जब चिट्टी बईं काली नहीं रही (Retain Benefits To Environment)

3 अप्रैल को जालन्धर निवासियों को एक अद्भुत और दिलकश नज़ारा देखने को मिला। अपने घरों की छत से उन्हें 160 किलोमीटर दूर हिमाचल प्रदेश की बर्फ़ से ढकी धौलाधार पर्वत श्रंखला के दर्शन हो रहे थे। उपर निर्मल नीला आकाश और दूर चमकता धौलाधार ! अपनी अच्छी क़िस्मत पर इंसान झूम उठा। ऐसा ही अनुभव श्रीनगर में हुआ जब लोगों को 190 किलोमीटर दूर पीर पंजाल शृंखला देखने को मिली। लॉकडाउन के बीच उत्तर भारत के कई शहरों से कई किलोमीटर दूर पहाड़ नज़र आने लगे। जैसे जैसे इंसान पीछे हटता गया क़ुदरत ने अपनी जगह वापिस हासिल करने का ज़बरदस्त प्रयास किया। कारख़ानों की चिमनियों से ज़हरीला धुआँ निकलना बंद हो गया। उन दिनों किसान पराली नही जला रहे थे। सड़कें सुनसान थीं और प्रदूषण फैलाने वाले वाहन घरों या अड्डों में खड़े थे।  एयर कंडीशनर ख़ामोश  थे। बाज़ार वीरान थे। नए अनजान वायरस से भयभीत लोग अपने घरों में दुबके बंद थें। वातावरण की गुणवत्ता में नाटकीय परिवर्तन आया और वह नज़ारे देखने को मिलने लगे जो दशकों से देखने को नही मिले थे। बचपन में हम छत से सप्त ऋषि देखा करते थे। धीरे धीरे ज़िन्दगी के मासूम मज़े लुप्त होते गए। रात के सितारे ग़ायब हो गए और दिन में प्रदूषण ने सितारे दिखा दिए !

पर लॉकडाउन के बाद फिर सितारे नज़र आने लगे। धरती को अपनी ऊर्जा  वापिस मिलनी शुरू हो गई। शहरों में पंछियों की चहक फिर सुनाई देने  लगी। नैनीताल से समाचार है कि प्रदूषण का स्तर गिरने से कुमाऊँ में भँवरे की गुंजन, जिस पर कभी बहुत गीत लिखे जाते थे, फिर सुनने को मिलने लगी। इंसान के लिए जो अनर्थकारी समय था वह जानवरों और पंछियों के लिए सुनहरी था। शिकागो और सैन फ़्रांसिस्को जैसे बड़े शहरों में जानवर खुले घूमते नज़र आए। आस्ट्रेलिया के एडिलेड शहर में कंगारू कूद रहे थे। तेल अवीव में सियार नज़र आए। चंडीगढ़ के कुछ घरों में चीता घुस गया। इंग्लैंड के वेल्स में बकरियाँ आराम से घूम रहीं थी। मोर खुले नाचने लगे थे। भारत से कोस्टारिका से फ़्लोरिडा तक समुद्री कछुए इत्मिनान से बसेरा बना रहे थे। जानवरों और पंछियों के लिए तो पार्टी टाइम था !

नदियों का पानी निर्मल होने लगा। हरिद्वार में गंगा आचमन लायक तो नही हुई पर नहाने लायक अवश्य हो गई थी। 60 दिनों में यमुना ने ख़ुद को साफ़ कर लिया। जो 25 साल और 5000 करोड़ रूपया नही कर सके वह लॉकडाउन ने कर दिया। पर पंजाब में सतलुज प्रदूषित रही। इतनी बुरा हालत है कि लुधियाना के कारख़ाने बंद होने के बावजूद सुधार नही हुआ पर ब्यास का पानी निर्मल हो गया। कई सालों के बाद इस में डॉल्फ़िन देखने को मिली। घड़ियाल भी नज़र आने लगे जो प्रदूषित पानी से दूर रहतें हैं। पंजाब में चिट्टी बईं जिसका नाम ही चिट्टा है पर जिसका पानी काला था, ने ख़ुद को साफ़ कर लिया। गाँववासी बतातें हैं कि पानी से बदबू आनी बंद हो गई और त्वचा की बीमारियाँ कम हो गईं। पर्यावरणवादी संत सीचेवाल का कहना हैं, “चिट्टी बईं में आया परिवर्तन बताता है पानी निर्मल हो रहा है क्योंकि उद्योग की गंदगी इस में नहीं पड़ रही…हमारे लिए कैंसर इस वायरस से अधिक जानलेवा है”।

इससे क्या सिद्ध होता है? कि प्रकृति  ख़ुद सही है अपनी समस्या इंसान ने ख़ुद खड़ी की है। और क़ुदरत में ख़ुद की मुरम्मत करने की पूरी क्षमता है। पर सवाल तो यह है कि क्या इंसान इस की इजाज़त भी देगा? बशीर बद्र ने लिखा है

अगर फ़ुरसत मिले पानी की तहरीरों को पढ़ लेना

हर इक दरिया हज़ारों साल का अफ़साना लिखता हैं

लेकिन सफ़ेद बदबूदार झाग से लबालब यमुना जैसे दरिया को तो हमने अफ़साना लिखने लायक ही नही छोड़ा।

जिस समय चीनी वायरस की मार चरम सीमा पर थी दुनिया में कार्बन उत्सर्जन में 17 फ़ीसदी की कमी आई थी। वायरस से जितने लोग मारे गए उस से कहीं अधिक हर वर्ष प्रदूषण से मारे जाते हैं। यह वायरस एक प्रकार का ‘ब्लैसिंग इन डिसगाइज़’ अर्थात छिपा हुआ वरदान भी है। जिन्हें श्वास की बीमारी है उन्हें लॉकडाउन से राहत मिली है। सैटेलाइट बता रहे थे कि प्रमुख शहरों पर जो ज़हरीली गैस मँडराती रहती है उसमें 30 फ़ीसदी की कमी आई थी। नासा के अनुसार लॉकडाउन में प्रदूषण 20 वर्ष पुरानी स्थिति में पहुँच गया था।

दुनिया के सबसे प्रदूषित 15 शहरों में से 14 भारत में हैं। राजधानी दिल्ली में हालात आपातकालीन रहते हैं। बुज़ुर्ग, बच्चों, अस्थमा मरीज़ों के लिए प्रदूषण बहुत तकलीफ़देह है। भारत में प्रदूषण के पाँच प्रमुख स्रोत हैं, उद्योग, निर्माण, वाहन, पराली और उड़ती धूल। उत्तर भारत में केवल उड़ती धूल को रोका नहीं जा सकता पर बाक़ी सब पर कुछ नियंत्रण ज़रूरी है ताकि लोगों का जीवन बेहतर हो सके। यह काम आसान नही क्योंकि विकास और पर्यावरण में सीधा टकराव है और न ही वह राजनीतिक इच्छा शक्ति ही है जो दोनों के बीच  संतुलन क़ायम कर सके। दिल्ली सरकार कभी कभार दिखावे के लिए वाहनों, निर्माण तथा उद्योग पर पाबन्दी लगा देती है पर फिर वही ढाक के तीन पात।  भारत की उन्नति में जो बाधाएँ हैं उनमें एक यह भी बड़ी है कि हमारी राजधानी दिल्ली इतनी प्रदूषित है कि रहने लायक नही है।

देश फिर खुल रहा है इसलिए पर्यावरण की चिन्ता स्वभाविक है। अमेरिका के डयूक विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर स्टुअर्ट पिम्म का लिखना है, “ इस मौक़े ने हमें असाधारण अंतर्दृष्टि दी है कि हम इंसान अपने ख़ूबसूरत ग्रह की कितनी तबाही कर चुकें हैं”।  अगर अम्फान जैसे तूफ़ान बार बार आ रहें है तो यह इंसान द्वारा पैदा ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण है जो समुद्र की सतह को असाधारण गरम रखती है। कई शोधकर्ता हवा में प्रदूषक तत्वों में भारी गिरावट देख रहें हैं जो हर साल 70 लाख मौतों का कारण है। लॉकडाउन के दौरान जीवन में आई बेहतरी से यह झलक मिल गई कि अगर हम इतने लालची न हों तो हमारी इतनी दुर्गति भी न हो। साफ़ हवा का मतलब बेहतर सेहत है जो कोविड जैसे वायरस से बेहतर लड़ सकती है। हमें यह भी झलक मिल गई कि अगर हम ऐसे वाहनों का प्रयोग शुरू कर दें जो प्रदूषण नही या कम फैलाते हों तो हमारा जीवन कितना बेहतर हो सकता है। अब साफ़ ईंधन या बिजली से चलने वाले वाहनों पर ज़ोर देना होगा।

जब इंसान घर बैठ गया तो क़ुदरत अधिक मस्त हो गई। लेकिन अब फिर सब शुरू हो रहा है। संक्रमित की संख्या चिन्ताजनक ढंग से बढ़ रही है पर लोगों को घरों में असीमित समय के लिए रोका भी नही जासकता। पंजाब में पराली जलाने के रिकार्ड टूट रहें हैं। पंजाब सरकार संक्रमण को अच्छी तरह रोकने में सफल हुई है पर क्योंकि सारा ध्यान इधर है इसलिए पराली जलाने को रोकने की तरफ़ नही गया। इससे सारे उत्तर भारत में प्रदूषण बढ़ेगा। दुख की बात है कि हमारे लोग भी बात नही सुनते। अपने पर कोई नियंत्रण नही है।नागरिक धर्म निभाना नही आता हमें। यह चीन नही है इसलिए डंडे का अधिक इस्तेमाल भी नही हो सकता।

लेकिन रुक कर सोचने का समय है। मिसाल के तौर पर  कक्षाओं में एसी किसका भला करतें हैं? बच्चों को नरम बनाने से उनकी  शारीरिक क्षमता कम होगी। ज़रूरत है कि इंसान की विकास की  ज़रूरत और पर्यावरण  के बीच सही संतुलन बैठाया जाए। हमें प्रकृति के साथ सद्भावना से रहना है। हम वन काटते जा रहें हैं जबकि जलवायु को सही रखने के लिए अधिक हरियाली चाहिए। हमारी हरी छत अपर्याप्त है। यह मात्र 4.9 प्रतिशत है जबकि लगभग 17 प्रतिशत चाहिए। अब जबकि लॉकडाउन हट रहा है घबराहट है कि पर्यावरण के अच्छे दिन भी साथ ही ख़त्म न हो जाएँ। चिट्टी बईं फिर काली न हो जाए। ब्यास से डॉल्फ़िन और घडियाल फिर लुप्त न हो जाएँ। भँवरे की गुंजन और चिड़ियों की चहक कम न पड़ जाऐ। क़ुदरत ने  अपना कुछ शबाब फिर से क़ायम कर लिया था पर अब फिर खोने की सम्भावना बन रही है। समाजिक चेतना की बहुत ज़रूरत है क्योंकि इंसान टकराव करता है पर जैसे प्रसिद्ध लेखक थॉमस फ़्रीडमैन ने लिखा है, “प्रकृति हिसाब नही रखती…पिछले 450 करोड़ सालों में प्रकृति एक बार भी नही हारी”।

क्या इलाज यह है कि हर वर्ष कुछ देर  पूर्व घोषित संक्षिप्त लॉकडाउन लगाया जाए ताकि प्रकृति को ख़ुद को सँवारने का समय मिल जाए। जो ज़ख़्म हमने लगायें है वह भर सकें। उसकी नाराज़गी कुछ कम हो जाए।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.