ्य मंत्री हर्ष वर्धन का उतना ही महत्व है जितना राजनाथ सिंह या अमित शाह या निर्मला सीतारमण का है क्योंकि विभाग जो महत्व रखता है वह उनके पास है। पहली बार डाक्टरों, स्वास्थ्य कर्मचारियों, सफ़ाई कर्मचारियों पर फूल बरसाए जा रहें है। उनकी वही पदवी और इज़्ज़त है जो देश में सैनिकों की है। इतिहास भी याद रखेगा कि यह वह युद्ध था जिसे डाक्टरों ने लड़ा सैनिकों ने नहीं। हथियार साबुन था बंदूक़ नही। घर और दफतर रणक्षेत्र थे पर दुष्मन अदृश्य था।
तालाबंदी सेकेवल पर्यावरण का फ़ायदा हुआ है नही तो यह हालात समाज को अनुदार और स्वार्थी बना जाऐंगे। ज़माना बदल जाएगा। मनुष्य अधिक आत्म केन्द्रित हो जाएगा। अब ‘आई फ़र्स्ट’ का ज़माना आ रहा है। सबसे पहले मैं। हर इंसान अपने अपने मानसिक और शारीरिक कैदखाने में बंद हो जाएगा। हम और मतलबी बन जाएँगे। दवा निकालने के धड़ाधड़ प्रयास हो रहें हैं पर यह जो झटका मिला है वह दुनिया को बहुत देर याद रहेगा। यह ज़िन्दगियां प्रभावित करता जाएगा। बशीर बद्र ने लिखा है,
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,
यह नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो !
जब दोस्तियाँ दूरियों में बदल गईं (When Distance Became Security),