क्या चीन का बहिष्कार हो सकता है? (Should We Boycott China?)

भारत ने चीन के साथ अगर दोस्ताना नही तो सामान्य रिश्ते रखने का भरसक प्रयास किया है लेकिन  इस मामले में एक और भारतीय प्रधानमंत्री फ़ेल हो रहें हैं। जवाहरलाल नेहरू से ले कर नरेन्द्र मोदी तक हर भारतीय प्रधानमंत्री से चीन ने दगा किया है। नरेन्द्र मोदी ने शी जिनपिंग को अहमदाबाद में साबरमती के किनारे झूला झुलाया,फिर वुहान और महाबलीपुरम में दोनों में अच्छी बातचीत हुई। हम चीन द्वारा फैलाए वायरस के मामले में ख़ामोश रहे। तायवान, हांगकांग, डब्ल्यू एच ओ सब पर हम मौनी बाबा बने रहे। पर न यह और न ही झूला या कथित वुहान स्पिरिट ही चीन को बदमाशी से रोक सकी। अनुमान है कि लद्दाख में पैंगांग झील के साथ लगते हमारे इलाक़े जहाँ हमारी सेना गश्त करती थी, चीन ने 60 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया है। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने भी स्वीकार किया है कि ‘अच्छी खासी संख्या में’ चीनी सैनिक हमारे क्षेत्र में घुस आऐ हैं।

यह भी चिन्ता की बात है कि कारगिल की ही तरह एक बार फिर हम विरोधी की घुसपैठ के प्रति बेख़बर थे। चीन की घुसपैठ अचानक एक दिन में नही हुई। अप्रैल 19 को असामान्य गतिविधियाँ देखी गईं पर यह मई 17 को समझ आई की क्या हुआ है। सैनिक विशेषज्ञों के अनुसारचीन उस क्षेत्र में 5000 सैनिक,टैंक और तोपख़ाना ले आया है। भारत ने भी अपनी सुरक्षा बढ़ा दी है। बोफ़ोर्स तोपें भेजी गईं हैं लेकिन तनाव है और लै. जनरल स्तर की वार्ता सफल नही रही।चीन हमारे इलाक़े में मुँह मारता रहेगा। नॉर्दर्न आर्मी के पूर्व कमांडर लै.जनरल बी एस जसवाल (रिटायर्ड) के अनुसार, “वह आसानी से पीछे नही हटेंगे”। चीन में हमारे पूर्व राजदूत अशोक कांथा के अनुसार चीन की कार्रवाई ‘असाधारण तौर पर आक्रामक’ और ‘गम्भीर मामला है’।

इसी विश्वासघात से परेशान भारत में यह ऊँची आवाज़ सुनने को मिल रही है की चीन के माल का बहिष्कार किया जाए। लद्दाख के प्रमुख नागरिक सोनम वांगचुक जिन पर फ़िल्म ‘थ्री इडियट्स’ बनी थी जो चीन में भी बहुत लोकप्रिय थी,ने वीडियो जारी कर कहा है कि हमें चीनी माल का बहिष्कार करना चाहिए क्योंकि “हम चीनी सामान ख़रीद कर उनकी सेना तक पैसा पहुँचा रहें हैं”। उनकी बात को बहुत लोगों ने पकड़ा है। बाबा रामदेव से लेकर मनोहर लाल खट्टर सब अब चीनी चीज़ों के बहिष्कार की बात कह रहें हैं। लेकिन वस्तु स्थिति क्या है? क्या हम चीनी माल का बहिष्कार कर भी सकते हैं? हक़ीक़त यह है कि  चीन को प्रसन्न और शांत रखने के लिए हमने ही उपर ‘स्वागत’ लिख अपनी अर्थ व्यवस्था के दरवाज़े उनके लिए खोल दिए हैं। व्यापार का संतुलन बुरी तरह से उनकी तरफ़ झुका हुआ है। जितना हम निर्यात करतें है उससे चार गुना आयात करतें हैं। एकदम यह रोका नही जा सकता।

अब ‘आत्म निर्भर भारत’ का नया नारा दिया जा रहा है लेकिन आत्मनिर्भरता की क़ुरबानी तो हमख़ुद  करते रहें है। हमने ही चीन को अपने बाज़ार पर क़ब्ज़ा करने दिया। मूर्तियों और राखी तक तो वहाँ से आती हैं क्योंकि सस्ती हैं।स्मार्ट फ़ोन के बाज़ार पर चीन का 72 %, टैलिकॉम पर 25%, टी वी पर 50%, इंटरनेट पर 62 %, सोलर एनर्जी पर 90 %  चीन का क़ब्ज़ा है। 800 चीनी कम्पनियॉ यहां काम करती हैं।  समय आ गया है कि ग़ैर ज़रूरी आयात को बंद किया जाए और चीन पर अनावश्यक निर्भरता ख़त्म की जाए। उनके वह कारख़ाने बंद हो जो हमारी ख़रीद पर निर्भर है और वहाँ बेरोज़गारी बढ़ाई जाए। अब खुले चीनी निवेश पर पाबन्दी लगा दी गई है जो वर्तमान चीनी उत्तेजना का एक कारण भी हो सकती है।

बड़ा सवाल यह है कि उस वक़्त चीन ने यह शरारत क्यों की जब वह ख़ुद वायरस से जूझ रहा है और दुनिया में अलग थलग पड़ गया है? चीन को समझना कभी भी आसान नही। चीनी वायरस के दुष्परिणामों, आर्थिक अस्थिरता और अमेरिका के दबाव से चीन का नेतृत्व  असुरक्षित महसूस कर रहा है। कहीं यह भी घबराहट है कि सोवियत यूनियन वाला हाल न हो और कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभुत्व ख़त्म  हो जाए। इसीलिए अपने लोगों का ध्यान हटाने के लिए पड़ोसियों से तनाव खड़ा किया जा रहा है। भारत को संदेश भेजा जा रहा है कि वह अमेरिका के पाले में जाने और चीन विरोधियों की गुट में शामिल होने से बचे नही तो परिणाम भुगतने पड़ेंगे। चीन के प्रसिद्ध रणनीतिज्ञ सुन ज़ू ने कहा था कि जिस घर में आग लगी हो उसे लूट लेना चाहिए। अर्थात जो कमज़ोर हो उसे दबा लेना चाहिए।  क्योंकि हमारी अर्थ व्यवस्था अच्छी सेहत में नही है और हम चीनी वायरस और उसके दुष्परिणामों को सम्भालने में लगे हैं इसलिए चीन समझता है कि बांह मरोड़ने का यह सही समय है। यह भी कड़वा सत्य है कि दोनों देशों में भारी असंतुलन है वह हमसे बहुत अधिक ताकतवार है। यही कारण है कि हम चीन के प्रति वह आक्रामकता नही दिखा रहे जो हमारा नेतृत्व अकसर पाकिस्तान के प्रति दिखाता रहता है।  चाहे दोनों देशों के जनरल के बीच वार्ता को हमारे विदेश विभाग ने ‘सौहार्दपूर्ण और सकारात्मक माहौल में’ बताया है पर चीन सीमा पर अप्रैल वाली स्थिति में लौटने को तैयार नहीं।उल्लेखनीय है कि चाहे भारत की प्रतिक्रिया सकारात्मक रही है चीन का ठंडा बयान है कि सीमा पर स्थिति ‘स्थिर और नियंत्रणीय’ है।  भारत सरकार यहाँ फँसी हुई है। अगर बीजिंग को ख़ुश करने के लिए दिल्ली अनुचित रियायत देती नज़र आई तो उसे देश के अन्दर तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ेगा और हमारी अंतराष्ट्रीय प्रतिष्ठा में भारी गिरावट आएगी लेकिन चीन को वहाँ से हटाना भी आसान नही होगा।

चीन के सरकारी अख़बार ‘ग्लोबल टाईम्स’ ने भारत -चीन युद्ध की धमकी देते हुए यह सलाह भी दी है कि भारत को ‘अमरीकी चश्मा’ उतार कर चीन की तरफ़ देखना चाहिए। यह भी उल्लेखनीय है कि शी जिंनपिंग ने अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा है। सीमा पर नए मोर्चे खोले जा रहें हैं और बड़ी संख्या में सेना भेजी जा रही है और मनोवैज्ञानिक दबाव डालने के लिए इसका प्रचार भी किया जा रहा है। चीन इस क्षेत्र में भारत की बढ़ती तैयारी को पसन्द नही करता क्योंकि उसका प्रभुत्व कम होता है। उसे विशेष तौर पर 255 किलोमीटर  लम्बी डारमुक-शियोक-दौलत बेग ओलडी सड़क पर आपत्ति है क्योंकि इससे भारत का सामरिक वज़न बढ़ता है। भारत ने कई बंद पड़ी हवाई पट्टी सक्रिय कर दीं हैं। अब चीन का मुक़ाबला करने के लिए उस क्षेत्र में भारत ने फ़ाईटर जहाज़, तोपख़ाना, मिसाइल, नए अमरीकी हैलिकॉप्टर सब तैनात किए  हैं। पिछले कुछ वर्षों से भारत वहाँ लगातार  अपना इंफ़्रास्ट्रक्चर बेहतर कर रहा है। यह सब चुभ रहा है।

पर यह 1962 का भारत नही है। 1967 मे भी नत्थू ला के इलाक़े में मुक़ाबले में हमने चीन की ग़लतफ़हमी दूर कर दी थी चाहे। 1987 में सोमडूरूंग में घुसपैंठ करने वाली चीनी सेना को पीछे हटना पड़ा था।  पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के जनरलों ने कारगिल युद्ध का भी अध्ययन किया होगा की बड़ी क़ुरबानी दे कर भी हमने अपना इलाक़ा वापिस लिया था। वह यह भी जानते हैं कि भारतीय क्षेत्र पर अधिक देर क़ब्ज़ा नही किया जा सकता इसलिए इस वक़्त भारत के नेतृत्व को संदेश भेजा जा रहा है कि कोविड के बाद की दुनिया में भारत अमेरिका के नेतृत्व वाले किसी गठबंधन में शामिल न हो जो चीन विरोधी हो जबकिहमारे लिए कठनाई है कि रूस अब तटस्थ है और डानल्ड ट्रंप पर भरोसा नही किया जा सकता। चीन को भारत से कई और मामलों में भी तकलीफ़ है। यह भी तकलीफ़ है कि हम उन कम्पनियॉ को बुला रहें हैं जो चीन छोड़ना चाहती हैं। वह भारत को किसी भी मामले में विकल्प उभरता बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। हॉर्वर्ड बिसनस रिव्यू के अनुसार, “चीन के प्रति आकर्षण कम हो रहा है तो सवाल यह उठता है कि उसकी जगह कौन से सकता है? अभी इसका जो जवाब सामने आ रहा है वह है भारत…भारत के पास सप्लाई चेन में आए ख़ालीपन को भरने की सबसे अधिक क्षमता है”। हमें जो चुनौती मिल रही है उसका यह मुख्य कारण है।

समय आ गया की चीन की शरारत का समुचित जवाब दिया जाए। पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल वी पी मलिक का कहना है, “हम कब तक दादागिरी बर्दाश्त करतें रहेंगे” ? उनके कहना है कि “ पहले हमारे पास इंफ़्रास्ट्रक्चर नही था जो अब है”। यह भी याद रखना चाहिए की जार्ज फ़र्नांडीस ने चीन को दुष्मन नम्बर 1 कहा था। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने परमाणु विस्फोट को न्यायोचित ठहराने के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति बिल कलिंटन को जो पत्र लिखा था उसमें चीन की तरफ़ इशारा था। अब फिर दोनों देशों के रिश्ते टकराव पर हैं। भारत सरकार को दबाव में क़तई अपनी विदेश नीति या सामरिक नीति या आर्थिक नीति में परिवर्तन नहीं करना चाहिए। जिस तरह चीन अंतराष्ट्रीय मंच पर जवाहरलाल नेहरू को बर्दाश्त नही कर सका उसी तरह नरेन्द्र मोदी की अंतराष्ट्रीय पहुँच को पचा नही रहा और उसी तरह चुनौती दे रहा है। जहाँ  तक बहिष्कार का सवाल है, एक दम यह नही हो सकता लेकिन हम नागरिकों को चीन पर अपनी निर्भरता लगातार कम करनी है। सोनम वांगचुक ने एक वर्ष  समय कहा है जो सही टाइमटेबल हो सकता है। सरकार क्या करती है यह देखना बाक़ी है। देश और दुनिया की नज़रें नरेन्द्र मोदी की सरकार पर हैं।

 

 

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.