पंजाब में फिर शरारत (Mischief in Punjab, Again)

आपरेशन ब्लूस्टार की बरसी कष्टदायक अनुभव है क्योंकि पुरानी अप्रिय यादें ताज़ा हो जाती हैं लेकिन कहीं यह अहसास भी है कि इस दुखांत के लिए एक कोई पक्ष दोषी नही है। पर अफ़सोस की बात है कि इस 36 वर्ष पुरानी घटना को लेकर कुछ लोग फिर शरारत कर रहें हैं ताकि पंजाब का माहौल तनावग्रस्त रहे। यह भी बड़े अफ़सोस की बात है कि इस बार ऐसा करने वाले अकाल तख़्त के कार्यकारी जत्थेदार ज्ञानी हर प्रीत सिंह तथा शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के अध्यक्ष गोबिन्द सिंह लांगोवाल हैं। ग़ज़ब की ग़ैर ज़िम्मेवारी और मैं तो कहूँगा देश विरोध का प्रदर्शन करते हुए इन दोनों ने एक पत्रकार सम्मेलनमें न केवल कथित खालिस्तान का समर्थन किया बल्कि यह भी कह दिया कि, “अगर भारत सरकार सिखों को खालिस्तान देती है तो वह ले लेंगें”। साथ यह भी कहा कि “दुनिया का हर सिख यह चाहता है”। हर प्रीत सिंह का पंजाबी में कहना था, “अन्ना की भाले? दो अखां”। अर्थात अंधे को क्या चाहिए? दो आँखें।

सौभाग्यवश पंजाब में ऐसे अंधों की तादाद नही के बराबर है। खालिस्तान यहाँ कोई मुद्दा नही, कोई माँग नहीं। जो खालिस्तान के नाम पर चुनाव लड़ते है उनकी ज़मानतें ज़ब्त होतीं हैं। फिर इस शांत पानी में पत्थर फेंक तूफ़ान खड़ा करने का प्रयास क्यों किया?

आतंकवाद के दौर में पंजाब ने बहुत संताप सहा है।1980-1992 पंजाब और देश के लिए काला इतिहास रहेगा। कोई इसे दोहराना नही चाहेगा पर जत्थेदारों की यह जोड़ी शरारत कर रही है। ‘अगर’ की आड़ में खालिस्तान का मुद्दा उछाला  गया। अगर सरकार देगी तो हम खालिस्तान ले लेंगें! कौन थाली में परोस कर आपको खालिस्तान देगा? फिर कहना था कि ‘हर’ सिख खालिस्तान चाहता है। एक ही झटके में सब सिखों को खालिस्तानी क़रार देने का घोर पाप किया गया। यही  कारण है कि सिख क्षेत्रों में  इसकी इतनी प्रतिक्रिया हुई है यहाँ तक कि जिन्हें ‘गरम ख़याली’ कहा जाता है ने भी समर्थन नही दिया जानते हुए कि यह राजनीतिक स्टंट है। एक ग़ुस्से से भरे सम्पादकीय में अजीत अख़बार के सम्पादक बरजिन्दर सिंह हमदर्द लिखतें हैं, “ हम उनके विचारों से बिलकुल सहमत नहीं…उनके पास सारे सिखों का प्रतिनिधित्व करने का कोई अधिकार नही…संकीर्ण सोच अपना कर …वे सिख विचारधारा को नज़रअंदाज़ कर इसके नैतिक मूल्यों से पीछे हट रहें हैं। इसके लिए सिख जगत उन्हें माफ़ नहीं करेगा”।

पत्रकार जसवंत सिंह अजीत ने लिखा है, “खालिस्तान की माँग एक राजनीतिक खेल है जो निज स्वार्थ के लिए खेला जा रहा है”। अकाल तख़्त के पूर्व जत्थेदार रणजीत सिंह का कहना है कि “यह बहुत घटिया बयान है जो इतने बड़े पद पर बैठे व्यक्ति को शोभा नही देता”। वरिष्ठ नेता सेवा सिंह सेखवां ने कहा है कि “सियासी लक्ष्य के इस्तेमाल के लिए जत्थेदार का इस्तेमाल किया गया”। और भी बहुत प्रमुख सिख हैं जिन्होंने जत्थेदारों के बयानों की निन्दा की है लेकिन इससे भी अर्थ पूर्ण एक वर्ग विशेष की ख़ामोशी है। अकाली दल का नेतृत्व इस मामले में बिलकुल ख़ामोश है। न सरदार प्रकाश सिंह बादल न अकाली दल के प्रधान सुखबीर सिंह बादल और न ही केन्द्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने इस मामले में अपनी चुप्पी तोड़ी है, निन्दा करना तो दूर की बात है। इस से यह शंका बल पकड़ती है कि यह तमाशा अकाली नेतृत्व की राजनीतिक शरारत का हिस्सा है। अतीत में भी अकाली नेतृत्व कभी केन्द्र को दबाने के लिए तो कभी उग्र राय को शांत करने के लिए ऐसे मुद्दे उठाता रहा है पर कभी भी जत्थेदार के पद का इस तरह बेशर्मी से दुरूपयोग नही किया गया। यह जत्थेदार तो अकाली नेतृत्व की कठपुतली हैं क्योंकि चाहे अकाल तख़्त का जत्थेदार हो या शिरोमणि कमेटी का प्रधान इनके नाम का लिफ़ाफ़ा बादल परिवार की जेब से ही निकलता है। वह बादल परिवार के इशारे के बिना इतनी बड़ी बात नही कह सकते थे।

न केवल बादल परिवार की ख़ामोशी बल्कि इस बयान के बाद गोबिन्द सिंह लांगोवाल को पार्टी की कोर कमेटी का सदस्य बनाया जाना बताता है कि अकाली नेतृत्व का एजेंडा  क्या है। अब देखना यह है कि ज्ञानी हर प्रीत सिंह को कब अस्थाई से पक्का किया जाता है! दस वर्ष जब पंजाब में अकाली दल की सरकार थी किसी जत्थेदार ने खालिस्तान का नाम तक नही लिया पर अब क्योंकि अकाली दल बनवास में है और भाजपा के साथ रिश्ते बहुत मधुर नही रहे तो जत्थेदारों के द्वारा मरे हुए मुद्दे उठा कर भाजपा को अपनी ‘न्यूसैंस वैल्यू’ अर्थात शरारत करने की क्षमता बताई जा रही है यह भूलते हुए की इस सरकार ने तो कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया आप की फ़िज़ूल माँग कौन माँगेगा?

पंजाब में धार्मिक अलगाववाद की बात बिलकुल ख़त्म हो चुकी है। कभी कोई कथित खालिस्तानी यहाँ चुनाव नही जीता। उन्हें रास्ते से भटके लोग ही समझा जाता है चाहे विदेश में बैठे पाकिस्तानी समर्थक इसे उठाते रहतें हैं। कोई नही जानता कि यह कथित खालिस्तानी है क्या ? इसका क्या नक़्शा है? जहाँ तक महाराजा रणजीत सिंह के राज्य का सवाल है बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में है और कुछ चीन के क़ब्ज़े में। क्या जत्थेदार इन्हें ख़ाली करवाने की माँग करेंगें? अब जत्थेदार हर प्रीत सिंह ने अपने कहे में कुछ संशोधन किया है और विदेशियों को दोषी ठहराया है पर जो उन्होंने कहा वह तो पत्रकार सम्मेलन में खुला कहा था।

मैं स्वीकार करता हूँ की अपरेशन ब्लू स्टार से सिख हृदय पर गहरी चोट पहुँची थी पर 1980-1992 का पूरा घटनाक्रम सब के लिए पीड़ादायक था, केवल सिखों के लिए ही नही। अब जबकि ब्लू स्टार को 36 वर्ष गुज़र चुकें है सबको  भावनाओं को एक तरफ़ रख निष्पक्षता से विचार करना चाहिए कि क्या हुआ, क्यों हुआ और  देश के सबसे पवित्र स्थानों में से एक में टैंक भेजने की नौबत क्यों आई ? ठीक है भिंडरावाले को खड़ा करना उस समय के कांग्रेस नेतृत्व की चाल थी जो नरमपंथी अकालियों को कोने में धकेलना चाहता था लेकिन उस समय का सिख नेतृत्व भी कम क़सूरवार नही जिसने उस वक़्त आवाज़ नही उठाई जब निरपराधों की हत्या हो रही थी और श्री हरिमंदिर साहिब को देश विरोधी क़िले में परिवर्तित किया जा रहा था। अगर उस वक़्त रोक दिया जाता तो देश और पंजाब का इतिहास और होता।

अपने बेटों को सुरक्षित विदेश भेज कर अकाली नेता दूसरों के लड़कों को ‘मरजीवड़े’ बनने के लिए उकसाते रहे। लंगर के लिए सामान के ट्रकों में असला और विस्फोटक अन्दर लाया गया। किसी भी बड़े सिख नेता ने भिंडरावाले का सामना करने की हिम्मत नही दिखाई चाहे अन्दर से वह विरोध करते रहे। टाईम्स ऑफ इंडिया ने एक सम्पादकीय में उस वक़्त ‘जिस आज़ादी से भिंडरावाले अपना शिकार ढूँढ रहा था’, पर चिन्ता व्यक्त की थी। कांग्रेस की पूर्व सांसद अमरजीत कौर ने तब लिखा था, “हम से अपनी असफलता स्वीकार करना मुश्किल हो रहा है। हमारा कथित जोश और बहादुरी ग़ायब हो गए थे”। अपनी किताब ‘Amritsar : Mrs Gandhi’s Last Battle’ में मार्क टल्ली और सतीश जेकब  लिखतें हैं कि श्रीमती गांधी “ उस राजनीतिक माहौल के लिए ज़िम्मेवार हैं जिसने भिंडरावाले के कट्टरवाद को प्रासंगिक बना दिया। अकाली त्रिमूर्ति भी ज़िम्मेदार थी। बादल और लांगोवाल उस शक्ति के आगे खड़े होने की हिम्मत नही जुटा पाए जिसे वह दुष्ट समझते थे। टोहरा ने उसका अपने हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की”। ख़ुशवंत सिंह ने सही लिखा था, “मैं दोनों अकालियों और सरकार को मंदिर की अपवित्रता का ज़िम्मेवार समझता हूँ”।

किसी ने सही कहा है कि छोटे लोगों की ग़लतियों की चिन्ता नही क्योंकि इनके दुष्परिणाम छोटे होतें हैं, चिन्ता बड़े लोगों की ग़लतियों की है जिनके दुष्परिणाम भयंकर हो सकते हैं। पंजाब का दुर्भाग्य है कि हमने बड़े लोगों की भयंकर भूलों के भयंकर परिणाम भुगते जिन्होंने बाद में सारे देश को लपेट में ले लिया। इनसे सबक़ सीखने की ज़रूरत है जो लगता है कि अकाली नेतृत्व ने नही सीखा। बहुत बार सिख समुदाय का देश के प्रति योगदान तथा उनकी क़ुर्बानियों का ज़िक्र आता है। मेरा तो सवाल है कि इस पर विवाद है कहाँ ? अपने देश के प्रति सिखों का अपार योगदान है इसलिए अफ़सोस होता है कि कुछ अवसरवादी लोग उनके नाम पर माहौल को फिर दूषित करने का प्रयास कर रहें हैं और अनावश्यक भ्रम पैदा कर रहें हैं। इस वर्ष, आईएमए की पासिंग आऊट परेड में ‘सोर्ड ऑफ़ हॉनर’, अर्थात सर्व श्रेष्ठ कैडट का ख़िताब तरनतारन से कैडट अकाशदीप सिंह ढिल्लों को मिला है।  यह हमारा साँझा गौरव है।

एक बात मैं और कहना चाहता हूं जो किसी से स्पर्धा या तुलना में नही लिख रहा।  कभी किसी ने पंजाबी हिन्दू के योगदान की चर्चा नही की जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया, विभाजन की त्रासदी सही और फिर अपने देश में आतंकवाद का सामना किया। इस छोटे से समुदाय ने एक उपराष्ट्रपति, एक प्रधानमंत्री, जम्मू कश्मीर के पहले वज़ीर-ए-आज़म,लोकसभाध्यक्ष,असंख्य न्यायाधीश, जरनैल, वक़ील, अर्थ शास्त्री, डाक्टर, पत्रकार, शिक्षाविद, खिलाड़ी, लेखक, कलाकार, कवि, अभिनेता, बिसनेसमैन, व्यापारी, समाज सेवी देश को दिए है। सोनू सूद बता रहें हैं कि समर्पण का यह सिलसिला जारी है।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.