
लगभग हर क्षेत्र की तरह चीन से उत्पन्न वायरस ने शिक्षा के क्षेत्र को भी अस्त व्यस्त कर दिया है। यूनेस्को के अनुसार दुनिया के 186 देशों के 120 करोड़ बच्चे कक्षाओं से बाहर हैं और जीवन में आए इस उथल पुथल से परेशान है। पिछले महीने की युनिसैफ की रिपोर्ट के अनुसार यह महामारी दक्षिण एशिया के बच्चों की ज़िन्दगी और भविष्य को ‘फाड़ रही है’। बच्चे, उनके पेरंटस और सरकार सब असमंजस में हैं। कुछ परिक्षाओ को लेकर अनिश्चितता है न ही मालूम है कि शिक्षा संस्थान कब खुलेंगे? फ़ीस को ले कर भी काफ़ी हंगामा हो चुका है। पेरंटस चाहतें हैं कि उनके बच्चे बढ़िया संस्थानों में पढ़ें। कई निजी स्कूल एयरकंडीशन्ड हो गए।स्कूल ऑन लाइन हो गए, स्मार्ट क्लास शुरू हो गई। इन सब पर स्थाई ख़र्चा है। पेरंटस भी चाहतें हैं कि बच्चे ‘स्मार्ट’ बने फिर भी बहुत दुख की बात है कि कुछ पेरंटस फीस को लेकर धरना देते हैं, स्कूल मैनेजमेंट की ‘हाय’, ‘हाय’ करतें हैं। राजनेता भी कूद पडतें हैं। यह अशोभनीय ही नही, शिक्षा के सार को नकारना है। अगर माँ बाप ग़ैर ज़िम्मेवार होंगे तो बच्चों को सभ्य नागरिक बनना बहुत मुश्किल होगा। पर इस नाज़ुक हालात को देखते हुए ध्यान रखना चाहिए कि कोई बच्चा पढ़ाई से वंचित न रह जाए क्योंकि अब कई पेरंटस पूरा ख़र्चा उठाने में असमर्थ हैं। प्रबन्धकों को उदारता दिखानी होगी।
लेकिन यह मेरे लेख का विषय नही है। मुझे ऑन लाइन शिक्षा पर जो ज़रूरत से अधिक ज़ोर दिया जा रहा है पर आपत्ति है। ऑन लाइन शिक्षा असली शिक्षा का विकल्प नही हो सकती। यह केवल समय की मजबूरी है जिसे न अध्यापक पसन्द कर रहे हैं, न बच्चे। केवल शिक्षा बेचने वाली कम्पनियाँ बल्ले बल्ले है। हैरानी है कि आज शिक्षा भी ‘बेची’ जा रही है ! पर ऐसी शिक्षा केवल सहायक हो सकती है, ईंट और सीमेंट के बने स्कूल जहॉं शारीरिक तौर पर शिक्षक मौजूद है, का नही हो सकती। बच्चों को ख़ाली समय में व्यस्त रखने और पाठ्यक्रम से उन्हें जुड़े रखने का यह अस्थाई साधन मात्र है। बहुत कम्पनियाँ जो शिक्षा बेचती है महँगी भी बहुत है। हैरानी है कि इन में से कुछ खुद को बेचने के लिए फ़िल्म स्टार का इस्तेमाल कर रहें हैं ! उन्हें कोई शिक्षाविद नही मिला क्या ? इनका कहना है कि बच्चे देख कर सीखतें हैं पर यह आंशिक तौर पर सही है, बच्चे देख कर और सुन कर सीखतें हैं। एक बोर्ड चाहे वह कितना भी आकर्षक और माडर्न क्यों न हो अध्यापक की जगह नही ले सकता। टीचिंग के लिए टीचर ज़रूरी है। भारत जैसे ग़रीब देश में तो और भी समस्याएँ हैं, इन में पाँच प्रमुख हैं:
- बहुत माँ बाप ग़रीब हैं वह अपने बच्चों को यह आधुनिक स्मार्ट शिक्षा नही दे सकते। पंजाब में हज़ारों बच्चे प्राईवेट स्कूल छोड़ कर सरकारी स्कूलों में चलें गए हैं। एक कारण फ़ीस है पर दूसरा बड़ा कारण है कि वह यह नई स्मार्ट शिक्षा सम्भाल नही सकते। कईयों के पास स्मार्ट फ़ोन नही हैं। अधिकतर के पास एक फ़ोन है पर घर में दावेदार अधिक हैं। लोअर मिडल क्लास जो अपने बच्चों के लिए महत्वकांक्षी है बहुत प्रभावित हुई है क्योंकि उनके बच्चे पिछड़ रहें हैं। कई जगह दर्दनाक परिणाम भी सामने आ रहें हैं। केरल के एक दिहाडीदार मज़दूर की बेटी ने आत्महत्या कर ली क्योंकि परिवार के पास ई-शिक्षा के लिए स्मार्ट फ़ोन ख़रीदने के पैसे नही थे। ऐसा ही दर्दनाक समाचार पंजाब में मानसा से है जहाँ भी एक लड़की ने इसी कारण आत्महत्या कर ली। ऐसे भी समाचार है कि बच्चे की पढ़ाई के लिए क़र्ज़ ले कर स्मार्ट फ़ोन खरादे जा रहें हैं। कई घरों में राशन को रोक कर स्मार्ट फ़ोन ख़रीदने के समाचार हैं। संक्षेप मेंकहा जा सकता है कि ग़रीब परिवार के होनहार बच्चे महसूस करतें हैं कि ज़िन्दगी की रेस उनके खेलने से पहले तय हो रही है।
- देश में सबके पास इंटरनेट नही हैं। देश में केवल 8 प्रतिशत परिवार हैं जिनके पास कम्प्यूटर और इंटरनेट हैं। 43000 गाँव है जो मोबाइल कवरेज से बाहर है। इनके बच्चों का क्या होगा? कई घरों में इंटरनेट तो है पर इस्तेमाल करने वाले अधिक है। हरेक के लिए काम करने के लिए अलग शांत कमरा नही है। बच्चे शिकायत करते है कि घर में पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित करना मुश्किल है। तीसरी कक्षा की सिमरन की शिकायत है कि समझ नही आता क्योंकि चित्र और अक्षर छोटे हैं। चौथी क्लास का गौरव कहता है कि उसे ऑनलाइन समझ नही आता मम्मी से समझना पड़ता है। अध्यापक बताते हैं कि उनसे सब बच्चों से सही कनैक्ट नही होता। हरेक पर ध्यान नही दिया जा सकता। कई पुराने टीचर हैं जिनके लिए यह सारा माजरा नया और कठिन है।
- बडी चिन्ता यह है कि अगर यही चलता रहा तो बच्चे दो वर्गों में बँट जाएँगे, जिनके पेरंटस साधन सम्पन्न है और लैपटॉप आदि ख़रीद सकते हैं और वह ग़रीब परीवारों के बच्चे जिनके पास स्मार्ट फ़ोन भी नही है। शिक्षा में बराबरी का लक्ष्य छीन लिया जाएगा। जो बच्चे इसलिए वंचित रह जाऐंगे क्योंकि उनके माँ बाप आधुनिक शिक्षा के साधन उपलब्ध नही करवा सके, तमाम उम्र यह दुर्भाव उठाए रखेंगे। स्कूल सब को बराबर रखतें हैं पर हम फिर उन्हें ‘हैवस’ और ‘हैव-नॉटस’ में बाँट रहें हैं, जिनके पास है और जिनके पास नही है। इस से बच्चों में हताशा बढ़ेगी।
- घर बैठ कर बच्चे का शारीरिक और मानसिक विकास नही हो सकता। न दोस्त, न खेल, न स्पर्धा। बहुत बच्चे घर से बाहर निकलने के लिए तड़प रहें हैं। माँ बाप बताते है कि छोटे बच्चे विशेष तौर पर घर में बंद हो कर चिड़चिड़े और बेचैन हो रहे हैं। स्कूल या कॉलेज के वातावरण को बच्चे याद करतें हैं। साथियों की कमीमहसूस करतें हैं। घर में बंद रहना ‘न्यू नॉरमल’ हो सकता है पर अधिकतर के लिए यहअप्रिय है। कक्षा के अन्दर जो पढ़ाई होती है, जो संवाद होता है, जो माहौल होता है उसकी कोई बराबरी नही। ऑनलाइन तो अप्राकृतिक और बनावटी है। बच्चों के व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए केवल पढ़ाई ही नहीस्पोटर्स भी चाहिए और सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी चाहिए। यह ऑनलाइन नही हो सकता। जयपुर के कुछ डाक्टरों के अध्ययन के अनुसार बच्चे न केवल चिड़चिड़े हो गए हैं बल्कि घर बैठ कर शारीरिक समस्याएँ शुरू हो रहा है। कईयों का वज़न बढ़ रहा है तो कईयों को ठीक नींद नही आ रही। कुछ ज़िद्दी हो रहें हैं तो कुछ लापरवाह।उनमे थकान और सरदर्द बढ़ रही है। लम्बे समय तक देखने पर आँखें दर्द करतीं हैं।
- लेकिन सबसे बड़ी आपति आख़री है। यह नई व्यवस्था अध्यापक की भूमिका को कमज़ोर कर देती है। टीचर एक मशीन का पुर्ज़ा बन कर रह जाता है, मिडल मैन बन जाता है। उसकी मौलिकता ख़त्म हो जाती है। सामान्य शिक्षा में एक अध्यापक का काम केवल पढ़ाना ही नही, वह तो एक प्रकार से बच्चों का मार्गदर्शक, शुभचिन्तक,मित्र सब है। ज़रूरत पड़ने पर अनुशासित भी करता है। हमारे ज़माने में तो थप्पड़ भी पड़ते थे, मुर्ग़ा भी बनाया जाता था ! यह तो अब क़ानूनन बंद हो चुका है पर अगर अध्यापक अच्छा है तो वह उद्दंड से उद्दंड छात्र को समभाल लेता हैजहाँ कई बार माँ बाप असफल रहतें हैं। अध्यापक और छात्र में आत्मिक और मानसिक जुड़ाव होता हैवह बच्चों को प्रेरित करता है और ज़िन्दगी की चुनौतियों से रूबरू करता है। अच्छा अध्यापक तो रास्ता भी दिखाता है। कई बच्चे तो टीचर पर माँ बाप से भी अधिक भरोसा करते है। उन्हें जो कक्षा में प्यार से समझाया जाता है वह ऑनलाइन नही समझाया जा सकता। ऑनलाइन व्यवस्था अध्यापक को फ़िज़ूल बना देती है, एक क्लिक से ऑन तो एक क्लिक से ऑफ़। कोई डिजिटल चर्चा गुरू के पाठ कि जगह नही से सकती। हमारा देश में तो प्राचीन समय से गुरू की परम्परा है और हमारे तो महापुरुष बचपन में आश्रम भेजे गए ताकि आने वाली ज़िन्दगी के लिए तैयार किया जा सके। इसरो के पूर्व चेयरमैन जो जेएनयू के उपकुलपति भी रह चुकें हैं, डा. के कस्तूरी रंगन का सही कहना है कि ‘शिक्षा के लिए सीधा शारीरिक और मानसिक संवाद’ ज़रूरी है जो ऑन लाइन टीचिंग में नही हो सकता।
दिल्ली के उपमुख्यमंत्री तथा शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा है कि समय आ गया कि हम स्कूली शिक्षा को फिर से परिभाषित करें। वह चाहतें हैं कि बच्चे ‘रंटल परीक्षा’ से मुक्त हो। पर यह कैसे होगा ? बार बार शिक्षा जैसे संवेदनशील से छेड़छाड़ सही नही। अगर यह देखा जाऐ कि विदेशों में हमारे लोग अच्छा प्रदर्शन करते है तो इसका मतलब है कि कहीं न कहीं कुछ सही भी है। जहाँ तक विशेषज्ञों का सवाल है उनमें बहुत मतभेद हैं वह तो अभी तक यह तय नही कर सके कि अकबर ‘ग्रेट’ था या नही! बहरहाल ऑन लाइन शिक्षा और ई-लरनिंग का समय चल रहा है पर यह अस्थाई मजबूरी है। एक दिन बच्चों को शिक्षा संस्थाओं में लौटना है जहाँ उन्हें इंसान पढ़ाएँगे, मशीन नही।
अध्यापक के बिना अध्यापन नहीं (No Teaching Without Teacher),