
दो सप्ताह पहले अपने लेख में मैंने लिखा था, “एक और भारतीय प्रधानमंत्री फेल हो रहें हैं…जिस तरह चीन अंतराष्ट्रीय मंच पर जवाहरलाल नेहरू को बर्दाश्त नही कर सका उसी तरह नरेन्द्र मोदी की अंतराष्ट्रीय पहुँच को पचा नही रहा और उसी तरह चुनौती दे रहा है”। 15-16 जून की रात को गलवान घाटी में जो हिंसक टकराव हुआ और हमारे 20 सैनिक शहीद हो गए से मेरी बात की पुष्टि हो गई कि एक और प्रधानमंत्री को चीन की तरफ़ से गम्भीर चुनौती मिल रही है। जवानों के ज़ख़्म बता रहें हैं कि उनके साथ अत्यन्त बर्बरता का सलूक किया गया जो कोई प्रोफैशनल आर्मी नही करती। इतनी क्रूरता दिखा कर चीन न केवल यह बता रहा है कि उसे किसी की परवाह नही बल्कि हमारी सेना को अपमानित करने का प्रयास भी कर रहा थाऔर गलवान घाटी पर अपना दावा कर भविष्य के टकराव की सम्भावना को खुला छोड़ रहा था।
जवाहरलाल नेहरू और नरेन्द्र मोदी की पृष्ठ भूमि और सिद्धांतों में बहुत अंतर है पर दोनों ने चीन के साथ अच्छे सम्बन्ध रखने का भरसक प्रयास किया पर दोनों ने ही चीन को सही पढ़ने में भूल की। यह भूल लगभग हर प्रधानमंत्री, इंदिरा, राजीव,नरसिम्हा राव, वाजपेयी, मनमोहनसिंह ने भी की।सामरिक विशेषज्ञ सी राजा मोहन ने सही लिखा है कि ‘भारत लगातार चीन के हितों और महत्वकांक्षा को ग़लत समझता रहा है। इस सामरिक शिथिलता को त्यागने में भारत जितनी देर लगाएगा उतनी बड़ी उसकी चीन समस्या होगी’।
नेहरू का विचार था कि दोनों बड़ी और प्राचीन सभ्यता हैं और पश्चिम के शिकंजे से निकल कर दोनों का शांति पूर्ण उत्थान होगा। 1954 में दोनों देशों के बीच पंचशील समझौता हुआ। नेहरू को चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई के साथ अपनी दोस्ती पर बहुत भरोसा था पर वह भूल गए कि अंतराष्ट्रीय सम्बन्धों में स्थाई दोस्त नही होते स्थाई हित होते है। उनके आदर्शवाद की देश ने बड़ी क़ीमत चुकाई। 1962 में चीन के हमले के बाद उन्होंने संसद में माना, “हम आधुनिक दुनिया के यथार्थ से दूर चले गए थे और अपने द्वारा तैयार किए बनावटी माहौल में रह रहे थे”। उस वक़्त वरिष्ठ पत्रकार डी आर मानकेकर ने लिखा था, “नेहरू की ग़लती थी कि उन्होंने निजी कूटनीति और इंसानी सम्बन्धों में बहुत विश्वास किया…उनका अपनी कूटनीतिक कुशलता और निजी आकर्षण पर ज़रूरत से अधिक विश्वास उनके पतन का कारण बना”। दो साल बाद नेहरू का देहांत एक टूटे हुए पराजित इंसान का मौत थी।
चीन के सर्वोच्च नेता माओ ज़ेडांग ने हैनरी किसिंजर को बताया था, “भारत को सबक़ सिखाना ज़रूरी था… नेहरू का क़द छोटा करना ज़रूरी था”। इतिहास फिर दोहराने की कोशिश हो रही है। यही रणनीति अब एक और भारतीय प्रधानमंत्री के प्रति अपनाई जा रही है।नरेन्द्र मोदी ने भी ‘निजी कूटनीति तथा मानवीय सम्बन्धों’ पर बहुत ज़ोर दिया है। भारत के किसी भी प्रधानमंत्री ने चीन की उतनी यात्रा (5) नही की जितनी नरेन्द्र मोदी ने की है। वह 18 बार विभिन्न मंचों पर शी जिनपिंग से मिल चुके है पर दिलचस्प है शी जिनपिंग वह नेता हैं जिन्हें मोदी कभी जप्फी नही डालते ! मोदी के कार्यकाल में चीन का निवेश पाँच गुना बढ़ा है और यह सबसे अधिक गुजरात में हुआ है। अब चीन के माल के बहिष्कार की बात हो रही है पर एकदम कुछ नही हो सकता क्योंकि चीन की आर्थिक घुसपैठ व्यापक है। इसके लिए दीर्घकालीन योजना की ज़रूरत है। जो चीज़ें देश में आसानी से बन सकतीं हैं वह चीन से आयात क्यों की जा रहीं है ? चीन के लिए बाज़ार खुला छोड़ कर हमने अपने यहाँ बेरोज़गारी बढ़ाई है।
हमारे विदेश मंत्री एस जयशंकर ने चीनी विदेश मंत्री से कहा है कि, ‘सीमा पर जो स्थिति है उसका दोनो के सम्बन्धों पर बुरा असर पड़ेगा’ पर चीन अभी बेपरवाह है। नरेन्द्र मोदी के लिए समस्या है जो जवाहरलाल नेहरू के लिए नही थी। नेहरू की छवि एक आदर्शवादी शान्ति प्रिय नेता की थी। नरेन्द्र मोदी की छवि एक ‘56 इंच की छाती’ वालेतगड़ेबाहुबली की है जिसके आगे कोई टिक नही सकता।यह सब तब तक तो सही थे जब सामने पाकिस्तान था पर आज सामने आक्रामक चीन है जिसने सीमा पर हर नियम को तोड़ दिया है और देश इस उत्तेजना का माक़ूल जवाब माँग रहा है।
यही कारण भी है कि 15-16 जून की रात की घटना जब हमारे 20 सैनिकों ने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान दियाथा पर प्रधानमंत्री मोदी की पहली प्रतिक्रिया से देश स्तब्ध रह गया। उनका कहना था कि ‘लद्दाख में न कोई हमारी सीमा में घुसा और न ही हमारी पोस्ट पर कोई क़ब्ज़ा हुआ’। ऐसा लग रहा था कि वह चीन को क्लीन चिट दे रहें हैं। तब सवाल उठा कि अगर कुछ हुआ ही नही, कोई घुसपैंठ नही हुई तो हमारी 20बहुमूल्य जाने क्यों गईं? 10 सैनिक चीन की क़ैद में क्यों थे? बाद में समझाने की कोशिश की गई कि चीन को ढाँचा खड़ा करने से रोकने के लिए झड़प हुई। चीन का भी बराबर जानी नुक़सान हुआ पर नाज़ुक समय में इस सरकार की शुरूआती ख़ामोशी समस्या खड़ी करती है। अभी भी कोई स्पष्टीकरण नही दिया गया कि पैंगांग त्सो झील के उतरी किनारे पर हमारी गश्त जो फ़िंगर 8 तक जाती थी वह फ़िंगर 4 पर क्यों रूक गई है? चीन वहाँ कैसे जम गया है? सेना अधिकारियों के बीच वार्ता में हम मई 4 से पहले वाली यथा स्थिति बहाल करने की माँग कर रहें हैं। यह ‘यथा स्थिति’ क्या थी?क्या अंतर आया है? पूर्व नॉर्दर्न आर्मी कमांडर लै. जनरल डी एस हुड्डा ने लिखा है,“जब मई के शुरू में चीन ने एलएसी में कई जगह घुसपैठ की यह स्पष्ट हो गया कि स्थिति पिछली घटनाओं से बिलकुल अलग है…”। जनरल हुड्डा भी ‘कई जगह घुसपैंठ’ की बात कर रहें हैं। उनकाभी कहना था कि चीनी सेना ने पैंगांग झील के उत्तरी किनारे पर क़ब्ज़ा कर लिया।
इस महामारी के बीच भारत पर निशाना साध कर चीन केवल न केवल हमें पर बाक़ी दुनिया को भी संदेश भेज रहा है कि इस क्षेत्र का वह बड़ा दादा है। जापान, तायवान,इंडोनेशिया, वियतनाम को भी संदेश भेजा जा रहा है कि अगर हम भारत से निबट सकते है तो तुम से भी निबट लेंगे। यह अलग बात है कि ऐसा करते वक़्त चीन ने भारत को खो दिया है। आँखों से सुनहरी चश्मा उतर गया। हमारी पीढ़ी बहुत मुश्किल से 1962 को भूली थीआने वाली पीढ़िया इस विश्वासघात को दशकों याद रखेंगी।
संकट के समय लोग अपनी सरकार और अपनी सेना के साथ खड़े हैं पर वे अपने नेताओं को अपने बीच देखना भी चाहतें हैं। लोकतंत्र में यह उनका अधिकार भी है पर न कोरोना महामारी के दौरान और न ही अब किसी बड़े नेता ने जनता के बीच जाने की कोशिश की। तीन महीने के बाद गृह मंत्री अमित शाह कोरोना के मामले में सक्रिय हुए हैं। उस से पहले वह सार्वजनिक सभा कर नीतीश कुमार की तारीफ़ और ममता बैनर्जी को लताड़ चुके थे। प्राथमिकता क्या है? क्या वोट ही सब कुछ हैं? अगर काम अच्छा होगा तो वोट तो ख़ुद ही मिल जाएँगे। डानल्ड ट्रंप, बॉरिस जॉनसन और यहीं तक कि शी जिनपिंग को अस्पताल का दौरा करते देखा गया। डानल्ड ट्रंप तो बिना मास्क घूमते है पर हमारे नेता केवल वर्चूअल बैठकों में ही नज़र आते हैलोगों के बीच जाने का जोखिम नही उठा रहे। केवल आप के नेता हैं जो लोगों में जा रहे हैं और उसकी क़ीमत भी चुका रहें हैं।
यह सरकार और एक बड़ी ग़लती कर रही है। वह विपक्ष की आवाज़ या आलोचना को दबाने की कोशिश कर रही है जबकि आज के युग में कुछ नही छिप सकता, सैटेलाइट और इंटरनेट सब साफ़ कर देते है। राहुल गांधी या किसी और को सवाल पूछने का हक़ है। इसका यह जवाब नही हो सकता कि ‘तुम सेना का मनोबल नीचा कर रहे हो’। आलोचना को दबा कर आप मामला रफ़ा दफा नही कर सकते क्योंकि लद्दाख में जो घटा है इसकी चर्चा हर छावनी में हैं और कई पूर्व सेनाधिकारी भी सवाल पूछ रहे हैं।1962 की पराजय के समय नेहरू ने संसद का विशेष अधिवेशन बुलाया था और न केवल विपक्ष बल्कि अपने लोगों से भी चुपचाप गालियाँ खाईं थी। डा.एल एम सिंघवी ने सुझाव दिया था कि गुप्त अधिवेशन बुलाया जाए क्योंकि मामला अत्यन्त संवेदनशील है पर नेहरू नही माने और खुली आलोचना को आमंत्रित किया। 165 सांसदों ने अपनी बात कही किसी को टोका नही गया। उनके अपने सांसद महावीर त्यागी ने तीखी आलोचना कीथी। असम से सांसद विशेष तौर पर निर्मम थे। आलोचना करने वालों में प्रमुख थे राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी। यह भी उल्लेखनीय है कि अधिवेशन वाजपेयी के सुझाव पर बुलाया गया जबकि उनके कुल चार सांसद थे। तीखी आलोचना करते हुए वाजपेयी ने नेहरू से कहा कि ‘आपने महा अपराध किया है…महान पाप के भागी बने है’। उनकी बात चुपचाप सुनी गई किसी ने बीच रूकावट नही डाली। जिस वक़्त वाजपेयी बोल रहे थे सीमा पर झड़पे अभी जारी थीं पर किसी ने उन्हें राष्ट्र विरोधी नही कहा।
क्या वर्तमान सरकार भी इसी तरह संसद का अधिवेशन बुलाएगी, देश के आगे सारी तस्वीर रखेगी, विपक्ष की बात सुनेगी? क्या हुआ और आगे क्या है,क्या राष्ट्र को बताया जाएगा क्योंकि पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल वी पी मलिक भी ‘सीमित युद्ध’ के बारे ख़बरदार कर रहें हैं।
चीन, नेहरू और मोदी (China, Nehru and Modi),