बाक़ी चार साल (Remaining Four Fours)

हमारी पीढ़ी ने बहुत कुछ देखा है। विभाजन की त्रासदी का असर हम पर पड़ा  था। गांधीजी की हत्या, 1962 की लड़ाई, एमरजैंसी, पाकिस्तान का दो फाड़ होना, इंदिरा गांधी की हत्या, दंगे सब के बीच में से हम गुज़र कर हटें हैं। हम करोड़ों लोगों को ग़रीबी से निकालने में सफल रहे। कहा जाने लगा कि चीन के साथ भारत विश्व की भावी दिशा तय करेगा। दशकों के बाद नरेन्द्र मोदी की सरकार आई जिसे पूर्ण बहुमत प्राप्त था। अर्थ व्यवस्था में कुछ गिरावट के बावजूद आशा थी कि भारत अपनी चुनौतियों पर विजय पा लेगा। जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा दिया गया। तीन तलाक़ की वाहियात प्रथा ख़त्म कर दी गई। अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ़ हो गया। नरेन्द्र मोदी की सरकार का दूसरा कार्यकाल चल रहा था कि चीन से उत्पन्न वायरस ने हमारे समेत दुनिया को डँस लिया। सारे हिसाब किताब अस्त व्यस्त हो गए। हमारी बहुत सी कामयाबी दो महीने में धो दी गई। अब भारत एक बार फिर नए हालात का सामना कर रहा है जो हमें कहाँ पहुँचाएगा कहा नही जा सकता। केवल यह कहा जासकता है,

 कभी अर्श पर कभी फ़र्श पर कभी उनके दर कभी दर बदर

 ग़म-ए-इश्क़ी तेरा शुक्रिया, हम किधर किधर से गुज़र गए

चाहे प्रधानमंत्री मोदी देश का आत्म विश्वास बढ़ाने का प्रयास कर रहें हैं पर इस वक़्त तो इस कमबख़्त चीनी वायरस ने हमें फ़र्श पर ला पटका है। लॉकडाउन सही समय पर किया गया जिससे हज़ारों जाने बचाईं गईं लेकिन इतने लम्बे लॉकडाउन के  विशेष तौर पर प्रवासी मज़दूरों,अव्यवस्थित सेक्टर और छोटे और मध्यम उद्योग पर दुष्परिणामों का सही आंकलन नही किया गया। सरकार के लिए यह भी यह पहला अनुभव था इसलिए बेतैयार थी लेकिन सरकारें बनी भी तो इसलिए हैं कि वह किसी भी चुनौती के लिए तैयार रहें। नाटकीय निर्णय लेने की प्रधानमंत्री की प्रवृत्ति से आम आदमी को बहुत कष्ट हुआ है। अगर कुछ दिन का समय दिया जाता तो प्रवासी ख़ुद घर लौट जाते। उलटा उन्हें उन जगहों बंद रखा गया जो वायरस के हॉट स्पॉट हैं। परिणाम है कि अब जब वह गाँवों को लौट रहें हैं कुछ के साथ वायरस भी सफ़र कर रहा है।

भारतीय मूल के ब्रिटिश लार्ड और लेखक मेघनाद देसाई ने लिखा है कि राजनीतिक व्यवस्था ने प्रवासी मज़दूरों के साथ “कभी न भूलने वाला अमानवीय व्यवहार किया है”। देश पर माइग्रेशन पर किताब लिखने वाले प्रो चिन्मय तुंबे ने लिखा है “दूसरे देशों में सिर्फ़ करोना चल रहा था…हमारे देश में कोरोना और माइग्रेशन दोनों चल रहे थे”। चीन के शहर वुहान जहाँ से वायरस फैला है,की लेखिका फैंग फैंग जो कुछ समय के लिए लापता हो गईं थी की डायरी किताब की शक्ल में प्रकाशित हुई है। उसमें वह लिखती हैं, “एक ही सही कसौटी है कि आप अपने सबसे कमज़ोर तथा असुरक्षित वर्ग के साथ कैसे बर्ताव करते हो”। इस कसौटी पर हमारा समाज और सरकार दोनों बुरी तरह फ़ेल हुए हैं। कुछ लोगों ने निराश्रय की मदद की है लेकिन बड़ी संख्या में तो लोगों ने इन्हें पूरा वेतन नही दिया और घरों से निकाल दिया। एक मित्र ने बताया कि उनके घर एक लड़का काम करता था जो उन्हें छोड़ गया था का अब फ़ोन आया है,वह 2000 रूपए मासिक पर काम करने को तैयार है। केवल 2000 रूपए मासिक! कितनी मजबूरी है लेकिन उसे तो ऐसी जगह चाहिए जहाँ वह भूखा न रहे और  छत मिल जाए। इस सारे अंधकारमय परिदृश्य में एक व्यक्ति अवश्य चमका है। सोनू सूद। इस युवा पंजाबी ने अपनी संवेदना, अपने जोश और पहलकदमी से बता दिया कि मानवता अभी भी ज़िन्दा है। जिस हताश देश में नायक की बहुत कमी है,सोनू सूद  हीरों बन कर उभरें है।

प्रो तुंबे की बात सही है। देश में यह माइग्रेशन उतना ही कष्ट देगा जितना वायरस ने दिया है क्योंकि जो लौटें हैं वह बेरोज़गार है और गाँवों में मनरेगा के अतिरिक्त काम नही हैं। उद्योग सही नही चल रहे क्योंकि अभी माँग नही है इसलिए तेज़ी से छटनी हो रही है जो आगे चल कर भयंकर त्रासदी का रूप ले सकती है। थाली बजाने की उत्सुकता में हमने उनका ध्यान नही रखा जिनकी थाली में अन्न नही रहा। देर से ट्रेनें चलाईं गईं और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की तल्ख़ टिप्पणी है कि, ‘रेल विभाग का प्रवासियों के प्रति व्यवहार बर्बर रहा है’। 80 मज़दूर ट्रेनों में मृत पाए गए। एक ट्रेन 16 मई को सूरत से शुरू हो कर बिहार में सीवन में 25 मई को पहुँची। भटकी ट्रेनों के ऐसे और भी उदाहरण है। इन में बैठे भूखे प्यासे यात्रियों का क्या हाल हुआ होगा इसका अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी पहले मामले को गम्भीरता से नही लिया। मज़दूरों की त्रासदी पर देश की सबसे बड़ी अदालत की टिप्पणी थी कि ‘मज़दूर पटरियों पर सो जाएँ तो उन्हें कैसे रोका जाए’और ‘बड़ी संख्या में चल रहे मज़दूरों की निगरानी नहीं की जी सकती’। अब अवश्य सुप्रीम कोर्ट ने मामले का स्वयत संज्ञान लेते हुए सरकारी इंतज़ाम को नाकाफ़ी बताया है और उचित आदेश दिए हैं पर अगर बड़ी अदालत यही सक्रियता पहले दिखाती तो शायद तस्वीर और होती।

इस बीच नरेन्द्र मोदी की दूसरी सरकार एक वर्ष पूरा कर गई है। एक बयान में भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा का कहना है कि, “सीएए जिसके द्वारा अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के धार्मिक पीड़ित भारत में पनाह ले सकते हैं” सरकार की बड़ी कामयाबी है। नड्डा जी किस दुनिया में रह रहें हैं? वह बाहर वालों की बात कर रहें हैं जबकि पहले अपने करोड़ों उन  लोगों को बचाना है जो अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहें है। देश की नज़रें बाहर नही अन्दर लगी हुईं हैं। प्रभाव यह मिलता है कि लोगों की पीड़ा की गहराई और चौड़ाई समझने में इस सरकार को देर लगी है।एक सर्वेक्षण के  अनुसार तीन में से एक छोटी बिसनस बंद होने के कगार पर है। 50 खरब डालर की अर्थ व्यवस्था का सपना फ़िलहाल छोड़ देना चाहिए।  हम विश्व गुरू भी नही बनने वाले जैसी ग़लतफ़हमी कुछ लोगों को यहाँ रहती है। हमारा यथार्थ हमारे सामने और दुनिया के सामने पैदल चलता नंगा हो गया।

रवि शंकर प्रसाद का कहना हैं कि राहुल गांधी वायरस के ख़िलाफ़ लड़ाई को कमज़ोर कर रहें हैं। उनकी शिकायत हैरान करने वाली है। इतनी बड़ी भारत सरकार और एक राहुल गांधी जिन्हें देश गम्भीरता से नही लेता, उनकी लड़ाई को कमज़ोर कर रहें हैं? कमज़ोर तो हिमाचल भाजपा के कुछ नेता जैसे लोग  कर रहें है जिनके द्वारा कोरोना से सम्बन्धित ख़रीददारी में रिश्वत लेने का औडियो बाहर आ गया है जिसके बाद प्रदेश भाजपा अध्यक्ष को ही इस्तीफ़ा देना पड़ा। राहुल गांधी से अधिक चुस्त तो उनकी माता और बहन हैं जिन्होंने पहले ट्रेनों का ख़र्चा उठाने और फिर प्रवासियों के लिए बसे चलाने की पेशकश कर केन्द्र और उत्तर प्रदेश सरकार को रक्षात्मक कर दिया। भाजपा का सौभाग्य है कि देश में कोई भी पार्टी नही जो उनका मुक़ाबला कर सके। भाजपा को चुनौती प्रादेशिक पार्टियों से आएगी जहॉं कई मुख्य मंत्री लगातार ताकतवार हो रहें हैं।

इस सारे संकट के बीच नरेन्द्र मोदी खड़े हैं। वह अपनी पार्टी के निर्विवाद नेता हैं। देश में भी लोकप्रियता में कोई उनकी बराबरी नही कर सकता। उन्होंने जाने बचाईं हैं।  पर उन्हें भी अहसास होगा कि उनके और उनकी सरकार के कई आंकलन सही नही निकले। जिस टीम पर वह भरोसा करतें हैं उस का तो कहना था कि वायरस 16 मई के बाद नही रहेगा। 30 मार्च को सौलिसिटर जनरल ने कहा था कि कोई प्रवासी सड़क पर नही चल रहा।  अब प्रधानमंत्री भी संक्रमण को पराजित करने की बात नही कह रहे। अब उनका कहना है कि यह हमारी ज़िन्दगी में बहुत देर तक रहेगा।अधिकतर निर्णय भी प्रदेश सरकारों पर छोड़ दिए हैं। चीनी वायरस ने देश को बदल दिया है। NCR-NPR-CAA कोई मुद्दे नही रहे। भूख, बीमारी, रोज़गार ,सुरक्षा, स्वास्थ्य अब असली मुद्दे हैं और सरकार इनहे कैसे सम्भालती है उस को लेकर उसे परखा जाएगा। नई चुनौती चीन से है जो सीमा पर लगातार दबाव बना रहाहै। न केवल चीन बल्कि छुटभैया नेपाल भी आँखें दिखा रहा है। हिम्मत कहाँ से मिल रही है यह स्पष्ट है।

आगे चल कर भारत की कहानी किधर मुड़ती है कहा नही जा सकता पर प्रधानमंत्री मोदी के सामने वह चुनौती है जो विभाजन के समय प्रधानमंत्री नेहरू के सामने थी। उन्हें एक हैरान और परेशान देश को सम्भालना है। उनकी दूसरा अवधि इस महामारी तथा उसके दुष्परिणामों  को सम्भालने में निकल जाएगी। अभी तक उन्होंने निर्णय लेने कि क्षमता दिखाई है पर अब आर्थिक तथा मानवीय तबाही का सामना करना पड़ सकता है। बाक़ी चार वर्षों में उनकी सरकार इन मामलों से कैसे निबटती है वह देश की रफ़्तार, उसकी अर्थ व्यवस्था,उसकी राजनीति, उसके दैनिक जीवन के साथ साथ ख़ुद  नरेन्द्र मोदी की विरासत तथा इतिहास में उनकी जगह तय करेगी।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.